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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 11
    ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    पव॑मान वि॒दा र॒यिम॒स्मभ्यं॑ सोम दु॒ष्टर॑म् । यो दू॒णाशो॑ वनुष्य॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पव॑मान । वि॒दाः । र॒यिम् । अ॒स्मभ्य॑म् । सो॒म॒ । दु॒स्तर॑म् । यः । दुः॒ऽनशः॑ । व॒नु॒ष्य॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवमान विदा रयिमस्मभ्यं सोम दुष्टरम् । यो दूणाशो वनुष्यता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवमान । विदाः । रयिम् । अस्मभ्यम् । सोम । दुस्तरम् । यः । दुःऽनशः । वनुष्यता ॥ ९.६३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमान) पवितः हे परमात्मन् ! (सोम) हे सौम्यस्वभाव ! भवान् (अस्मभ्यम्) अस्मभ्यं तं (रयिम्) धनं (विदाः) ददातु (यः) यत् (वनुष्यता) शत्रुभिः (दूणाशः) अजेयं तथा (दुष्टरम्) दुष्प्राप्यमस्ति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (सोम) हे सौम्यस्वभाव ! (अस्मभ्यं) हमारे लिये उस (रयिम्) धन को (विदाः) दें, (यः) जो (वनुष्यता) शत्रुओं से (दूणाशः) अजेय है (दुष्टरम्) और अप्राप्य है ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा ने उस अलभ्य लाभ का उपदेश किया है, जो ज्ञान-विज्ञानरूपी धन है। ज्ञान-विज्ञानरूप धन को कोई पुरुष बलात्कार से छीन वा चुरा नहीं सकता, इसीलिये कहा है कि हे वेदानुयायियों ! आप उक्त धन का संचय करें ॥११॥

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    विषय

    'दुष्टर व दूणाश' रयि

    पदार्थ

    [१] हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले (सोम) = शरीर के सब ऐश्वर्यों के साधनभूत सोम! तू (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं विदा) = उस धन को प्राप्त करा जो कि (दुष्टरम्) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं, अर्थात् जिस रयि को शत्रु आक्रान्त नहीं कर सकते । इस सोम के शरीर में सुरक्षित होने पर हमारे पर रोगादि का आक्रमण नहीं हो सकता। [२] उस रयि को तू हमें प्राप्त करा (यः) = जो कि (वनुष्यता) = हिंसकों से (दूणाश:) = नष्ट नहीं की जा सकती। सोम के सुरक्षित होने पर मन में काम-क्रोध-लोभ आदि दुर्वासनाओं का आक्रमण नहीं हो पाता । सोमी पुरुष कभी वासनाओं का शिकार नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सोमरक्षण से हमें वह ऐश्वर्य प्राप्त होता है जो कि शत्रुओं से नष्ट नहीं किया जा सकता।

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    विषय

    राजा प्रजा को इतना अपार समृद्धिशाली बनावे कि शत्रु उसका अन्त ही न कर सके।

    भावार्थ

    हे (पवमान) पवित्र करने हारे प्रभो ! राजन् ! तू (अस्मभ्यं) हमें (दुस्तरम्) दुस्तर, अपार (रयिम्) ऐश्वर्य, (विदाः) प्राप्त करा। (यः) जो (वनुष्यता) हिंसक शत्रु द्वारा (दूणाशः) नाश न हो सके। और—

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, lord of light and vibrancy of spirit, pure, purifying and sanctifying, exalted and overflowing, bring us wealth, honour and excellence of the rarest order unassailable by uncreative destroyers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराने त्या अलभ्य लाभाचा उपदेश केलेला आहे, जे ज्ञान विज्ञानरूपी धन आहे. ज्ञान-विज्ञानरूपी धन कोणीही पुरुष जबरदस्तीने हिसकावून किंवा चोरून घेऊ शकत नाही. त्यासाठी म्हटलेले आहे की, हे वेदानुयायानो! तुम्ही वरील धनाचा संचय करा. ॥११॥

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