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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 49
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - सरस्वती छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्ते॒ स्तन॑: शश॒यो यो म॑यो॒भूर्येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्या॑णि। यो र॑त्न॒धा व॑सु॒विद्यः सु॒दत्र॒: सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वे कः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । स्तनः॑ । श॒श॒यः । यः । म॒यः॒ऽभूः । येन॑ । विश्वा॑ । पुष्य॑सि । वार्या॑णि । यः । र॒त्न॒ऽधाः । व॒सु॒ऽवित् । यः । सु॒ऽदत्रः॑ । सर॑स्वति । तम् । इ॒ह । धात॑वे । क॒रिति॑ कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते स्तन: शशयो यो मयोभूर्येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि। यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्र: सरस्वति तमिह धातवे कः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। स्तनः। शशयः। यः। मयःऽभूः। येन। विश्वा। पुष्यसि। वार्याणि। यः। रत्नऽधाः। वसुऽवित्। यः। सुऽदत्रः। सरस्वति। तम्। इह। धातवे। करिति कः ॥ १.१६४.४९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 49
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरत्र विदुषीविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सरस्वति विदुषि स्त्रि ते यः शशयो यो मयोभूश्च स्तनो येन त्वं विश्वा वार्याणि पुष्यसि यो रत्नधा वसुविद्यश्च सुदत्रोऽस्ति तमिह धातवे कः ॥ ४९ ॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) तव (स्तनः) स्तनइव वर्त्तमानः शुद्धो व्यवहारः (शशयः) शयानइव (यः) (मयोभूः) सुखं भावुकः (येन) (विश्वा) सर्वाणि (पुष्यसि) (वार्याणि) स्वीकर्त्तुमर्हाणि विद्यादीनि धनानि वा (यः) (रत्नधाः) रत्नानि रमणीयानि वस्तूनि दधाति (वसुवित्) वसूनि विन्दति प्राप्नोति (यः) (सुदत्रः) सुष्ठु दत्राणि दानानि यस्मात् सः (सरस्वति) वागिव वर्त्तमाने (तम्) (इह) (धातवे) धातुं पातुम् (कः) कुरु। अयं मन्त्रो निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० ६। १४। [*] ॥ ४९ ॥ [*अत्र निरुक्तेऽस्य मन्त्रस्य व्याख्यानं न विद्यते। (सुदत्रः) इति पदस्य निर्वचनं तु दरीदृश्यते ॥ सं० ॥ ]

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा माता स्तनपयसा सन्तानं पाति तथा विदुषी स्त्री सर्वं कुटुम्बं रक्षति यथा सुभोजनेनं शरीरं पुष्टं जायते तथा मातुः सुशिक्षां प्राप्याऽत्मा पुष्टो जायते ॥ ४९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर यहाँ विदुषी स्त्री के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सरस्वति) विदुषी स्त्री ! (ते) तेरा (यः) जो (शशयः) सोतासा शान्त और (यः) जो (मयोभूः) सुख की भावना करनेहारा (स्तनः) स्तन के समान वर्त्तमान शुद्ध व्यवहार (येन) जिससे तू (विश्वा) समस्त (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य विद्या आदि वा धनों को (पुष्यसि) पुष्ट करती है (यः) जो (रत्नधाः) रमणीय वस्तुओं को धारण करने और (वसुवित्) धनों को प्राप्त होनेवाला और (यः) जो (सुदत्रः) सुदत्र अर्थात् जिससे अच्छे-अच्छे देने हों (तम्) उस अपने स्तन को (इह) यहाँ गृहाश्रम में (धातवे) सन्तानों के पीने को (कः) कर ॥ ४९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता अपने स्तन के दूध से सन्तान की रक्षा करती है, वैसे विदुषी स्त्री सब कुटुम्ब की रक्षा करती है, जैसे सुन्दर घृतान्न पदार्थों के भोजन करने से शरीर बलवान् होता है, वैसे माता की सुशिक्षा को पाकर आत्मा पुष्ट होता है ॥ ४९ ॥

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    विषय

    सरस्वती की उपासना से लाभ

    पदार्थ

    १. (सरस्वति) = हे ज्ञान की अधिष्ठातृ देवि ! इह इस मानव जीवन में तम् उस स्तन को (धातवे कः) = हमारे पालन के लिए कर (यः) = जो (ते स्तन:) = तेरा ज्ञान पयोधर (शशय:) = [तेरे] सोये हुए जैसी स्थिति में भी हमारे लिए है । 'शश प्लुतगतौ' जो मनुष्य को प्लुतगतिवाला, अत्यन्त क्रियाशील बनाता है । २. (मयोभूः) = यह स्तन व स्तनजन्य ज्ञान - दुग्ध (मयः) = सुख का (भूः) = पैदा करनेवाला है। यह ज्ञान आरोग्यसुख को देनेवाला है। ३. (येन) = जिस स्तन से (विश्वा वार्याणि) = सब वरणीय भावनाओं का तू (पुष्यसि) = मानव-मन में पोषण करती है। ज्ञानी पुरुष के मन में दिव्य भावनाओं का विकास होता है, राग-द्वेष उसे तुच्छ प्रतीत होते हैं । ४. (यः) = जो स्तन रत्नधा रमणीय धनों का धारण करनेवाला है। ज्ञान से मनुष्य उत्तम धनों को प्राप्त करता है, ५. (वसुवित्) = ज्ञान हमें वासक स्थाई अथवा रक्षक धन प्राप्त कराता है और उस धन को प्राप्त कराता है, ६. (यः) = जो (सुदत्रः) = उत्तम दान के द्वारा हमारा त्राण करनेवाला है। ज्ञानी मनुष्य ऐहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ दान के द्वारा आमुष्मिक (पारलौकिक) कल्याण का भी संचय कर लेता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान के छह लाभ हैं। यथा- (१) ज्ञानी अत्यन्त क्रियाशील बनता है, (२) ज्ञान-आरोग्य सुख को देनेवाला है, (३) ज्ञानी दिव्य भावना युक्त होकर राग-द्वेष रहित हो जाता है, (४) ज्ञान से रमणीय-उत्तम धन प्राप्त होते हैं, (५) ज्ञान से हमें आरक्षक धन प्राप्त होता है और (६) ज्ञान द्वारा प्राप्त धन सर्व कल्याणकारी होता है। हमें ज्ञान प्राप्त करके जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।

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    विषय

    सर्वसुखद सरस्वती नाम परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    (स्तनः शशयः) जिस प्रकार उत्तम दुग्ध दात्री माता का स्तन बालक को सुख से सुला देने वाला, शान्तिदायक, (मयोभूः) सुख प्रद हो उसे पुष्ट करता है, उसी प्रकार हे (सरस्वति) वेदवाणि ! और वेद वाणी के जानने वाले विद्वान् और उत्तम ज्ञानमय परमेश्वर ! (यः) जो (ते स्तनः) तेरा मेघ के समान गर्जनशील, उपदेशप्रद, ज्ञानमय स्वरूप, (शशयः) उपासक को शान्ति देने वाला है और (यः) जो (भूः) सुख और आनन्द देने वाला है, (येन) जिससे (विश्वा) समस्त (वार्याणि) वरण करने योग्य उत्तम २ ज्ञानों और गुणों को (पुष्यसि) पुष्ट करता है (यः) जो (रत्नधा) रमणीय सुखों को धारण करता (यः वसुविद्) अपने में बसने वाले शिष्यों और भक्तिमान् प्रिय प्रजाजनों को स्वयं प्राप्त करने और उनको ऐश्वर्यं देने वाला है। (यः सुदनः) जो सुख कल्याण का देने वाला है (तम्) उसको इस जगत् में (धातवे) सबके पोषण के लिये (कः) प्रकट करता है राष्ट्र पक्ष में—देखो यजुर्वेद अ० ३८। ५॥ विदुषी स्त्री या माता और द्यौः पक्ष में देखो अथर्व का० ७। १०।१॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी माता आपल्या स्तनपानाने संततीचे रक्षण करते, तसे विदुषी स्त्री सर्व कुटुंबाचे रक्षण करते. जसे चांगल्या घृतान्न पदार्थांचे भोजन करण्याने शरीर बलवान, पुष्ट होते तसे मातेचे सुशिक्षण प्राप्त करून आत्मा पुष्ट होतो. ॥ ४९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sarasvati, divine mother of the wealth and knowledge of the world, that abundant and inexhaustible treasure of knowledge of yours which is blissful, with which you fill and replenish the cherished resources of the world, which holds the jewels of the earth and reveals and provides the wealths of existence, and which gives all the gifts and blessings of life: that treasure, O mother, pray open for your darling child, the seeker of nourishment for body, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Enlightened mothers make the society great.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned lady ! sustain us with that your pure conduct which is like the mother's breast, and source of delight. With it you bestow knowledge, wealth and all other good desirable things. You are the treasure of wealth, the distributor of riches and good liberal donor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a mother gives breastfeeds to her child, the same way a learned lady looks after the whole family. A body gets strong by taking nutrient food, the same manner, the soul becomes developed and strong by taking good education from the mother.

    Foot Notes

    (स्तन:) स्तन इव वर्तमान: शुद्धो व्यवहारः = Pure conduct like the breast. (वार्याणि) स्वीकर्तुंमर्हाणि विद्यादीनि धनानि वा = Knowledge and other acceptable things or wealth. (सरस्वति) वागिव वर्तमाने विदुषि स्त्रि = Learned lady like a noble speech.

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