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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 45
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - वाक् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिण॑:। गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या॑ वदन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒त्वारि॑ । वाक् । परि॑ऽमिता । प॒दानि॑ । तानि॑ । विदुः । ब्रा॒ह्म॒णाः । ये । म॒नी॒षिणः॑ । गुहा॑ । त्रीणि॑ । निऽहि॑ता । न । इ॒ङ्ग॒य॒न्ति॒ । तु॒रीय॑म् । वा॒चः । म॒नु॒ष्याः॑ । व॒द॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिण:। गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चत्वारि। वाक्। परिऽमिता। पदानि। तानि। विदुः। ब्राह्मणाः। ये। मनीषिणः। गुहा। त्रीणि। निऽहिता। न। इङ्गयन्ति। तुरीयम्। वाचः। मनुष्याः। वदन्ति ॥ १.१६४.४५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 45
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये मनीषिणो ब्राह्मणा वाक् परिमिता यानि चत्वारि पदानि तानि विदुः। तेषां गुहा त्रीणि निहिता सन्ति नेङ्गयन्ति ते मनुष्याः सन्ति ते वाचस्तुरीयं वदन्ति ॥ ४५ ॥

    पदार्थः

    (चत्वारि) नामाख्यातोपसर्गनिपाताः (वाक्) वाचः। अत्र सुपां सुलुगिति ङसो लुक्। (परिमिता) परिमाणयुक्तानि (पदानि) वेदितुं योग्यानि (तानि) (विदुः) जानन्ति (ब्राह्मणाः) व्याकरणवेदेश्वरवेत्तारः (ये) (मनीषिणः) मनसो दमनशीलाः (गुहा) गुहायां बुद्धौ (त्रीणि) नामाख्यातोपसर्गाः (निहिता) धृतानि (न) (इङ्गयन्ति) चेष्टन्ते (तुरीयम्) चतुर्थं निपातम् (वाचः) वाण्याः (मनुष्याः) साधारणाः (वदन्ति) उच्चारयन्ति। अयं मन्त्रो निरुक्ते व्याख्यातः । निरु० १३। ९। ॥ ४५ ॥

    भावार्थः

    विदुषामविदुषां चेयानेव भेदोऽस्ति ये विद्वांसः सन्ति ते नामाख्यातोपसर्गनिपाताँश्चतुरो जानन्ति। तेषां त्रीणि ज्ञानस्थानि सन्ति चतुर्थं सिद्धं शब्दसमूहं प्रसिद्धे व्यवहारे वदन्ति। ये चाऽविद्वांसस्ते नामाख्यातोपसर्गनिपातान्न जानन्ति किन्तु निपातरूपं साधनज्ञानरहितं सिद्धं शब्दं प्रयुञ्जते ॥ ४५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (ये) जो (मनीषिणः) मन को रोकनेवाले (ब्राह्मणाः) व्याकरण, वेद और ईश्वर के जाननेवाले विद्वान् जन (वाक्) वाणी के (परिमिता) परिमाणयुक्त जो (चत्वारि) नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चार (पदानि) जानने को योग्य पद हैं (तानि) उनको (विदुः) जानते हैं उनमें से (त्रीणि) तीन (गुहा) बुद्धि में (निहिता) धरे हुए हैं (न, इङ्गयन्ति) चेष्टा नहीं करते। जो (मनुष्याः) साधारण मनुष्य हैं, वे (वाचः) वाणी के (तुरीयम्) चतुर्थ भाग अर्थात् निपातमात्र को (वदन्ति) कहते हैं ॥ ४५ ॥

    भावार्थ

    विद्वान् और अविद्वानों में इतना ही भेद है कि जो विद्वान् हैं, वे नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात इन चारों को जानते हैं। उनमें से तीन ज्ञान में रहते हैं, चौथे सिद्ध शब्दसमूह को प्रसिद्ध व्यवहार में सब कहते हैं। और जो अविद्वान् हैं वे नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपातों को नहीं जानते किन्तु निपातरूप साधन-ज्ञान-रहित प्रसिद्ध शब्द का प्रयोग करते हैं ॥ ४५ ॥

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    विषय

    केवल चतुर्थांश

    पदार्थ

    १. (वाक्) = [वाच:] सम्पूर्ण वाणी के (पदानि) = प्रतिपाद्य विषय [पद गतौ] (चत्वारि) = चार की संख्या से (परिमिता) = मपे हुए हैं। ऋग्वेद का विषय प्रकृति विज्ञान है। यजुर्वेद का विषय कर्म है। साम उपासना का वेद है तो अथर्व आरोग्यशास्त्र युद्ध व राजनीतिशास्त्र है । (तानि) = इन सभी को (ये) = जो (ब्राह्मणाः) = ब्रह्मज्ञान की रुचिवाले और (मनीषिणः) = मन का शासन करनेवाले व्यक्ति ही (विदुः) = जानते हैं । २. ज्ञान, कर्म और उपासनाकाण्ड की ओर ब्राह्मणों और मनीषियों का ही ध्यान खिंचता है। सामान्य मनुष्यों में तो (गुहा) = हृदयरूप गुफा में निहिता रखे हुए त्रीणि = ये ऋग्यजुः और सामरूप मन्त्र न इङ्गयन्ति नाममात्र भी गतिवाले नहीं होते। ये बीज के रूप में ही वहाँ पड़े रहते हैं, इनका किञ्चित् मात्र भी विकास नहीं होता। (मनुष्या:) = सांसारिक मनुष्य तो (वाचः) = वाणी के (तुरीयम्) = चतुर्थांश को ही (वदन्ति) = उच्चारित करते हैं। साधारण मनुष्यों का झुकाव इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति की ओर ही होता है। ये ज्ञान, कर्म, उपासना के बीजों को विकसित नहीं कर पाते। उनके पल्ले वाणी का चतुर्थांश ही आता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - वाणी चार भागों में विभक्त है। उनमें से साधारण मनुष्य के पल्ले में वाणी का चौथा भाग ही आता है ।

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    विषय

    चतुष्पदा वाणी का वर्णन । वाणी के चार रूप ।

    भावार्थ

    ( वाक् ) वाणी के (चत्वारि) चार ( पदानि ) जानने योग्य स्वरूप ( परि मितानि ) जाने गये हैं। ( ये ) जो ( मनीषिणः ) मन को चश करने हारे बुद्धिमान् (ब्राह्मणा) वेदज्ञ विद्वान् हैं वे (तानि ) वाणी के इन चारों स्वरूपों को (विदुः) भली प्रकार जानते, उनका साक्षात् करते हैं । ( त्रीणि ) उनमें से तीन रूप (गुहा निहिता) गुहा अर्थात् बुद्धि में स्थित रहकर (न इंगयन्ति) प्रकट नहीं होते । और (वाचः) वाणी के (तुरीयं) चौथे स्वरूप को (मनुष्याः) मनुष्य (वदन्ति) बोलते हैं । वाणी के वे चार स्वरूप कौन २ से हैं इसमें बहुत से मत भेद हैं जिनका संक्षेप से उल्लेख करते हैं। (१) भू, भुवः स्वः और प्रणव ओ३म् इन चार पदों में समस्त वाणी परिमित है। ( २ ) मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण और लौकिक व्यवहार और काव्यादि भाषा। (३) ऋग्, यजुः, साम और चौथी व्यावहारिक भाषा। ( ४ ) सर्प, पक्षी, क्षुद्र सरीसृपों और चौथे मनुष्यों की भाषा। ( ५ ) पशुओं, वाद्य यन्त्रों, मृगों और अपने आत्मा की भाषा । ( ६ ) परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी। इन में परा मूलाधार में सूक्ष्म नाद रूप से रहती है, हृदय चक्र में वही पश्यन्ती है, बुद्धि में आकर वह मध्यमा है, मुख में आकर वैखरी है। ( ७ ) ब्राह्मण ग्रन्थ के अनुसार वाक् उत्पन्न होकर चार प्रकार से हो गयी। तीनों लोकों में तीन प्रकार की और जंगम प्राणियों में चौथी प्रकार की। तीनों लोकों में अग्नि, विद्युत्, दीप्ति रूप में और पशुओं में ध्वनि रूप में। (८) वाणी के ४ रूप हैं नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। नाम संज्ञासज्ञी सम्बन्ध का द्योतक है, क्रिया का द्योतक आख्यात, विशेषण का द्योतक उपसर्ग है और अव्यय शब्द अर्थात् शब्द को निपात कहा जाता है। अथवा कोई शब्द क्यों, किसी भाव या पदार्थ के लिये कहा इस तर्ककी अपेक्षा न करके केवल नाना भाव द्योतक होकर शब्दों का प्रयोग ‘निपात’ कहाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान व अविद्वानात इतकाच फरक आहे, की जे विद्वान असतात ते नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात या चारहींना जाणतात. त्यापैकी तीन ज्ञानात असतात. चौथ्या सिद्ध शब्दसमूहाला (वाणीला) सर्वजण प्रसिद्ध व्यवहारात जाणतात. जे अविद्वान असतात ते नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात जाणत नाहीत, परंतु निपातरूपी साधन-ज्ञानरहित शब्दांचा प्रयोग करतात. ॥ ४५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Four are the constituent parts of speech which the wise men of learning know. Three of them are hidden in the cave of the mind, they are neither analysed, nor defined, nor understood by ordinary speakers, only the fourth part of speech, or parole, they use in communication.$(The four constituents of the structure of speech are: Nama or substantive, noun, Akhyata or roots of verbs, Upasarga or affixes, and Nipata or irregular accepted forms. These four are the subjects for grammarians and linguists. For the ordinary person, speech is the whole language, just what it is, and accepted without the understanding of structure and grammar. At a higher level, language is analysed in four layers of existence and consciousness: Para or transcendent language which is beyond thought and understanding. It may be regarded as the language- correspondence of the omniscience of God. The second is Pashyanti, one step close to us from Para. This may be understood to be the language existing in the unconscious layers of the mind. The third is Madhyama, another step closer to our consciousness. Let us say it exists in our sub-conscious mind. And the fourth is Vaikhari, existing at our conscious level of the mind. This is the language in use. Further, this language is analysed into four constituents: Nama, Akhata, Upasarga and Nipata. And of this language too the ordinary speaker uses the accepted form without knowing the structure and grammar. For the ordinary speaker, the language in use is only behaviour purely at the natural and social level. And in yet another way, language may be understood in the way of the Veda: Ila, the language of omniscience, Sarasvati, the language of Veda and learning, Mahi, the spoken language at the level of the earth, nation, region, family and the mother. Another name for this speech is Bharati. And one thing more at the end of this note: This analysis and study is for the learned and for the seekers of learning. It has no value for the ordinary speaker. He or she speaks what is spoken for the only reason that he or she speaks thus, and what is spoken is understood.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The distinction between the right and wrong persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those who have studied the grammar Vedas and God, such self-controlled wise men know the four parts of speech namely Nama, Akhyata, Upasaraga and Nipat (noun, verb, prefix and indeclinable respectively). The first three of them are deep rooted and they attract much significance for the wise. An average ordinary man who is not wise or learned speak only the fourth, that is the colloquial words. (2) (Spiritual interpretation): There are three illuminating substances which are perceived performing various actions of the world in accordance with the set natural laws. One of them sows the seed in the beginning of the cycle for the creation of the world (i.e. God); one observes the world with all his powers (i.e. the soul) and the one whose force in action is seen but its essence is not visible (i.e. matter in the subtle state). (by Pandit Ayodhya Prasad in the 'Gems of Vedic Wisdom').

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The main difference between highly learned and other men is that highly learned persons know well all the nouns, verbs, prefixes and indeclinables or structuring of the language. All these are thoroughly known to them. The fourth group of words is spoken and colloquial. Those who are not highly learned, do not know the first three and they possess only surficial grasp of the language and iis words.

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