ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 51
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - सूर्यः पर्जन्योऽग्नयो वा
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स॒मा॒नमे॒तदु॑द॒कमुच्चैत्यव॒ चाह॑भिः। भूमिं॑ प॒र्जन्या॒ जिन्व॑न्ति॒ दिवं॑ जिन्वन्त्य॒ग्नय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नम् । ए॒तत् । उ॒द॒कम् । उत् । च॒ । एति॑ । अव॑ । च॒ । अह॑ऽभिः । भूमि॑म् । प॒र्जन्याः॑ । जिन्व॑न्ति । दिव॑म् । जि॒न्व॒न्ति॒ । अ॒ग्नयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नय: ॥
स्वर रहित पद पाठसमानम्। एतत्। उदकम्। उत्। च। एति। अव। च। अहऽभिः। भूमिम्। पर्जन्याः। जिन्वन्ति। दिवम्। जिन्वन्ति। अग्नयः ॥ १.१६४.५१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 51
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
यदुदकमहभिरुदेति चावैति च तेनैतत्समानम्। अतः पर्जन्या भूमिं जिन्वन्ति। अग्नयो दिवं जिन्वन्ति ॥ ५१ ॥
पदार्थः
(समानम्) (एतत्) पूर्वोक्तं विदुषां कर्म (उदकम्) जलम् (उत्) (च) (एति) प्राप्नोति (अव) (च) (अहभिः) दिनैः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति रलोपः। (भूमिम्) (पर्जन्याः) मेघाः (जिन्वन्ति) प्रीणन्ति (दिवम्) अन्तरिक्षम् (जिन्वन्ति) तर्पयन्ति (अग्नयः) विद्युतः ॥ ५१ ॥
भावार्थः
ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठानेषु कृतेन हवनादिना वायुवृष्ट्युदकशुद्धिर्जायते ततः शुद्धोदकवर्षणेन भूमिजास्तृप्यन्ति। तत एतद्विदुषां पूर्वोक्तं कर्मोदकवदस्ति ॥ ५१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (उदकम्) जल (अहभिः) बहुत दिनों से (उत्, एति) ऊपर को जाता अर्थात् सूर्य के ताप से कण कण हो और पवन के बल से उठकर अन्तरिक्ष में ठहरता (च) और (अव) नीचे को (च) भी आता अर्थात् वर्षा काल पाय भूमि पर वर्षता है उसके (एतत्) यह पूर्वोक्त विद्वानों का ब्रह्मचर्य अग्निहोत्र आदि धर्मादि व्यवहार (समानम्) तुल्य है। इसीसे (पर्जन्याः) मेघ (भूमिम्) भूमि को (जिन्वन्ति) तृप्त करते और (अग्नयः) बिजुली आदि अग्नि (दिवम्) अन्तरिक्ष को (जिन्वन्ति) तृप्त करते अर्थात् वर्षा से भूमि पर उत्पन्न जीव जीते और अग्नि से अन्तरिक्ष, वायु, मेघ आदि शुद्ध होते हैं ॥ ५१ ॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठानों में किये हुए हवन आदि से पवन और वर्षा जल की शुद्धि होती है उससे शुद्ध जल वर्षने से भूमि पर उत्पन्न हुए जीव वे तृप्त होते हैं। इससे विद्वानों का पूर्वोक्त ब्रह्मचर्यादि कर्म जल के समान है जैसे ऊपर जाता और नीचे आता वैसे अग्निहोत्रादि से पदार्थ का ऊपर जाना और नीचे आना है ॥ ५१ ॥
विषय
देवों के साथ पगड़ी का विनिमय
पदार्थ
१. (समानम्) = जीवन देनेवाला व सदा सम मात्रा में रहनेवाला (एतत् उदकम्) = यह जल सूर्य-किरणों द्वारा ग्रीष्मकाल में (उत् च एति) = वाष्पीभूत होकर ऊपर उठता है (च) = और फिर ऊपर के ठण्डे वायुमण्डल में घनीभूत होकर (अहभिः) = वर्षाकालीन दिनों में (अव एति) = नीचे बरसता है । २. इस वर्षा की घटना को हम इस प्रकार कह सकते हैं कि (पर्जन्या:) = परा तृप्ति को पैदा करनेवाले ये जल (भूमिं जिन्वन्ति) = इस पृथिवी को प्रीणित करते हैं। वर्षा क्या होती है मानो प्राण ही बरसता है। दूसरी ओर (अग्नयः) = अग्नियों में डाले जानेवाले हविर्द्रव्य (दिवम्) = द्युलोक को (जिन्वन्ति) = प्रीणित करते हैं। (हविः) = द्रव्य आदित्यलोक तक पहुँचते हैं। इनसे मिश्रित जल अत्यन्त गुणकारी होता है। यज्ञ करना व वर्षा का होना । यह मनुष्यों व देवों का पगड़ी बदलना
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील हों। बस हम देवों के मित्र बन जाते हैं, वे देव हमें वर्षा जल से तृप्त कर देते हैं ।
विषय
वृष्टि जलवत् जीव की उच्च नीच गति का वर्णन ।
भावार्थ
( एतत् ) यह ( उदकम् ) जल जिस प्रकार (उत् एति च) ऊपर भी जाता है (अहभिः) कुछ दिनों में (अव च एति) नीचे भी आ उतरता है यह (समानम्) दोनों अवस्थाओं में एक समान रहता है। नीचे कैसे आता है ? ( पर्जन्याः ) जल को बरसाने वाले मेघ (भूमिम्) भूमि को (जिन्वन्ति) संतृप्त करते हैं और (अग्नयः) अग्निएं या विद्युतें (दिवं) अन्तरिक्ष को जल से तृप्त करती हैं उसी प्रकार यह जीव भी जल के समान दोनों दशाओं में एक समान ही रहता है अर्थात् कुछ दिनों में वह ऊपर जाता है, उत्तम लोक को प्राप्त करता है। कुछ दिनों तक वह पुनः नीचे लोकों को भी प्राप्त करता है। जिस समय जीव नीचे, भूमि आदि लोक में आता है तब (पर्जन्याः) उसके उत्पन्न होने में उत्तम कारण, प्राण आदि उसके (भूमिं) उत्पत्ति को पुष्ट करते हैं और जब (अग्नयः) ज्ञानी पुरुष (दिवं) उसके ज्ञान को जिन्वन्ति बढ़ाते हैं तब वह (उत् च एति) उत्तम गति को भी प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मचर्य इत्यादी अनुष्ठानात केलेले हवन इत्यादीमुळे वायू वृष्टिजलाची शुद्धी होते. शुद्ध जलाचा वर्षाव झाल्याने भूमीवर उत्पन्न झालेले जीव तृप्त होतात. त्यामुळे विद्वानांचे पूर्वोक्त ब्रह्मचर्य इत्यादी कर्म जलाप्रमाणे असते. जसे जल वर व खाली जाते तसे अग्निहोत्र इत्यादींनी पदार्थ वर जातात व खाली येतात. ॥ ५१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Same is this water which goes up to the skies and comes down to the earth by days and nights. The clouds refresh and replenish the fertility of the earth, while the fires of yajna, electrical energies of the winds and sunrays serve the heavens with fragrance of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of the learned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Through the Homa (Yajna), water goes up in the form of steam, and downwards it is transformed in the rains after days. The act of the learned persons is just like this purified rain water. The clouds give joy to the earth (through the rains) and lightnings and electricity make the sky source of delight for all the beings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When Homa (sacrifice ) is performed by the Brahmacharis and others, the air, rain and water are all purified. With this all the beings are gratified because of the raining of pure water. Therefore the acts of the enlightened persons are like this water.
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