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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    को द॑दर्श प्रथ॒मं जाय॑मानमस्थ॒न्वन्तं॒ यद॑न॒स्था बिभ॑र्ति। भूम्या॒ असु॒रसृ॑गा॒त्मा क्व॑ स्वि॒त्को वि॒द्वांस॒मुप॑ गा॒त्प्रष्टु॑मे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । द॒द॒र्श॒ । प्र॒थ॒मम् । जाय॑मानम् । अ॒स्थ॒न्ऽवन्त॑म् । यत् । अ॒न॒स्था । बिभ॑र्ति । भूम्याः॑ । असुः॑ । असृ॑क् । आ॒त्मा । क्व॑ । स्वि॒त् । कः । वि॒द्वांस॑म् । उप॑ । गा॒त् । प्रष्टु॑म् । ए॒तत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति। भूम्या असुरसृगात्मा क्व स्वित्को विद्वांसमुप गात्प्रष्टुमेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः। ददर्श। प्रथमम्। जायमानम्। अस्थन्ऽवन्तम्। यत्। अनस्था। बिभर्ति। भूम्याः। असुः। असृक्। आत्मा। क्व। स्वित्। कः। विद्वांसम्। उप। गात्। प्रष्टुम्। एतत् ॥ १.१६४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यद्यं प्रथमं सृष्टेः प्रागादिमं जायमानमस्थन्वन्तं देहम्भूम्या मध्येऽनस्थासुरसृगात्मा च बिभर्त्ति तं क्व स्वित् को ददर्श क एतत् प्रष्टुं विद्वांसमुपगात् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (कः) (ददर्श) पश्यति (प्रथमम्) आदिमं प्रख्यातम् (जायमानम्) (अस्थन्वन्तम्) अस्थियुक्तं देहम् (यत्) यम् (अनस्था) अस्थिरहितः (बिभर्त्ति) धरति (भूम्याः) पृथिव्या मध्ये (असुः) प्राणः (असृक्) रुधिरम् (आत्मा) जीवः (क्व) कस्मिन् (स्वित्) अपि (कः) (विद्वांसम्) (उप) (गात्) गच्छेत्। अत्राडभावः। (प्रष्टुम्) (एतत्) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    यदा सृष्टेः प्रागीश्वरेण सर्वेषां शराराणि निर्मितानि तदा कोऽपि जीव एतेषां द्रष्टा नासीत्। यदा तेषु जीवात्मानः प्रवेशितास्तदा प्राणादयो वायवः रुधिरादयो धातवो जीवाश्च मिलित्वा देहं धरन्ति स्म जीवयन्ति स्म च इत्यादि प्राप्तये विद्वांसं कश्चिदेव प्रष्टुं याति न सर्वे ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जिस (प्रथमम्) प्रख्यात प्रथम अर्थात् सृष्टि के पहले (जायमानम्) उत्पन्न होते हुए (अस्थन्वन्तम्) हड्डियों से युक्त देह को (भूम्याः) भूमि के बीच (अनस्था) हड्डियों से रहित (असुः) प्राण (असृक्) रुधिर और (आत्मा) जीव (बिभर्त्ति) धारण करता उसको (क्व, स्वित्) कहीं भी (कः) कौन (ददर्श) देखता है (कः) और कौन (एतत्) इस उक्त विषय के (प्रष्टुम्) पूछने को (विद्वांसम्) विद्वान् के (उप, गात्) समीप जावे ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जब सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने सबके शरीर बनाये तब कोई जीव इनका देखने-वाला न हुआ। जब उनमें जीवात्मा प्रवेश किये तब प्राण आदि वायु, रुधिर आदि धातु और जीव भी मिलकर देह को धारण करते हुए और चेष्टा करते हुए, इत्यादि विषय की प्राप्ति के लिये विद्वान् को कोई ही पूछने को जाता है, किन्तु सब नहीं ॥ ४ ॥

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    विषय

    जिज्ञासु का विद्वानों के समीप जाना

    पदार्थ

    १. पिछले दो मन्त्रों में शरीर-रथ का वर्णन करके इस मन्त्र में रथी का वर्णन करते हैं। उस रथी को (कः ददर्श) = 'क' देखता है । (क) = कामनाशील और पुरुषार्थी उसे देखता है। (प्रथमं जायमानम्) = वह आत्मतत्त्व पहले से ही प्रादुर्भूत है—'अग्रे समवर्त्तत'- पहले ही है । २. यह एक आश्चर्य की बात है (यत्) = कि (अनस्था) = स्वयं अस्थिरहित होता हुआ भी (अस्थन्वन्तम्) = अस्थियों के पञ्जरवाले इस शरीर को (बिभर्ति) = धारण कर रहा है। प्रतीत तो यह होता है कि शरीर को अस्थियों ने धारण किया हुआ है, परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। आत्मतत्त्व के शरीर को छोड़ने पर यह शरीर धराशायी हो जाता है। २. उस आत्मतत्त्व का चिन्तन करने पर यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि (भूम्या:) = इस पार्थिव शरीररूप रथ का (असुः) = यह प्राण, (असृक्) = रुधिर व (आत्मा) = रथी (क्वस्वित्) = भला कहाँ-कहाँ रहते हैं ? असु प्राण हैं। इनके विरेचन- पूरण का क्रम चलता ही रहता है। (असृज्) = रुधिर है । 'अस् दीप्तौ' यही शरीर की दीप्ति का कारण है। आत्मा रथी है। इसी के कारण रथ की गति होती है। ये प्राणादि शरीर में कहाँ हैं ' – यह प्रश्न उत्पन्न होते ही (कः) = प्रबल कामनावाला व्यक्ति (विद्वांसम्) - विद्वान् के पास (एतत् प्रष्टुम्) = यह प्रश्न पूछने के लिए (उपगात्) = जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विरल पुरुष ही आत्मतत्त्व का दर्शन करते हैं। शरीर-रचना को समझने के लिए जिज्ञासु ज्ञानी के पास उपस्थित होता है ।

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    विषय

    हड्डी वाले देह में बेहड्डी के आत्मा का रहस्य।

    भावार्थ

    ( यः ) जो स्वयं ( अनस्था ) हड्डियों आदि शरीर के घटक पदार्थों से रहित होकर भी (अस्थन्वन्तं) हड्डियों आदि से युक्त शरीर को या कार्य जगत् को ( बिभर्त्ति) धारण और पालन पोषण करता है, उस ( प्रथमं ) सबसे पहले, और इस शरीर और कार्य जगत् से भी पूर्व कारण रूप से विद्यमान ( जायमानं ) और देह या कार्य रूप से प्रादुर्भाव होते हुए को ( कः ) कौन ( ददर्श ) देख पाता है। उस समय इस सृष्टि होने के पूर्व काल में ( भूम्याः ) भूमि का विकार पाञ्चभौतिक, स्थूल पार्थिवांश, ( असुः ) वायु का अंश प्राण, ( असृग् ) जल का अंश रुधिर और ( आत्मा ) यह जीव सभी ( कस्वित् ) कहां रहे। उस समय ( कः ) कौन जिज्ञासु होकर ( एतत् प्रष्टुम् ) इस रहस्य को पूछने के लिये (विद्वांसम् ) समस्त सर्ग के तत्व को जानने वाले के समीप ( उप अगात् ) जाता है। अर्थात् बहुत कम इस तत्व को पूछने वाले हैं ।

    टिप्पणी

    विशेष देखो (अथर्व० का० ९।९।४)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा सृष्टीच्या आरंभी ईश्वराने सर्वांची शरीरे निर्माण केली तेव्हा कुणीही जीव त्यांना पाहणारा नव्हता. जेव्हा जीवात्म्यांनी त्यांच्यात प्रवेश केला तेव्हा प्राण इत्यादी वायू, रक्त इत्यादी धातू व जीव मिळून देह धारण करून हालचाली (गती) करतात. या विषयासंबंधी एखादाच विद्वानांना विचारतो सर्वजण विचारत नाहीत. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Who saw the first material form of the universe of flesh and bone being bom, which the immaterial of no flesh and bone bears? What and where was the breath and blood and soul of the earth and cosmos? Who would reach the visionary of knowledge to ask all this of the first and last question about the mystery?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Who has seen with his naked eyes ? How did the physical body come into existence on this earth out of the primordial matter, which upholds it ? Besides this, the Primordial matter, which is the material cause of the universe, the Prana (vital energy) blood (and other Dhatus or constituents), and soul support this material body under the direction of formless God. Where are they and what is the real nature? Who is it, that approached learned wise men to enquire about these things ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When God made the bodies of various creatures out of the Primordial matter, there was none to see them thoroughly except God Himself (as the power and knowledge of the souls was limited). When souls were made to enter different bodies (according to their previous actions, the Pranas (vital breaths) blood and other Dhatus (constituents of the body) supported or upheld the essential ingredients of the bodies. It is only a few enquiries sought for truth, that make the learned wise men to ask about these subtle and abstruse matters and not all.

    Foot Notes

    (अस्थन्वन्तम् ) अस्थियुक्तम् देहम् - Bony body. (अनस्था) अस्थि रहितः = Boneless Prakriti (Primordial matter ) or God who is absolutely formless. Though Shri Sayanacharya has tired to give a monistic or Advaitic color to the Vedic mantra from his own supposition, even he has taken अनस्था to mean either. अस्थिरहिता शरीरा:; Primordial matter प्रकृति of the Sankhya Shastra known as माया in the Vedanta or formless God.

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