ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 47
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - सूर्यः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति। त आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्यादिद्घृ॒तेन॑ पृथि॒वी व्यु॑द्यते ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णम् । नि॒ऽयान॑म् । हर॑यः । सु॒ऽप॒र्णाः । अ॒पः । वसा॑नाः । दिव॑म् । उत् । प॒त॒न्ति॒ । ते । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । घृ॒तेन॑ । पृ॒थि॒वी । वि । उ॒द्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णम्। निऽयानम्। हरयः। सुऽपर्णाः। अपः। वसानाः। दिवम्। उत्। पतन्ति। ते। आ। अववृत्रन्। सदनात्। ऋतस्य। आत्। इत्। घृतेन। पृथिवी। वि। उद्यते ॥ १.१६४.४७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 47
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या अपो वसाना हरयः सुपर्णाः कृष्णं नियानं दिवमुत्पतन्ति ते सूर्यमाववृत्रन्नृतस्य सदनात्प्राप्तेन घृतेन पृथिवी व्युद्यते तमादिद्यथावद्विजानीत ॥ ४७ ॥
पदार्थः
(कृष्णम्) कर्षितुं योग्यम् (नियानम्) नित्यं प्राप्तं भूगोलाख्यं विमानादिकं वा (हरयः) हरणशीलाः (सुपर्णाः) रश्मयः (अपः) प्राणान् जलानि वा (वसानाः) आच्छादयन्तः (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यम् (उत्) (पतन्ति) प्राप्नुवन्ति (ते) (आ) (अववृत्रन्) वर्त्तन्ते। अत्र वृतु वर्त्तने इत्यस्माद्वर्त्तमाने लङ् व्यत्ययेन परस्मैपदं प्रथमस्य बहुवचने बहुलं छन्दसीति रुडागमश्च। (सदनात्) स्थानात् (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (घृतेन) जलेन (पृथिवी) भूमिः (वि) (उद्यते) क्लिद्यते। अयं मन्त्रो निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० ७। २४। ॥ ४७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुशिक्षिता अश्वा यानानि सद्यो नयन्ति तथाऽग्न्यादयः पदार्था विमानं यानमाकाशमुद्गमयन्ति यथा सूर्यकिरणा भूमितलाज्जलमाकृष्य वर्षित्वा सर्वान् वृक्षादीनार्द्रान् कुर्वन्ति तथा विद्वांसः सर्वान् मनुष्यानानन्दयन्ति ॥ ४७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अपः) प्राण वा जलों को (वसानाः) ढाँपती हुई (हरयः) हरणशील (सुपर्णाः) सूर्य की किरणें (कृष्णम्) खींचने योग्य (नियानम्) नित्य प्राप्त भूगोल वा विमान आदि यान को वा (दिवम्) प्रकाशमय सूर्य के (उत् पतन्ति) ऊपर गिरती हैं और (ते) वे (आववृत्रन्) सूर्य के सब ओर से वर्त्तमान हैं (ऋतस्य) सत्यकारण के (सदनात्) स्थान से प्राप्त (घृतेन) जल से (पृथिवी) भूमि (वि, उद्यते) विशेषतर गीली की जाती है उसको (आत्, इत्) इसके अनन्तर ही यथावत् जानो ॥ ४७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे सीखे हुए घोड़े रथों को शीघ्र पहुँचाते हैं, वैसे अग्नि आदि पदार्थ विमान रथ को आकाश में पहुँचाते हैं, जैसे सूर्य की किरणें भूमितल से जल को खींच और वर्षा कर समस्त वृक्ष आदि को आर्द्र करती हैं, वैसे विद्वान् जन सब मनुष्यों को आनन्दित करते हैं ॥ ४७ ॥
विषय
स्वर्ग में कौन जाते हैं ?
पदार्थ
१. (दिवम्) = वे स्वर्ग को (उत्पतन्ति) = जाते हैं। कौन ? (अपो वसानः) = कर्मों को धारण करनेवाले। जो व्यक्ति राग-द्वेष छोड़कर अपने नियत कर्मों को करते हैं वे सात्त्विक कर्ता स्वर्ग को जाते हैं । २. (सुपर्णा:) = उत्तम ढंग से अपना पालन और पूरण करनेवाले लोग स्वर्गलाभ करते हैं। ३. इसी उद्देश्य से ये लोग (हरयः) = इन्द्रियों का प्रत्याहरण करनेवाले होते हैं । विषयों की ओर गई हुई इन्द्रियों को ये वापस लाते हैं। कहाँ ? – (नियानम्) = बाड़े में। जैसे गौओं का स्वामी गायों को बाड़े में बन्द कर देता है इसी प्रकार यह व्यक्ति भी अपनी इन्द्रियरूप गौओं को विषयरूपी खेतों में चरने से रोकने के लिए उन्हें बाड़े में बन्द कर देता है। किस बाड़े में ? - (कृष्णम्) = यह बाड़ा कृष्ण है । 'कृष्' शब्द कृषि व उत्पादक श्रम का वाचक है, 'ण' शब्द ज्ञान का । एवं यह बाड़ा उत्पादक श्रम और ज्ञान से बना हुआ है। कर्मेन्द्रियों को वह उत्पादक श्रम में लगाये रखता है और ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति में । ४. यह व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को असत्य की ओर नहीं जाने देता, परन्तु जब कभी ते ये सत्यमार्ग पर चलनेवाले लोग (ऋतस्य सदनात्) = सत्य के इस निवासस्थान से (आववृत्रन्) = लौट आते हैं, अर्थात् फिसल जाते हैं तो (आत् इत्) = शीघ्र ही (पृथिवी) = यह लोक (घृतेन) = स्खलनों से [घृ-क्षरण - टपकना] (व्युद्यते) = गीला हो जाता है, अर्थात् उनका जीवन कितनी ही गलतियों से परिपूर्ण हो जाता है। एक बार गिरे तो गिरते ही चले जाते हैं, जीवन का पतन हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ – कर्मरत, अपना पालन व पूरण करनेवाले, अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाले स्वर्ग में जाते हैं। सत्यमार्ग से फिसलने पर पतित हो जाते हैं ।
विषय
किरणोंवत् विद्वानों को प्रभुपद-प्राप्ति ।
भावार्थ
(कृष्णं) काले, श्याम वर्ण के (नियानं) नीचे की तरफ़ आने वाले, जल से भारी मेघ को (हरयः) ले जाने वाले (सुपर्णाः) उत्तम वेग से जाने वाले, वायुगण (अपः) जलों के सूक्ष्मांशों को (वसानाः) धारण करते हुए जब (दिवम्) आकाश की ओर (उत् पतन्ति) उठते हैं (ते) वे (ऋतस्य सदनात्) जल के स्थानों से (आ ववृत्रन्) सब ओर फैल जाया करते हैं और बाद में (घृतेन) आकाश से गिरते हुए जल से (पृथिवी) विशाल भूमि (वि उद्यते) विशेष रूप से गीली हुआ करती है। इसी प्रकार (सुपर्णाः) उत्तम ज्ञानवान् जीवगण (अपः वसानाः) प्राणमय लिंग शरीरों को धारण करते हुए (कृष्णं नियानं हरयः) काले अशुक्ल, नीचे गिराने वाले पाप कर्म को दूर करने हारे होकर (दिवम्) ज्ञान प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त होते हैं वे (ऋतस्य सदनात्) सत्य ज्ञानमय प्रकाश के आश्रयस्थान से पुनः लौटते हैं और फिर (घृतेन) उनके तेजोमय ज्ञान से (पृथिवी) यह भूमि सिंचती हैं। वे ज्ञानोपदेश करते हैं । अथर्व० ९॥१०॥२२॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रशिक्षित घोडे रथांना तात्काळ पोचवितात तसे अग्नी इत्यादी पदार्थ विमान यानाला आकाशात पोहोचवतात. जशी सूर्याची किरणे भूमीवर जल ओढून वृष्टीद्वारे संपूर्ण वृक्षांना आर्द्र करतात, तसे विद्वान लोक सर्व माणसांना आनंदित करतात. ॥ ४७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The brilliant and beautiful rays of the sun constantly touch the green earth held by the sun and, covered by vapours of water, and rise back to the region of the sun. They come down from the region of waters and the earth is soaked with the water of rain showers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened delight all with their knowledge and actions.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The attractive rays of the sun covering the Pranas or waters ascend to heaven. They come down again from the dwellings of the rain, and immediately the earth is moistened with the rain.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the trained horse carries the chariot to the destination, likewise fire, electricity and other elements carry the aircrafts to the sky. As the rays of the sun draw water from the earth and rain it down, moisten trees etc., in the same way the enlightened persons delight all the human beings.
Foot Notes
(सुपर्णाः) रश्मयः = Rays. (नियानम् ) नित्यं प्राप्तं भूगोलाख्यं विमानादिकवाः = The earth or aircraft etc. (कृष्णम) कर्षितुयोग्यम् = Worthy of attraction. (घृतेन) जलेन = With water.
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