ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - ककुम्मतीगायत्री
स्वरः - षड्जः
सु॒ता अनु॒ स्वमा रजो॒ऽभ्य॑र्षन्ति ब॒भ्रव॑: । इन्द्रं॒ गच्छ॑न्त॒ इन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ताः । अनु॑ । स्वम् । आ । रजः॑ । अ॒भि । अ॒र्ष॒न्ति॒ । ब॒भ्रवः॑ । इन्द्र॑म् । गच्छ॑न्तः । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुता अनु स्वमा रजोऽभ्यर्षन्ति बभ्रव: । इन्द्रं गच्छन्त इन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठसुताः । अनु । स्वम् । आ । रजः । अभि । अर्षन्ति । बभ्रवः । इन्द्रम् । गच्छन्तः । इन्दवः ॥ ९.६३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुताः) संस्कृतास्तथा (स्वं रजः) स्वकीयं स्थानं (आगच्छन्तः) प्राप्तवन्तः (इन्द्रम्) परमात्मानं प्राप्य (इन्दवः) ये प्रकाशस्वरूपसङ्कल्पाः (बभ्रवः) स्थिराः सन्ति ते (अन्वभ्यर्षन्ति) परमात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुताः) संस्कार किये हुए और (स्वं) अपने (रजः) स्थान को (आगच्छन्तः) प्राप्त होते हुए (इन्द्रम्) परमात्मा को प्राप्त होकर (इन्दवः) प्रकाशस्वरूप संकल्प (बभ्रवः) जो स्थिर हैं, वे (अन्वभ्यर्षन्ति) परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥६॥
भावार्थ
जो लोग अपनी चित्तवृत्तियों को निर्मल करते हैं, वे एक प्रकार से व्यवसायात्मक बुद्धि को बनाते हैं। अथवा यों कहो कि “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्” यो. १। ३। इस योगसूत्र में वर्णित किये हुए आत्मस्वरूप में स्थिति पाकर शुद्ध होते हैं। चित्तवृत्ति, संकल्प ये पर्याय शब्द हैं। परमात्मा ने इस मन्त्र में इस बात का उपदेश किया है कि हे मनुष्यों ! आप शुद्ध संकल्प होकर मेरी और आयें ॥६॥
विषय
इन्द्रं गच्छन्तः
पदार्थ
[१] (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए ये सोमकण (बभ्रवः) - हमारा धारण करनेवाले होते हैं। ये (इन्दवः) = शक्तिशाली सोम (इन्द्रं गच्छन्तः) - जितेन्द्रिय पुरुष को प्राप्त होते हैं। [२] ये सोम (स्वं रजः) = अपने लोक का (अनु) = लक्ष्य करके (आ अभ्यर्षन्ति) = शरीर में चारों ओर प्राप्त होते हैं। शरीर में सुरक्षित हुए हुए ही ये स्वस्थान में स्थित रहते हैं । यहाँ स्थित हुए-हुए ये शरीर को 'नीरोग, निर्मल व दीप्त' बनाते हैं और हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य करते हैं। इस प्रकार ये उस इन्द्र की ओर जा रहे होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष में ये सोम अपने स्थान में ही स्थित रहते हैं, अर्थात् शरीर से निर्गत नहीं होते और इस प्रकार ये हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं ।
विषय
वीरों और विद्वानों का सबको आर्य, श्रेष्ठ बनाते हुए दुष्टों को दण्डित करते हुए, विद्वान शासकों का आगे बढ़ाना।
भावार्थ
वे (इन्दवः) स्वतः ऐश्वर्ययुक्त, (बभ्रवः) बभ्रु वर्ण वा प्रजा के भरण पोषण करने में समर्थ (सुताः) अभिषिक्त, विद्या-व्रतादि में निष्णात होकर (इन्द्रम् गच्छन्तः) ऐश्वर्य वा राज्यादि पद को प्राप्त होते हुए, (स्वम् रजः अनु) अपने धन, तेज और स्थान के अनुसार (अभि अर्षन्ति) आगे बढ़ें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These determined forces of peace and progress trained and committed to positive values of universality, vibrant and fast, advance in their own essential nature and realise the highest ideals of Indra, central power of united humanity and common values.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक आपल्या चित्तवृत्तींना निर्मळ करतात ते एक प्रकारे व्यवसायात्मक बुद्धी बनवितात किंवा ‘तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्’ यो. १।३ या योगसूत्रात वर्णन केल्याप्रमाणे आत्मस्वरूपात स्थिती होऊन शुद्ध होतात. चित्तवृत्ती, संकल्प हे पर्यायी शब्द आहेत. परमेश्वराने या मंत्रात उपदेश केलेला आहे की हे माणसांनो! तुम्ही शुद्ध संकल्पयुक्त होऊन माझ्याकडे या. ॥६॥
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