ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 26
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उप॑ ह्वये सु॒दुघां॑ धे॒नुमे॒तां सु॒हस्तो॑ गो॒धुगु॒त दो॑हदेनाम्। श्रेष्ठं॑ स॒वं स॑वि॒ता सा॑विषन्नो॒ऽभी॑द्धो घ॒र्मस्तदु॒ षु प्र वो॑चम् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । ह्व॒ये॒ । सु॒ऽदुघा॑म् । धे॒नुम् । ए॒ताम् । सु॒ऽहस्तः॑ । गो॒ऽधुक् । उ॒त । दो॒ह॒त् । ए॒ना॒म् । श्रेष्ठ॑म् । स॒वम् । स॒वि॒ता । सा॒वि॒ष॒त् । नः॒ । अ॒भिऽइ॑द्धः । घ॒र्मः । तत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्र । वो॒च॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम्। श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप। ह्वये। सुऽदुघाम्। धेनुम्। एताम्। सुऽहस्तः। गोऽधुक्। उत। दोहत्। एनाम्। श्रेष्ठम्। सवम्। सविता। साविषत्। नः। अभिऽइद्धः। घर्मः। तत्। ऊँ इति। सु। प्र। वोचम् ॥ १.१६४.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 26
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
यथा सुहस्तो गोधुगहमेतां सुदुघां धेनुमुपह्वये। उताप्येनां भवानपि दोहत्। यं श्रेष्ठं सर्वं सविता नोऽस्मभ्यं साविषद्यथाऽभीद्धो घर्मो वर्षाः करोति तदु यथाहं सु प्रवोचं तथा त्वमप्येतत्सुप्रवोचेः ॥ २६ ॥
पदार्थः
(उप) (ह्वये) स्वीकरोमि (सुदुघाम्) सुष्ठुकामप्रपूरिकाम् (धेनुम्) दुग्धदात्री गोरूपाम् (एताम्) (सुहस्तः) शोभनौ हस्तौ यस्य सः (गोधुक्) यो गां दोग्धि (उत) अपि (दोहत्) दोग्धि (एनाम्) विद्याम् (श्रेष्ठम्) उत्तमम् (सवम्) ऐश्वर्यम् (सविता) ऐश्वर्यप्रदः (साविषत्) उत्पादयेत् (नः) अस्मभ्यम् (अभीद्धः) सर्वतः प्रदीप्तः (घर्मः) प्रतापः (तत्) पूर्वोक्तं सर्वम् (उ) (सु) (प्र) (वोचम्) उपदिशेयम् ॥ २६ ॥
भावार्थः
अत्र रूपकालङ्कारः। अध्यापका विद्वांसः पूर्णविद्यां वाणीं प्रदद्युः येनोत्तममैश्वर्यं शिष्याः प्राप्नुयुः। यथा सविता सर्वं जगत् प्रकाशयति तथोपदेशकाः सर्वा विद्याः प्रकाशयेयुः ॥ २६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (सुहस्तः) सुन्दर जिसके हाथ वह (गोधुक्) गौ को दुहता हुआ मैं (एताम्) इस (सुदुघाम्) अच्छे दुहाती अर्थात् कामों को पूरा करती हुई (धेनुम्) दूध देनेवाली गौरूप विद्या को (उप, ह्वये) स्वीकार करूँ (उत) और (एनाम्) इस विद्या को आप भी (दोहत्) दुहते वा जिस (श्रेष्ठम्) उत्तम (सवम्) ऐश्वर्य को (सविता) ऐश्वर्य का देनेवाला (नः) हमारे लिये (साविषत्) उत्पन्न करे वा जैसे (अभीद्धः) सब ओर से प्रदीप्त अर्थात् अति तपता हुआ (घर्मः) घाम वर्षा करता है (तदु) उसी सबको जैसे मैं (सु, प्र, वोचम्) अच्छे प्रकार कहूँ वैसे तुम भी इसको अच्छे प्रकार कहो ॥ २६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। अध्यापक विद्वान् जन पूरी विद्या से भरी हुई वाणी को अच्छे प्रकार देवें। जिससे उत्तम ऐश्वर्य को शिष्य प्राप्त हों। जैसे सविता समस्त जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे उपदेशक लोग सब विद्याओं को प्रकाशित करें ॥ २६ ॥
विषय
स्वाध्याय और प्रवचन
पदार्थ
१. पिछले मन्त्रों में ज्ञान प्राप्ति का वर्णन होता आ रहा है । ज्ञान प्राप्ति का एक आवश्यक साधन है 'गोदुग्ध का प्रयोग'। इसी के लिए कहते हैं- मैं (सुदुघाम्) = सुगमता से दोहने योग्य धेनुम् - दूध से प्रीणित करनेवाली (एताम्) = इस गौ को उपह्वये पुकारता हूँ । इस प्रकार मन्त्र के शब्द 'गोदुग्ध-पान' के महत्त्व का वर्णन कर रहे हैं, परन्तु मन्त्र का मुख्यार्थ वेदवाणीरूप गौ के विषय में है। जिज्ञासु विद्यार्थी कहता है कि मैं [उपह्वये] वेदवाणीरूप गौ को अपने समीप बुलाता हूँ। [एताम्] यह वेदवाणी जिसको मैं पुकारता हूँ [सुदुघाम्] सुख से दोहने योग्य है । यह पढ़ने में कठिन नहीं है, [धेनुम्] यह ज्ञानदुग्ध से प्रीणित करनेवाली है। २. (एनाम्) = इस वेदवाणीरूप गौ का [सुहस्तः] सिद्धहस्त, पढ़ाने में निपुण (गोधुक्) = वेदवाणीरूप गौ का ग्वाला ही (दोहत्) = दोहन करता है। प्रवचन-पटुता ही आचार्य की सुहस्तता है। ३. यह (सुहस्त सविता) = चारों वेदों का ज्ञाता आचार्य (श्रेष्ठं सवम्) = उत्तम ज्ञानदुग्ध का (नः) = हमारे लिए (साविषत्) अभिषव करे (दुहे, निचोड़े) । उत्तम ज्ञान वही है जो एकाङ्गीन न होकर सर्वाङ्गीण हो। ३. सविता और सुहस्त आचार्यों के समीप रहता हुआ विद्यार्थी अनुभव करता है कि (घर्मः) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलिनताओं के क्षरण से आचार की उज्ज्वलता तथा ज्ञान की दीप्ति (अभीद्धः) = मुझमें चारों ओर दीप्त हो उठी है। आचार्य ने उसे सदाचार व ज्ञान का ग्रहण कराके चमका दिया है। ४. गुरुदक्षिणा के समय मैं (तत् उ) = आचार्य से प्राप्त उसी ज्ञान को (सुप्रवोचम्) = बड़े उत्तम प्रकार से प्रजा में प्रचारित करता हूँ। आचार्य के प्रवचन से मैं स्वाध्यायसक्षम बन सका, उस ऋण से अनृण होने के लिए अब मैं प्रवचन करूँगा। ये स्वाध्याय और प्रवचन मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ कर्म हैं।
भावार्थ
भावार्थ- कुशल आचार्य के चरणों में बैठकर हम वेदवाणी का स्वाध्याय करें, फिर प्रवचन द्वारा उसे जन-जन में पहुँचाने का प्रयत्न करें।
विषय
वेद वाणी का गौ के समान ज्ञान-दोहन । आचार्य का सवितावत् ज्ञानवर्षण ।
भावार्थ
जिस प्रकार । कोई गृहस्थ (सुदुघां धेनुम्) सुख पूर्वक दोहने योग्य, सुशील दुग्धदात्री गाय को चाहता है और (सुहस्तः गोधुक् दोहत्) कुशल पुरुष उसको दोहता है। यज्ञकर्त्ता उत्तम यज्ञ करता है, उसी प्रकार मैं ( एतां ) उस वाणी रूप, आत्मारूप, परमेश्वर रूप और भूमि रूप ( सुदुघाम् ) सुखों को दोहन करने वाली ( धेनुम् ) सब रसों का पान कराने वाली, गौ के समान ही ( उपह्वये ) जानकर उसकी स्तुति करता हूं। ब्रह्मवाणी का गुरु के समीप जाकर अध्ययन करता हूं (सुहस्तः) उत्तम, कुशल, अज्ञान और बाधक कारणों का नाश करने में चतुर पुरुष ( गोधुक् ) गो अर्थात् वाणी के रस का दोहन करने हारा विद्वान् पुरुष ही ( एनाम् ) इसको ( दोहत् ) दोह पाता है । पृथ्वी को दोहन, करने में कुशल पुरुष उत्तम शत्रुहन्ता राजा उसे दोहता है । आत्मा रूप गौ को बाधनाओं का नाशक योगी ही दोह पाता है । ( अभीद्धः धर्मः सविता सर्व साविषत् ) जैसे अति प्रदीप्त, घाम और सूर्य या तेजस्वी, प्रतप्त सूर्य जल को वृष्टि रूप में और अन्न को उत्पन्न करता है। उसी प्रकार (सविता) शिष्यों का आज्ञापक आचार्य (अभीद्धः) स्वयं तेजस्वी (धर्मः) तपस्वी, या ज्ञान का क्षरण करने हारा होकर (श्रेष्ठं सवं) सब से उत्तम ज्ञानाभिषेक (साविषत्) करता है । (तत् उ सु प्रवोचम् ) उसका ही मैं सदा उत्तम रीति से उपदेश करता हूं । विशेष देखो अथर्व ० ७ । ७३ । ७ ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात रूपकालंकार आहे. अध्यापक विद्वान लोकांनी विद्यायुक्त वाणी वापरावी. त्यामुळे उत्तम ऐश्वर्ययुक्त शिष्य प्राप्त होतील. जसा सूर्य संपूर्ण जगाला प्रकाशित करतो तसे उपदेशक लोकांनी विद्या प्रकट करावी. ॥ २६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke and call upon this generous mother cow, Gayatri, Mother Nature, mother Sarasvati of knowledge, directly at the closest. Only an intelligent and dexterous person can distil the essence and power of her generosity. May lord Savita, the creator, the sun, the teacher, create the soma of milk, honey and the light of knowledge for us and bless us. Lit up and blazing is the fire in the yajna-vedi. The same I speak of and celebrate in song.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned person are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I milk this milch cow. The wisdom or knowledge is a milch cow; it accomplishes well our noble desires like a skillful milk-man. We should also do likewise. O learned persons! may God — the giver of good wealth or an Acharya (Preceptor) the giver of good wealth in the form of wisdom, grant us good prosperity of all kinds. The simile is that the atmospheric temperature after reaching at a certain stage produces rains. I teach well after acquiring this wisdom from the enlightened persons, likewise you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned teachers should give noble teachings, full of all wisdom and knowledge to their pupils. It will result in acquiring good wealth and prosperity of all kinds to them. As the sun illuminates all planets, likewise preachers should illuminate all sciences.
Foot Notes
(धेनुम्) दुग्धदात्री गोरूपाम् ( एनाम् ) विद्याम् = The milch cow in the form of wisdom. (सवम् ) ऐश्वर्यम् = Prosperity. (घर्म:) प्रतापः = Intense or burning heat.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal