ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 33
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्यौर्मे॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्मे मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्। उ॒त्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒३॒॑र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हि॒तुर्गर्भ॒माधा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठद्यौः । मे॒ । पि॒ता । ज॒नि॒ता । नाभिः॑ । अत्र॑ । बन्धुः॑ । मे॒ । मा॒ता । पृ॒थि॒वी । म॒ही । इ॒यम् । उ॒त्ता॒नयोः॑ । च॒म्वोः॑ । योनिः॑ । अ॒न्तः । अत्र॑ । पि॒ता । दु॒हि॒तुः । गर्भ॑म् । आ । अ॒धा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्। उत्तानयोश्चम्वो३र्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥
स्वर रहित पद पाठद्यौः। मे। पिता। जनिता। नाभिः। अत्र। बन्धुः। मे। माता। पृथिवी। मही। इयम्। उत्तानयोः। चम्वोः। योनिः। अन्तः। अत्र। पिता। दुहितुः। गर्भम्। आ। अधात् ॥ १.१६४.३३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 33
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् यत्र पिता दुहितुर्गर्भमाधात् तत्र चम्वोरिव स्थितयोरुत्तानयोरन्तो मम योनिरस्ति। अत्र मे जनिता पिता द्योरिवाऽत्र मे नाभिर्बन्धुरियं मही पृथिवीव माता वर्त्तत इति वेद्यम् ॥ ३३ ॥
पदार्थः
(द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यो विद्युदिव (मे) मम (पिता) (जनिता) (नाभिः) बन्धनम् (अत्र) अस्मिन् जन्मनि (बन्धुः) भ्रातृवत् प्राणः (मे) मम (माता) मान्यप्रदा जननी (पृथिवी) भूमिरिव (मही) महती (इयम्) (उत्तानयोः) उपरिस्थयोरूर्ध्वं स्थापितयोः पृथिवीसूर्ययोः (चम्वोः) सेनयोरिव (योनिः) गृहम् (अन्तः) मध्ये (अत्र) अस्मिन्। अत्र ऋचि तुनुघ इति दीर्घः। (पिता) सूर्यः (दुहितुः) उषसः (गर्भम्) किरणाख्यं वीर्यम् (आ) (अधात्) समन्ताद्दधाति ॥ ३३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। भूमिसूर्यौ सर्वेषां मातापितृबन्धुवद्वर्तेते इदमेवाऽस्माकं निवासस्थानं यथा सूर्यः स्वस्मादुत्पन्नाया उषसो मध्ये किरणाख्यं वीर्यं संस्थाप्य दिनं पुत्रं जनयति तथैव पितरौ प्रकाशमानं पुत्रमुत्पादयेताम् ॥ ३३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रकारान्तर से उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जहाँ (पिता) पितृस्थानी सूर्य (दुहितुः) कन्या रूप उषा प्रभात वेला के (=में) (गर्भम्) किरणरूपी वीर्य को (आ, अधात्) स्थापित करता है वहाँ (चम्वोः) दो सेनाओं के समान स्थित (उत्तानयोः) उपरिस्थ ऊँचे स्थापित किये हुए पृथिवी और सूर्य के (अन्तः) बीच मेरा (योनिः) घर है (अत्र) इस जन्म में (मे) मेरा (जनिता) उत्पन्न करनेवाला (पिता) पिता (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य बिजुली के समान तथा (अत्र) यहाँ (मे) मेरा (नाभिः) बन्धनरूप (बन्धुः) भाई के समान प्राण और (इयम्) यह (मही) बड़ी (पृथिवी) भूमि के समान (माता) मान देनेवाली माता वर्त्तमान है यह जानना चाहिये ॥ ३३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। भूमि और सूर्य सबके माता-पिता और बन्धु के समान वर्त्तमान है, यही हमारा निवासस्थान है। जैसे सूर्य अपने से उत्पन्न हुई उषा के बीच किरणरूपी वीर्य को संस्थापन कर दिनरूपी पुत्र को उत्पन्न करता है, वैसे माता-पिता प्रकाशमान पुत्र को उत्पन्न करें ॥ ३३ ॥
विषय
सृष्टि में परमेश्वर की क्या आवश्यकता ?
पदार्थ
१. विज्ञान की प्रारम्भिक ज्योति से जब जीव के नेत्र खुलते हैं तो उसकी विचारधारा इस रूप में होती है कि (द्यौः) = द्युलोक (मे) = मेरा पिता रक्षक है। सूर्य के द्वारा वृष्टि उत्पन्न करके द्युलोक ही तो मेरा रक्षण कर रहा है। सम्भवतः प्रारम्भ में जीवन का सूत्रपात भी द्युलोक से ही हुआ था, अतः वही मेरा (जनिता) = उत्पादक भी है । (अत्र) = इसी द्युलोक में कार्यकारणभाव की श्रृंखला की अन्तिम कड़ी का (नाभिः) = बन्धन है [नह् बन्धने] । २. (इयम्) = यह (मही) = महनीयआदर के योग्य (पृथिवी) = विस्तृत भूमि (मे) = मेरी (बन्धुः) = मित्रवत् हितकारी है। अन्न इत्यादि के उत्पादन द्वारा जीवन की सुबद्धता का हेतु है और (माता) = मेरे जीवन की निर्मात्री है। ३. इन (उत्तानयोः) = ऊर्ध्वतानउत्तमता से विस्तृत (चम्वोः) = पृथिवी तथा आकाशरूप पात्रों का (योनिः) = शक्ति के मिश्रण का स्थान (अन्तः) = मध्य में, अर्थात् अन्तरिक्षलोक में है । ४. (अत्र) = यहाँ अन्तिरिक्ष में ही पिता द्युलोक (दुहितुः) = 'दूरे हिता' दूरस्थ पृथिवी के (गर्भम्) = गर्भ को (आधात्) = स्थापित करता है। अन्तरिक्ष से ही वृष्टि आदि होकर पृथिवी में अन्नादि को उत्पन्न करने की शक्ति स्थापित की जाती है । ५. इस प्रकार द्युलोक तथा पृथिवीलोक की शक्ति अन्तरिक्षलोक में संगत होकर संसार का सम्यक् पालन हो जाता है। इस सारे पालनकार्य में प्रभु की आवश्यकता नहीं, अतः उसे क्यों मानें ? यह विचार सदा अर्धवैज्ञानिक को उत्पन्न होता और वह नास्तिक-सा बन जाता है। यह विचार ही मनुष्य को संसार में बद्ध करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- द्युलोक और पृथिवीलोक की शक्तियाँ अन्तरिक्ष में संगत होकर संसार का सम्यक् पालन-पोषण करती हैं।
विषय
जीव और विश्व की उत्पत्ति का रहस्य । (
भावार्थ
( मे ) मेरा ( पिता ) पालक और ( जनिता ) उत्पादक ! ( द्यौः ) सूर्य है, वही ( मे ) मुझ जीवको ( नाभिः ) बन्धन में बांधने वाला, एवं केन्द्र के समान हम सब जीवों का आश्रय है । ( अत्र ) उसी आश्रय में (मे बन्धु) मेरे बन्धु के समान प्रेम से बांधने वाली, (माता) माता के समान गर्भ में धारण करके उत्पन्न कर पालने वाली ( इयं ) यह ( मही ) बड़ी विस्तृत और आदरणीय, सब अन्नादि भोग्य पदार्थों को देन वाली ( पृथिवी ) पृथिवी, है । ( उत्तानयोः ) उतान शयन करने वाले, ( चम्वोः ) एक दूसरे का परस्पर भोग करने हारे माता पिता के समान ऊर्ध्व उत्कृष्ट रीति से अति विस्तृत ( चम्वोः अन्तः ) भोग्य भोक्तृ के समान परस्पर संयुक्त सूर्य और पृथिवी दोनों के बीच में मेरा ( योनिः ) प्रकट होने का स्थान है। ( अत्र ) इस स्थान में ही ( पिता ) सब का पालक जगदीश्वर (दुहितुः) सब भौतिक अन्नादि ऐश्वर्यों को दोहन या पूर्ण करने वाली पृथिवी का (गर्भम् आधात्) गर्भ धारण कराता है। अथवा ( दुहितुः ) जलादि देने वाले अन्तरिक्ष में सूर्य ही गर्भ अर्थात् जल से पूर्ण मेघादि को स्थापित करता है। ( २ ) परमेश्वर प्रकृति पक्ष में—तेजोमय, सृष्टि उत्पत्ति करने की इच्छा वाला प्रभु ही ‘द्यौः’ है वही सबका आश्रय जनक, सबका सबको कर्म बंधनों में बांधने वाला है। अथवा विस्तारवती, सर्व निर्मात्री प्रकृति ही माता है। उन दोनों के बीच में मुझ जगत् की उत्पत्ति का स्थान है। सब ऐश्वर्य दोहन करने हारी वही दुहिता प्रकृति है । वह परमेश्वर ही बड़ी पृथिवी के समान सर्वाश्रय है । वह ईश्वरीय शक्ति से ही प्रादुर्भूत अर्थात् विकार को प्राप्त होती है इससे वह उसकी दुहिता के समान है, उसमें ब्रह्म, गर्भ, हिरण्यगर्भादि को धारण करता है। यह संसार उत्पन्न होता है । अथर्व ०९ । १० । १२ ॥
टिप्पणी
मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम् । सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ तासां ब्रह्म महद् योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ गीता अ० १४३ - ४॥ कार्यकारणकर्त्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान् । कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन् पुरुषः परः ॥ गी० अ० १३।२०–२२।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. भूमी व सूर्य सर्वांचे माता-पिता व बंधुप्रमाणे आहेत. हेच आमचे निवासस्थान आहे. जसा सूर्य आपल्यापासून उत्पन्न झालेल्या उषेमध्ये किरणरूपी वीर्य संस्थापन करून दिनरूपी पुत्र उत्पन्न करतो तसे माता व पिता यांनी तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करावा. ॥ ३३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The heaven above is my father and creator, my centre-hold, my haven and home here, my brother support to stand by. And this great earth, this universe, this nature, is my mother. In the womb of these two great generative powers, heaven and earth, the mother of His own creation in here, the father of the universe sows the seed of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The parents should procreate shining issues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! you should know that where the father sun puts germs (rays) inside the dawn which is like his daughter, the day is born. Such a shining sun is like my father and progenitor; the navel of the earth is like my kinsman and the spacious earth is my mother. My dwelling is between the high placed sun and the low established earth. The postures between them are like two standing armies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The earth and the sun are like the father, mother and kith and kin of all beings. This is our dwelling place (between the sun and earth). As the sun procreates a son in the form of the day by putting his semen in the dawn, in the same way the parents should give birth to a shining splendid son.
Foot Notes
(द्यौः) प्रकाशमानः सूर्य: = Bright sun. ( दुहितुः ) उषस: = of the Dawn. (गर्भम् ) किरणाख्यं वीर्यम् = Semen or germ in the form of rays of the sun.
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