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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
    ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इष॒मूर्जं॑ च पिन्वस॒ इन्द्रा॑य मत्स॒रिन्त॑मः । च॒मूष्वा नि षी॑दसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इष॑म् । ऊर्ज॑म् । च॒ । पि॒न्व॒सः॒ । इन्द्रा॑य । म॒त्स॒रिन्ऽत॑मः । च॒मूषु॑ । आ । नि । सी॒द॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषमूर्जं च पिन्वस इन्द्राय मत्सरिन्तमः । चमूष्वा नि षीदसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषम् । ऊर्जम् । च । पिन्वसः । इन्द्राय । मत्सरिन्ऽतमः । चमूषु । आ । नि । सीदसि ॥ ९.६३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे जगदीश्वर ! (चमूषु) सर्वासु सेनासु (आ निषीदसि) नियामकरूपेण स्थितोऽसि। भवान् (इन्द्राय) परमैश्वर्यशालिने शूराय (मत्सरिन्तमः) अतिमदकारकं वीरभावमुत्पादयतु। (इषं च) ऐश्वर्यं (ऊर्जम्) बलं च (पिन्वसे) धारयतु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (चमूषु) आप सब सेनाओं में (आ निषीदसि) नियामकरूप से स्थित हैं। आप (इन्द्राय) शूरवीर के लिये (मत्सरिन्तमः) अत्यन्त मद करनेवाला वीरता का भाव उत्पन्न करें। (इषं च) ऐश्वर्य (ऊर्जम्) और बल (पिन्वसे) धारण कराइये ॥२॥

    भावार्थ

    राजधर्म के लिये अनन्त प्रकार के ऐश्वर्य की आवश्यकता होती है, इसलिये परमात्मा से इस मन्त्र में अनन्त सामर्थ्य की प्रार्थना की गई है ॥२॥

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    विषय

    मत्सरिन्तमः

    पदार्थ

    [१] हे सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (इषम्) = प्रेरणा को, अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को (च) = और (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (पिन्वसे) [ क्षरसि] = प्राप्त कराता है। इनको प्राप्त कराके तू (मत्सरिन्तमः) = अतिशयेन आनन्दित करनेवाला होता है । [२] हे (चमूषु) = इन शरीररूप पात्रों में (आनिषीदसि) = समन्तात् स्थित होता है। शरीर में व्याप्त होकर ही यह हमारे लिये आनन्दित करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमारे लिये प्रभु-प्रेरणा को बल व प्राणशक्ति को प्राप्त कराता है और हमारे लिये मादयितृतम होता है।

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    विषय

    प्रजा को समृद्ध करके ही अपना सैन्य बल बढ़ावे।

    भावार्थ

    तू (मत्सरिन्तमः) समस्त प्रजा को अन्न, बल, धनादि से पूर्ण, तृप्त एवं सुप्रसन्न करने हारा होकर (इन्द्राय) शत्रुहन्ता सैन्य और समृद्ध वा भूमिकर्षक प्रजा जन के हितार्थ (इषम् ऊर्जं च) अन्न, बल और सैन्य को (पिन्वसे) बढ़ा, उसका पालन कर। तू (चमूषु) सेनाओं पर (आ निषीदसि) अध्यक्षवत् विराज।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Since you, ruler and most ecstatic creator, produce, develop and release an abundance of food, energy and knowledge to fullness and overflowing and preside over the resource centres and organisations of protection and production for the glory of humanity:

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजधर्मासाठी अनंत प्रकारच्या ऐश्वर्याची आवश्यकता असते. तेव्हा अनंत सामर्थ्य प्राप्त व्हावे यासाठी परमेश्वराची प्रार्थना केलेली आहे.॥२॥

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