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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 19
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये अ॒र्वाञ्च॒स्ताँ उ॒ परा॑च आहु॒र्ये परा॑ञ्च॒स्ताँ उ॑ अ॒र्वाच॑ आहुः। इन्द्र॑श्च॒ या च॒क्रथु॑: सोम॒ तानि॑ धु॒रा न यु॒क्ता रज॑सो वहन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒र्वाञ्चः॑ । तान् । ऊँ॒ इति॑ । परा॑चः । आ॒हुः॒ । ये । परा॑ञ्चः । तान् । ऊँ॒ इति॑ । अ॒र्वाचः॑ । आ॒हुः॒ । इन्द्रः॑ । च॒ । या । च॒क्रथुः॑ । सो॒म॒ । तानि॑ । धु॒रा । न । यु॒क्ताः । रज॑सः । व॒ह॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्ताँ उ अर्वाच आहुः। इन्द्रश्च या चक्रथु: सोम तानि धुरा न युक्ता रजसो वहन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। अर्वाञ्चः। तान्। ऊँ इति। पराचः। आहुः। ये। पराञ्चः। तान्। ऊँ इति। अर्वाचः। आहुः। इन्द्रः। च। या। चक्रथुः। सोम। तानि। धुरा। न। युक्ताः। रजसः। वहन्ति ॥ १.१६४.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 19
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सोम विद्वन्येऽर्वाञ्चः पदार्थाः सन्ति तानु पराच आहुः। ये पराञ्चस्तान्वेवार्वाच आहुस्तान् विजानीहि। इन्द्रो वायुश्च या यानि धरतः तानि युक्ता धुरा न रजसो वहन्ति, तानध्यापकोपदेशकौ युवां विदितान् चक्रथुः ॥ १९ ॥

    पदार्थः

    (ये) (अर्वाञ्चः) अर्वागधोऽञ्चन्ति ये (तान्) (उ) (पराचः) परभागप्राप्तान् (आहुः) कथयन्ति (ये) (पराञ्चः) परत्वेन व्यपदिष्टाः (तान्) (उ) वितर्के (अर्वाचः) अपरत्वेन व्यपदिष्टान् (आहुः) (इन्द्रः) सूर्यः (च) वायुः (या) यानि भुवनानि (चक्रथुः) कुर्यातम् (सोम) ऐश्वर्ययुक्त (तानि) (धुरा) धुरि युक्ता अश्वा (न) इव (युक्ताः) संबद्धाः (रजसः) लोकान् (वहन्ति) चालयन्ति ॥ १९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या इह येऽध ऊर्ध्वपरावरस्थूलसूक्ष्मलघुत्वगुरुत्वव्यवहाराः सन्ति ते सापेक्षा वर्त्तन्ते। एकस्यापेक्षया य इदमत ऊर्ध्वं यदुच्यते तदेव उभयमाख्यां लभते यदस्मात्परं तदेवान्यस्मादवरं यदस्मात्स्थूलं तदन्यस्मात्सूक्ष्मं यदस्माल्लघु तदन्यस्माद्गुर्विति यूयं विजानीत नह्यत्र किंचिदपि वस्तु निरपेक्षं वर्त्तते नैव चानाधारम् ॥ १९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्ययुक्त विद्वान् ! (ये) जो (अर्वाञ्चः) नीचे जानेवाले पदार्थ हैं (तान्, उ) उन्हीं को (पराचः) परे को पहुँचे हुए (आहुः) कहते हैं। और (ये) जो (पराञ्चः) परे से व्यवहार में लाये जाते अर्थात् परभाग में पहुँचनेवाले हैं (तान्, उ) उन्हें तर्क-वितर्क से (अर्वाचः) नीचे जानेवाले (आहुः) कहते हैं उनको जानो, (इन्द्रः) सूर्य (च) और वायु (या) जिन भुवनों को धारण करते हैं (तानि) उनको (युक्ताः) युक्त हुए अर्थात् उन में सम्बन्ध किये हुए पदार्थ (धुरा) धारण करनेवाली धुरी में जुड़े हुए घोड़ों के (न) समान (रजसः) लोकों को (वहन्ति) बहाते चलाते हैं उनको हे पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम विदित (चक्रथुः) करो जानो ॥ १९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! यहाँ नीचे, ऊपर, परे, उरे, मोटे, सूक्ष्म, छुटाई-बड़ाई के व्यवहार हैं वे सापेक्ष हैं। एक की अपेक्षा से यह इससे ऊँचा जो कहा जाता है, वही दोनों कथनों को प्राप्त होता है। जो इससे परे है वही और से नीचे है, जो इससे मोटा है वह और से सूक्ष्म। जो-जो इससे छोटा है वह और से बड़ा गुरु है यह तुम जानो, यहाँ कोई वस्तु अपेक्षारहित नहीं है और न निराधार ही है ॥ १९ ॥

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    विषय

    रजोगुण से ऊपर

    पदार्थ

    १. वेदों में (ये) = जो (अर्वाञ्चः) = अपराविद्या के प्रतिपादक वाक्य हैं (तान् उ) = उनको ही (पराचः) = पराविद्या के प्रतिपादक वाक्य (आहुः) = कहते हैं। अपराविद्या के प्रतिपादक मन्त्रों के समझने पर एक-एक प्राकृतिक पदार्थ में प्रभु की महिमा दिखने लगती है। २. इसके विपरीत (ये) = जो वेदवाक्य (पराञ्चः) = पराविद्या के प्रतिपादक हैं (तान्) = उनको ही (अर्वाचः) = अपराविद्या के प्रतिपादक (आहुः) = कहते हैं । वस्तुतः कर्ता की रचना को समझने के लिए कर्ता का समझना भी आवश्यक है। ३. अपरा और परा विद्याएँ परस्पर जुड़ी हुई हैं। न जैसे एक रथ के दो पहिये (धुरा) = अक्ष से (युक्ताः) = जुड़े हुए रथ की अग्रगति के साधक होते हैं, उसी प्रकार परस्पर जुड़ी हुई ये दोनों विद्याएँ मनुष्य के उत्थान का साधन होती हैं। ये दोनों विद्याएँ एक-दूसरे की पूरक होती हुई (रजसः वहन्ति) = मनुष्य को रजोगुण से ऊपर उठा देती हैं। इन दोनों विद्याओं को अपनाकर मनुष्य सदा सत्त्व गुण में अवस्थित रहता है। ४. ये अपरा व पराविद्या के प्रतिपादक वेदवाक्य कौन-से हैं जो मनुष्य को रजोगुण से ऊपर उठाने का कारण बनते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर है – तानि = ये वेदवाक्य वे हैं या जिनको (इन्द्रः) = इन्द्र (च सोमः) = और सोम मिलकर (चक्रथुः) = साक्षात् किया करते हैं । इन्द्र का अभिप्राय इन्द्रियों के स्वामी जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी से है और [सोम] सौम्यता की मूर्ति आचार्य का प्रतिपादन कर रहा है। आचार्य ज्ञान का समुद्र है और विद्यार्थी जितना जितेन्द्रिय बनेगा उतने ही अंश में वह सत्यविद्याओं का ग्रहण करनेवाला बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- अपरा और पराविद्याओं का साथ-साथ अभ्यास करने से जीवन-रथ आगे बढ़ता है और मनुष्य रजोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित रहता है।

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    विषय

    समीप के लोकों का विवेक।

    भावार्थ

    ( ये अर्वाञ्चः) जो समीप, उरे के हैं ( तान् उ ) उनको ही विद्वान् लोग ( पराचः आहुः) पर अर्थात् दूर के बतलाते हैं। और ( ये पराञ्चः ) जो दूर के हैं ( तान् उ अर्वाचः आहुः ) उनको भी समीप का ही बतलाते हैं। अर्थात् जिस प्रकार समीप देश के लोगों को भी कोई सम्बन्ध न होने से अपने से दूर और दूरके लोगों को भी सम्बन्ध होने से अपने निकट तम सम्बन्धी कहा करते हैं उसी प्रकार ( अर्वाञ्चः ) इस जगत् में कार्य रूप से दीखने वाले जलादि को ही ( पराचः ) कारण रूप से भी निर्देश करते हैं और कारण रूप से स्थित सूक्ष्म परमाणुओं को स्थूल कार्य रूप में बना हुआ बतलाते हैं। तत्वतः कार्य कारण में कोई भेद नहीं, दोनों एक हैं। (इन्द्रः सोमः च) महान् जगत् में इन्द्र परमेश्वर और सोम जीव या सर्व प्रसव कर्त्ता प्रधान तत्व दोनों मिलकर ( या च-क्रथुः ) जिन विकृत परिणामों को उत्पन्न करते हैं (धुरा न युक्ताः) धुरे में लगे अश्व जिस प्रकार रथ स्थित लोगों को ढोले जाते हैं उसी प्रकार ( तानि ) वे विकार परिणाम भी (धुरा युक्ता ) धारण शील परमेश्वर के बल से संयोग को प्राप्त होकर (रजसः) रजो गुण से उत्पन्न, एवं अभिव्यक्त उत्पन्न लोकों को (वहन्ति) धारण करते हैं। (२) जो जीवगण इस लोक में हैं वे ब्रह्म से दूर होने से ( पराञ्चः ) दूरस्थ हैं। जो इस लोक को छोड़ दूर परम पद को प्राप्त हो जाते हैं उनको ही ब्रह्म पद के समीप गया बतलाते हैं। जीव और ब्रह्म दोनों के किये कर्म ही सब लोकों को गया बतलाते हैं। जीव और ब्रह्म दोनों के किये कर्म ही सब लोकों को धारण करते हैं। ( ३ ) दूर के ग्रह आदि समीप और समीप के चक्र गति वश से दूर हो जाते हैं। चन्द्र और सूर्य के भ्रमण ही लोकों को धारण करते हैं। ( अथर्व० ९।९।१९)

    टिप्पणी

    ( समस्त सूक्त देखो अथर्व० का० ९ । सू० ९, १० )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१—४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! येथे खाली, वर, अलीकडे, पलीकडे, स्थूल, सूक्ष्म, मोठेपणा, लहानपणा इत्यादी व्यवहार आहेत ते सापेक्ष आहेत. हा त्याच्यापेक्षा उंच आहे असे म्हटले जाते. तेव्हा दोन्ही गोष्टी समजतात. जो याच्या वर आहे तो दुसऱ्यापेक्षा खाली आहे जो याच्यापेक्षा जाड (स्थूल) आहे तो दुसऱ्यापेक्षा सूक्ष्म आहे. जो याच्यापेक्षा छोटा आहे तो दुसऱ्यापेक्षा मोठा आहे. हे तुम्ही जाणा. येथे कोणतीही वस्तू अपेक्षारहित व निराधार नाही. (म्हणजेच प्रत्येक वस्तू सापेक्ष आहे). ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whatever objects are near, they say, are far off, and the objects far off, they say, are close at hand. (All objects are on the move and whether they are far or near is a matter of relativity. It is nothing absolute.) O Soma, Vayu energy, whatever you and the lord omnipotent, Indra, have formed as objects or clusters of objects, ever such as stars and galaxies, carry on the worlds of the universe as horses joined to the yoke and the pole draw the chariot of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The essential relativity is emphasized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O calm and learned person ! those articles which you tell as down placed today, we are told later on as going upward after some time. Likewise, those that are near, are sometimes told to be distant (the cycle of time and universe move swiftly). The articles that are upheld by the sun and the air take us to the distant planets like the horses yoked in a chariot. O militiamen and communicators! you should enlighten people about the real nature of all these things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All these terms that are used in the parleys and communications as up and down, far and near, gross and subtle, heavy and light are relative ones. What is called as near may be distant in comparison with other, and vice versa. The same is the case with the lightness and heaviness. Therefore, you should know that everything in this world is relative and is not quite independent. The ultimate base for dependence is God, and God alone.

    Foot Notes

    ( अर्वाञ्च:) अर्वाक् अध: अञ्चन्ति ये तान् = Those are below downward or descending. ( इन्द्र: ) सूर्य : (च ) वायुः = The sun and the air. (रज:) लोकान् = To the worlds.

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