Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पाक॑: पृच्छामि॒ मन॒सावि॑जानन्दे॒वाना॑मे॒ना निहि॑ता प॒दानि॑। व॒त्से ब॒ष्कयेऽधि॑ स॒प्त तन्तू॒न्वि त॑त्रिरे क॒वय॒ ओत॒वा उ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पाकः॑ । पृ॒च्छा॒मि॒ । मन॑सा । अवि॑ऽजानन् । दे॒वाना॑म् । ए॒ना । निऽहि॑ता । प॒दानि॑ । व॒त्से । ब॒ष्कये॑ । अधि॑ । स॒प्त । तन्तू॑न् । वि । त॒त्नि॒रे॒ । क॒वयः॑ । ओत॒वै । ऊँ॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाक: पृच्छामि मनसाविजानन्देवानामेना निहिता पदानि। वत्से बष्कयेऽधि सप्त तन्तून्वि तत्रिरे कवय ओतवा उ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाकः। पृच्छामि। मनसा। अविऽजानन्। देवानाम्। एना। निऽहिता। पदानि। वत्से। बष्कये। अधि। सप्त। तन्तून्। वि। तत्रिरे। कवयः। ओतवै। ऊँ इति ॥ १.१६४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये कवय ओतवै बष्कये वत्से सप्त तन्तून् व्यधि तत्रिरे तेषामु देवानामेना निहिता पदान्यविजानन् पाकोऽहं मनसा पृच्छामि ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (पाकः) ब्रह्मचर्यादितपसा परिपचनीयोऽहम् (पृच्छामि) (मनसा) अन्तःकरणेन (अविजानन्) न विजानन् (देवानाम्) दिव्यानां विदुषाम् (एना) एनानि (निहिता) स्थितानि (पदानि) पत्तुं प्राप्तुं ज्ञातुं योग्यानि (वत्से) अपत्ये (बष्कये) द्रष्टव्ये (अधि) (सप्त) (तन्तून्) विस्तृतान् धातून् (वि) विविधतया (तत्रिरे) विस्तृणन्ति (कवयः) मेधाविनः (ओतवै) विस्ताराय (उ) वितर्के ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्बाल्यावस्थामारभ्याविदितानि शस्त्राणि विद्वद्भ्यः पठित्वा सर्वा विद्या अध्यापनेन प्रसारणीयाः ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (कवयः) बुद्धिमान् जन (ओतवै) विस्तार के लिये (बष्कये) देखने योग्य (वत्से) सन्तान के निमित्त (सप्त) सात (तन्तून्) विस्तृत धातुओं को (व्यधि, तत्रिरे) अनेक प्रकार से अधिक अधिक विस्तारते हैं (उ) उन्हीं (देवानाम्) दिव्य विद्वानों के (एना) इन (निहिता) स्थापित किये हुए (पदानि) प्राप्त होने वा जानने योग्य पदों को, अधिकारों को (अविजानन्) न जानता हुआ (पाकः) ब्रह्मचर्यादि तपस्या से परिपक्व होने योग्य मैं (मनसा) अन्तःकरण से (पृच्छामि) पूछता हूँ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि बाल्यावस्था को लेकर अविदित शास्त्रों को विद्वानों से पढ़कर दूसरों को पढ़ाने से सब विद्याओं को फैलावें ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आदिगुरु 'वत्स बष्कय'

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में जिज्ञासु विद्वान् के समीप गया था। वह जिज्ञासु इस रूप में प्रश्न करता है – (पाकः) = पक्तव्य प्रज्ञानवाला मैं (मनसा) = पूर्ण हृदय से (पृच्छामि) = पूछता हूँ - मेरी बुद्धि परिपक्व नहीं और आप भृगु - परिपक्वमति हैं, अतः आपसे पूछता हूँ । २. (अविजानन्) = विशेषरूप से न जानता हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि (देवानाम्) = सूर्यादि देवों के (एना) = ये निहिता- रक्खे हुए पदानि=चरण व स्थान कहाँ-कहाँ हैं? आत्मरूप महादेव के साथ सूर्यादि सभी देव इस शरीर में प्रविष्ट होकर कहाँ-कहाँ रह रहे हैं? यह बात मैं आपसे पूछता हूँ। ३. (कवयः) = तत्त्वदर्शी, ज्ञानी लोग (सप्त तन्तून्) = [तनू विस्तारे] जिनमें ज्ञान का विस्तार किया गया है उन सात गायत्री आदि छन्दों के (वितत्निरे) = ज्ञानरूप ताने को तनते हैं । वेद का सारा ज्ञान इन सात छन्दों में ही दिया गया है। इसका अध्ययन करके मनुष्य क्रान्तदर्शी बनते हैं और मनकों में ओत-प्रोत सूत की भाँति ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत परमात्मा को प्राप्त करते हैं। सब प्राणियों में स्थित उस प्रभु को देखकर ये सभी के साथ बन्धुत्व का अनुभव करते हैं और सर्वभूतहित में जुटे रहते हैं। उनका जीवन सतत क्रियाशील होता है। वे ज्ञान का ताना तानते ही इसलिए हैं कि ओतवा उ उसमें कर्म का बाना बुना जाए। ४ हम इन ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु ये ज्ञानी वत्से - सदा स्पष्टरूप से बोलनेवाले (बष्कये) = सत्य के प्रकाशक प्रभु की (अधि) = अधीनता में ज्ञान का लाभ किया करते हैं [बट् इति सत्य नाम, कष-शासने] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं क्रान्तदर्शी विद्वानों से आत्मविषयक जिज्ञासा को पूछता हूँ कि इस पिण्ड में किस-किस देव ने कहाँ-कहाँ चरण रक्खे हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    देह में प्राणों और आत्मा में यज्ञों का विस्तार। वत्स में तन्तु वितान और वयन का रहस्य।

    भावार्थ

    मैं ( पाकः ) ब्रह्मचर्य, तपस्या और गुरु-उपासना द्वारा अपने देह, बलवीर्य और ज्ञान का परिपक्व करने हारा जिज्ञासु ( मनसा ) मन से ( अविजानन् ) विशेष तत्त्वज्ञान को न जानता हुआ उनके सम्बन्ध में ( पृच्छामि ) प्रश्न करता और ज्ञान प्राप्त करता हूं। ( कवयः ) क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुष ( बष्कये ) देखने योग्य, उत्तम ( वत्से ) पुत्र के निमित्त ही ( ओतवे ) मानो उसके देह की रचना के लिये ही ( सप्त तन्तून् ) सातों देह-घटक धातुओं को ( वित्तत्निरे ) विविध रूप से विस्तृत करते हैं (देवानां) विद्वानों या प्राणों के (एना) ये ही (पदानि) ज्ञातव्य निगूढ़ तत्व (निहिता) गुप्त रूप से रखे हैं। अथवा—( बष्कये ) सत्य स्वरूप ( वत्से ) स्तुत्य, सब में बसे, वा सब को बसाने वाले आत्मा में ही (कवय) विद्वान् जन ( सप्त तन्तून् ) सातों सोम और पाक यज्ञों को विस्तृत करते हैं । ये ही (देवानां निहिता पदानि ) देवों विद्वानों के ज्ञातव्य सात तत्व हैं। उनको न जानता हुआ मैं मनसे प्रश्न करता हूं कि वह आश्रय भूत 'वत्स' कौन है ? उसके आश्रय पर सात तन्तु कैसे फैलाये जाते हैं, उन देवों के ज्ञेय गुप्त रूप कौन से और कहां छुपे हैं ? इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    विशेष देखो अथर्व० ९।९।६॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ देवता—१-४१ विश्वदेवाः। ४२ वाक् । ४२ आपः। ४३ शकधूमः। ४३ सोमः॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च। ४५ वाक्। ४६, ४७ सूर्यः। ४८ संवत्सरात्मा कालः। ४९ सरस्वती। ५० साध्या:। ५१ सूर्यः पर्जन्यो वा अग्नयो वा। ५२ सरस्वान् सूर्यो वा॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप्। ८, ११, १८, २६,३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप्। २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२, त्रिष्टुप्। १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२, १५, २३ जगती। २९, ३६ निचृज्जगती। २० भुरिक पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः। ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती। ५१ विराड् नुष्टुप्।। द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी बाल्यावस्थेपासून माहीत नसलेली शास्त्रे व शस्त्रे विद्वानांकडून शिकून घ्यावीत. इतरांना शिकवून सर्व विद्यांचा प्रसार करावा. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Novice, ignorant but searching for knowledge and passing through the crucibles of heat and light of discipline, I ask with sincere mind and soul about these seven divine stages of the evolution of nature and life concealed in mystery, the seven-fold warp and woof of which visionary poets have traced and described in detail for the children of light to see and know and realise.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should acquire full knowledge.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Immature mind is undiscerning in spi it. When it desires to be mature in wisdom through the observance of Brahmacharya and austerities, I ask questions to myself. I want which are worth knowing. to go through the subtle matters Many learned persons and However, these are treated as secret. wise sages conceal it. There are seven essential ingredients which are like the off springs for their proper growth and harmonious development of the people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should study all unknown shastras (highly scientific and spiritual knowledge) and the sciences contained in them from learned wise men and should propagate through teaching.

    Foot Notes

    (पाक:) ब्रह्मचर्यदि तपसाप रिपाचनीयोऽहम् = To be made mature in wisdom by the observance of Brahmacharya and other kinds of austerities. ( पदानि) पत्तुं प्राप्तुं ज्ञातुं योग्यानि = Worth knowing and attaining. (वष्कये) वष्कये = Worth seeing. ( तन्तून् ) सप्त विस्तृतान् घातून -- Seven vast essential ingredients of body.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top