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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 48
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - संवत्सरात्मा कालः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    द्वाद॑श प्र॒धय॑श्च॒क्रमेकं॒ त्रीणि॒ नभ्या॑नि॒ क उ॒ तच्चि॑केत। तस्मि॑न्त्सा॒कं त्रि॑श॒ता न श॒ङ्कवो॑ऽर्पि॒ताः ष॒ष्टिर्न च॑लाच॒लास॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वाद॑श । प्र॒ऽधयः॑ । च॒क्रम् । एक॑म् । त्रीणि॑ । नभ्या॑नि । कः । ऊँ॒ इति॑ । तत् । चि॒के॒त॒ । तस्मि॑न् । सा॒कम् । त्रि॒ऽश॒ताः । न । श॒ङ्कवः॑ । अ॒र्पि॒ताः । ष॒ष्टिः । न । च॒ला॒च॒लासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत। तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलास: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वादश। प्रऽधयः। चक्रम्। एकम्। त्रीणि। नभ्यानि। कः। ऊँ इति। तत्। चिकेत। तस्मिन्। साकम्। त्रिऽशताः। न। शङ्कवः। अर्पिताः। षष्टिः। न। चलाचलासः ॥ १.१६४.४८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 48
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषये शिल्पविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्मिन्याने त्रिशता शङ्कवो नेव साकमर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासस्तस्मिन्नेकं चक्रं द्वादश प्रधयस्त्रीणि नभ्यानि च स्थापितानि स्युस्तत् क उ चिकेत ॥ ४८ ॥

    पदार्थः

    (द्वादश) (प्रधयः) धारिका धुरः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानम् (एकम्) (त्रीणि) (नभ्यानि) नहौ नभो साधूनि। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य भः। (कः) (उ) वितर्के (तत्) (चिकेत) जानीयात् (तस्मिन्) (साकम्) सह (त्रिशता) त्रीणि शतानि येषु (न) इव (शङ्कवः) कीलाः (अर्पिताः) (षष्टिः) (न) इव (चलाचलासः) चलाश्च अचलाश्च ताः। अयं निरुक्ते०। ४। २७। ॥ ४८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। केचिदेव विद्वांसो यथा शरीररचनां जानन्ति तथा विमानादियाननिर्माणं विदन्ति। यदा जलस्थलाऽऽकाशेषु सद्यो गमनाय यानानि निर्मातुमिच्छा जायते तदा तेषु अनेकानि जलाग्निचक्राण्यनेकानि बन्धनानि अनेकानि धारणानि कीलकाश्च रचनीयाः। एवं कृतेऽभीष्टसिद्धिस्स्यात् ॥ ४८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वद्विषय में शिल्प विषय को कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस रथ में (त्रिशता) तीनसौ (शङ्कवः) बाँधनेवाली कीलों के (न) समान (साकम्) साथ (अर्पिताः) लगाई हुई (षष्टिः) साठ कीलों (न) जैसी कीलें जो कि (चलाचलासः) चल-अचल अर्थात् चलती और न चलती और (तस्मिन्) उसमें (एकम्) एक (चक्रम्) पहिया जैसा गोल चक्कर (द्वादश) बारह (प्रधयः) पहिओं की हालें अर्थात् हाल लगे हुए पहिये और (त्रीणि) तीन (नभ्यानि) पहिओं की बीच की नाभियों में उत्तमता में ठहरनेवाली धुरी स्थापित की हों (तत्) उसको (कः) कौन (उ) तर्क-वितर्क से (चिकेत) जाने ॥ ४८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई ही विद्वान् जैसे शरीर-रचना को जानते हैं वैसे विमान आदि यानों को बनाना जानते हैं। जब जल, स्थल और आकाश में शीघ्र जानेके लिये रथों को बनाने की इच्छा होती है तब उनमें अनेक जल अग्नि के चक्कर, अनेक बन्धन, अनेक धारण और कीलें रचनी चाहियें, ऐसा करने से चाही हुई सिद्धि होती है ॥ ४८ ॥

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    विषय

    कालचक्र का उपदेश

    पदार्थ

    १. (द्वादश प्रधयः) = बारह प्रधियों [fellys]- वाला (एकं चक्रम्) = एक चक्र है, (त्रीणि नभ्यानि) = तीन उसकी नाभियाँ हैं । २. (तस्मिन्) = उस चक्र में (साकम्) = साथ-साथ त्(रिशता न षष्टिः) = तीन सौ और साठ [न=च] (शंकवः न) = अरे-से (अर्पिता:) = अर्पित हैं अरे जो कि (चलाचलासः) = अत्यन्त चलायमान हैं । ३. (तत्) = इस कालचक्र को (क उ चिकेत्) = कौन समझता है? ४. सामान्यतः चक्र में एक प्रधि होती है, एक नाभि होती है। यहाँ बारह प्रधियाँ और तीन नाभियाँ हैं। इसके अरे भी ३६० हैं और वे निरन्तर चल रहे हैं । वस्तुतः ये ३६० अरे वर्ष के ३६० दिन हैं। बारह प्रधियाँ बारह मास हैं और तीन नाभियाँ तीन ऋतुएँ हैं। यह कालचक्र निरन्तर गतिमान् है, हम भी निरन्तर आगे बढ़ते रहें। यह चक्र है और चक्र की नेमि ऊपर-नीचे होती रहती है, इस बात का ध्यान करते हुए सुख-दुःख में सम रहना चाहिए। तीन ऋतुएँ गर्मी, सर्दी और वर्षा हैं। हम सदा उत्साहित, शान्त और मधुरभाषी हों। इस कालचक्र के रहस्य को विरले ही समझ पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - निरन्तर गतिशील कालचक्र हमें भी निरन्तर आगे बढ़ने की और सुख-दुःख में सम होने की शिक्षा दे रहा है।

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    विषय

    महायन्त्रवत् अध्यात्म शक्तियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार किसी यन्त्र में (द्वादश प्रधयः) १२ परिधिएं हों, (एक्रम चक्रम्) और एक ही चक्र हो। और (त्रीणि नभ्यानि) तीन धुरे पर लगने वाले पठ्ठे हों। (कः उ तत् चिकेत) उसको कोई विरला ही ठीक २ जान सकता है । उस चक्र में (त्रिशता साकं षष्टिः) तीन सौ साठ (शङ्कवः न) खूंटियों के समान (चल-अचलासः) चलने और न चलने वाली कलाएं (अर्पिताः) लगी हैं । उसी प्रकार काल चक्र में १२ मास १२ परिधियें हैं सवंत्सर का एक चक्र है। उससे तीन मुख्य ऋतुएं तीन धुरे पर स्थित तीन पट्टे हैं। उससे ३६० दिनरात्रि रूप ३६० शंकु के समान कला हैं, जिनके घुमाते ही रात्रि दिन होता है। ब्रह्म पक्ष में—पांच स्थूल, पांच सूक्ष्म, महत् अहंकार ये १२ परिधि हैं। एक ब्रह्म कर्त्ता ‘चक्र’ है। तीन गुण संसार में बन्धनकारी होने से ‘नभ्य’ हैं। ३६० संवत्सर की अहोरात्र रूप प्राण ‘कलाएं’ हैं। अध्यात्म में १२ प्राण हैं। एक आत्मा कर्त्ता है। तीन गुण बांधने वाले हैं। ३६० धारक प्रयत्न, कला रूप हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. काही विद्वान जशी शरीररचना जाणतात तसेच काही विद्वान विमान इत्यादी यान तयार करणे जाणतात. जेव्हा जल, स्थल व आकाशात शीघ्र गमन करण्यासाठी ताबडतोब रथ तयार करण्याची इच्छा होते तेव्हा त्यात पुष्कळ जल, अग्निचक्र, अनेक बंध, अनेक प्रकारचे धारण, अनेक उपकरणे वापरली पाहिजेत. असे केल्यामुळे इच्छित सिद्धी होते. ॥ ४८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One full circle is the wheel going round. Twelve are the segments of the felly of the wheel. Three are the centres of the nave. Three hundred and sixty are the spokes fixed and yet on the move with the wheel. Who knows such a wheel? Rarely someone.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Here the technology is told in the context of the duties and attributes of the learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! who among you know the technology of the vehicle or carrier where there are like three hundred sixty nails moveable's and immovables, twelve fellies ( arcs), one big wheel and three axles? (The illustration is that of an year which has twelve months like fellies, one big wheel of year three hundred sixty days and three seasons consisting each of four months.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only some scholars who know the aeronautics like the sciences of anatomy and physiology. When there is the desire to travel swiftly on land water and sky try the modes of various vehicles. The technologist should manufacture them methodically with the use of the wheel, nails, bellies, fire, water etc. Thus they would accomplish their desires.

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