ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा॒ता पि॒तर॑मृ॒त आ ब॑भाज धी॒त्यग्रे॒ मन॑सा॒ सं हि ज॒ग्मे। सा बी॑भ॒त्सुर्गर्भ॑रसा॒ निवि॑द्धा॒ नम॑स्वन्त॒ इदु॑पवा॒कमी॑युः ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒ता । पि॒तर॑म् । ऋ॒ते । आ । ब॒भा॒ज॒ । धी॒ती । अग्रे॑ । मन॑सा । सम् । हि । ज॒ग्मे । सा । बी॒भ॒त्सुः । गर्भ॑ऽरसा । निऽवि॑द्धा । नम॑स्वन्तः । इत् । उ॒प॒ऽवा॒कम् । ई॒युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे। सा बीभत्सुर्गर्भरसा निविद्धा नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः ॥
स्वर रहित पद पाठमाता। पितरम्। ऋते। आ। बभाज। धीती। अग्रे। मनसा। सम्। हि। जग्मे। सा। बीभत्सुः। गर्भऽरसा। निऽविद्धा। नमस्वन्तः। इत्। उपऽवाकम्। ईयुः ॥ १.१६४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यादीनां कार्य्यकारणव्यवस्थामाह ।
अन्वयः
बीभत्सुर्गर्भरसा निविद्धा सा माता धीत्यग्रे पितरमृते आबभाज यं हि मनसा संजग्मे तामाप्य नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः ॥ ८ ॥
पदार्थः
(माता) पृथिवी (पितरम्) सूर्यम् (ऋते) विना (आ) (बभाज) सर्वं सेवते (धीती) धीत्या धारणेन। अत्र सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशः। (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (मनसा) विज्ञानेन (सम्) सम्यक् (हि) किल (जग्मे) संगच्छते (सा) (बीभत्सुः) या भयप्रदा (गर्भरसा) रसो गर्भे यस्याः सा (निविद्धा) नितरां विद्युदादिभिस्ताडिता (नमस्वन्तः) प्रशस्तान्नयुक्ता भूत्वा (इत्) एव (उपवाकम्) उपगता वाक् यस्मिंस्तम् (ईयुः) यन्ति प्राप्नुवन्ति ॥ ८ ॥
भावार्थः
यदि सूर्येण विना पृथिवी स्यात् तर्हि स्वशक्त्या सर्वान् कुतो न धारयेत्। यदि पृथिवी न स्यात्तर्हि सूर्यः स्वप्रकाशवान् कथं न भवेत्। अतोऽस्यां सृष्टौ स्वस्वस्वभावेन सर्वे पदार्थाः स्वतन्त्राः सन्ति सापेक्षव्यवहारे परतन्त्राश्च ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्यादिकों की कार्य-कारण व्यवस्था को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
(बीभत्सुः) जो भयङ्कर (गर्भरसा) जिसके गर्भ में रसरूप विद्यमान (निविद्धा) निरन्तर बँधी हुई (सा) वह (माता) पृथिवी (धीती) धारण से (अग्रे) सृष्टि के पूर्व (पितरम्) सूर्य के (ऋते) विना सबका (आ, बभाज) अच्छे प्रकार सेवन करती है जिसको (हि) निश्चय के साथ (मनसा) विज्ञान से (सं, जग्मे) सङ्गत होते प्राप्त होते उसको प्राप्त होकर (नमस्वन्तः) प्रशंसित अन्नयुक्त होकर (इत्) ही (उपवाकम्) जिसमें वचन मिलता उस भाग को (ईयुः) प्राप्त होते हैं ॥ ८ ॥
भावार्थ
यदि सूर्य के विना पृथिवी हो तो अपनी शक्ति से सबको क्यों न धारण करे ? जो पृथिवी न हो तो सूर्य आप ही प्रकाशमान कैसे न हो ? इस कारण इस सृष्टि में अपने-अपने स्वभाव से सब पदार्थ स्वतन्त्र हैं और सापेक्ष व्यवहार में परतन्त्र भी हैं ॥ ८ ॥
विषय
उपदेश कौन प्राप्त करते हैं
पदार्थ
१. मन्त्र के चौथे चरण में कहते हैं कि (नमस्वन्तः) = नमस्वाले, अर्थात् नम्रता से युक्त (इत्) = ही (उप) = आचार्य के समीप पहुँचकर (वाकम्) = उपदेश को [वच्+घञ्] वेदवाणी को (ईयुः) = प्राप्त होते हैं । आचार्य सौम्य शिष्यों को ही प्रेम से उपदेश देते हैं। उपदेश ग्रहण करनेवाले का प्रथम गुण [नम्रता] भक्ति व सेवावृत्ति है। इस नम्र शिष्य के अन्य गुणों का उल्लेख प्रथम तीन चरणों में इस प्रकार हुआ है - २. (माता) = जीवन का निर्माण करनेवाला विद्यार्थी (पितरम्) = ज्ञानप्रद आचार्य के पास (ऋते) = सत्य ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त आता है। विद्यार्थी वही हो सकता है, जिसमें जीवन निर्माण की भावना है। यह आचार्य के पास सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए आता है । ३. जब एक विद्यार्थी इस प्रकार की भावना से आचार्यकुल में आता है तभी वह (मनसा) = हृदय से और हृदय भी कैसा ? (धीति अग्रे) = जिसमें कर्म सर्वप्रधान है, अर्थात् श्रम की प्रबल भावना से युक्त होकर हि ही वह आचार्य के पास (संजग्मे) = सम्यक् गमन करता है । ४. (सा) = जीवननिर्माण का अभिलाषी विद्यार्थी ही (बीभत्सुः) = आचार्य के साथ अपने को बाँधने की इच्छावाला होता हुआ (गर्भरसा) = गर्भरस से - रहस्यमय ज्ञान के जल से (निविद्धा) = हृदय के अन्तस्तल तक सिक्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ – जीवन निर्माण के अभिलाषी को विनीतभाव से आचार्य-चरणों में पहुँचकर अपने को ज्ञान-जल से सिक्त करना चाहिए।
विषय
माता पिता या दम्पतिवत् सूर्य पृथ्वी और परमेश्वर प्रकृति का वर्णन। गर्भरसा बीभत्सु माता का रहस्य।
भावार्थ
जिस प्रकार (माता) पुत्रों को उत्पन्न करने वाली स्त्री ( पितरम् ) पुत्रों के उत्पादक और पालक पुरुष को ( ऋते ) सत्य व्यवहार या परस्पर संगम के निमित्त या ( ऋते = ऋतौ) ऋतु के अवसर पर ( आ बभाज ) सेवती है, उसके समीप आती है, और वह ( अग्रे ) उसके भी पूर्व ( धीती ) स्त्री को पुरुष धारण करने, और पालन पोषण करने के सामर्थ्य से और स्त्री पुरुष को सन्तान धारण करने के निमित्त ( मनसा ) चित्त से ( संजग्मे हि ) संगत हो जाती है, उसको मनसे चाहती है । और ( सा ) वह ( बीभत्सुः ) बन्धन चाहती हुई ( गर्भरसा ) गर्भ रूप, सार रूप वीर्य को धारण करने में समर्थ होकर ( निविद्धा ) पति से अच्छी प्रकार संगत होकर रहती है और ( नमस्वन्तः) परस्पर विनयशील होकर ही लोग (उप वाकम् ) परस्पर के वचन प्रतिवचन को ( ईयुः ) प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( ऋते ) जल के प्राप्त करने के लिये और सूर्य के सात्विक बल पर ही ( माता ) समस्त प्राणियों की माता यह पृथिवी भी ( पितरम् ) सबके पालक सूर्य को ( आ बभाज ) सब प्रकार से सेवती है। ( अग्रे ) पूर्व ही दोनों एक दूसरे को ( धीती ) धारण करने के सामर्थ्य से और ( मनसा ) स्तम्भन बल से ( संजग्मे हि ) संगत होते हैं । ( सा ) वह पृथिवी ( बीभत्सुः ) सूर्य से बंधने की इच्छा करती हुई ( गर्भरसा ) अपने वीजवपनादि द्वारा गर्भित होने के रस अर्थात् बल को और अपने गर्भ में जल को धारण करती हुई ( निविद्धा ) सब प्रकार खनी जाती है। ( नमस्वन्तः ) अन्न के लाभ करने हारे कृषक जन ही इस ( उप वाकम् ) वेद वाक्य के तत्व को ( अथवा उपवाकम् = उपपाकं ) पके के समान अन्न को ( ईयुः ) भली प्रकार जानें। इसी प्रकार जगन्निर्मात्री माता प्रकृति पिता परमात्मा को उसके ऋत परम ऐश्वर्यमय बल में बंध कर उसका आश्रय लेती है। उसके (धीती, मनसा ) धारण सामर्थ्य और ज्ञान सामर्थ्य से वह उसके साथ सदा संगत रहती है। वह ब्रह्म बीज से गर्मित होकर इसकी शक्ति से ओत प्रोत हो जाती है । इस तत्व ज्ञानमय वचन रूप उपनिषत् को ज्ञानवान्, विनयी जन ही प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जर सूर्याशिवाय पृथ्वी असेल तर आपल्या शक्तीने सर्वांना धारण कशी करू शकेल? जर पृथ्वी नसेल तर सूर्य स्वतःच प्रकाशमान कसा होणार नाही? यामुळे या सृष्टीत आपापल्या गुणधर्मानुसार सर्व पदार्थ स्वतंत्र आहेत व सापेक्षतेने परतंत्र आहेत. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The proud and amorous mother seeks the company of father for the waters of life and joins him with love and her innate power of motherhood. Then she receives the rain showers of life and the children of nature receive the food for the body and Word for the mind with reverence and worship.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The cause and effect of the Sun and other objects is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A mother approaches the father and her child in proper season for begetting a son. Similarly he also approaches her with true knowledge and loving mind; she being desirous of impregnation. Likewise, the mother earth comes in contact with the father sun, for the sake of water (rain) and the Yajna also approached him for the same purpose. Then all people desirous of abundant grain, exchange words of love and gratitude.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
By the simile of the sun and the earth the love should exist between husband and wife. And the object of that conjugal love is in the form of good progeny. It is also shown that the sun and the earth etc. are all interdependent in their functions, though working separately to a certain extent.
Foot Notes
(माता) पृथिवी = Earth as mother. ( पितरम्) सूर्यम् = Sun as father. (नमस्वन्त:) प्रशस्तान्नयुक्ता: = Having good grain.
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