ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 15
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सु॒ता इन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॒ सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः । प॒वित्र॒मत्य॑क्षरन् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ताः । इन्द्रा॑य । व॒ज्रिणे॑ । सोमा॑सः । दधि॑ऽआशिरः । प॒वित्र॑म् । अति॑ । अ॒क्ष॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुता इन्द्राय वज्रिणे सोमासो दध्याशिरः । पवित्रमत्यक्षरन् ॥
स्वर रहित पद पाठसुताः । इन्द्राय । वज्रिणे । सोमासः । दधिऽआशिरः । पवित्रम् । अति । अक्षरन् ॥ ९.६३.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 15
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुताः सोमासः) स्वयंसिद्धः परमात्मा (अतिपवित्रं दध्याशिरः) यः सर्वोपरि पवित्रताधिकरणः स परमेश्वरः (इन्द्राय वज्रिणे) कर्मयोगिपुरुषेभ्यः (अक्षरन्) परमानन्दस्य वृष्टिं करोति ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुताः सोमासः) स्वयंसिद्ध परमात्मा (अतिपवित्रं दध्याशिरः) जो सर्वोपरि पवित्रता का अधिकरण है, वह (इन्द्राय वज्रिणे) कर्मयोगी पुरुष के लिये (अक्षरन्) परमानन्द की वृष्टि करता है ॥१५॥
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी पुरुष के लिये आनन्द की वृष्टि करता है। इसका तात्पर्य यह है कि उद्योगी पुरुषों के लिये परमात्मा सदैव आनन्द का प्रदान करता है। यद्यपि परमात्मा का आनन्द सबके सन्निहित है, तथापि उसके आनन्द को उद्योगी कर्मयोगी ही लाभ कर सकते हैं। इस अपूर्वता का इस मन्त्र में उपदेश किया गया है ॥१५॥
विषय
'दध्याशिरः ' सोमासः
पदार्थ
[१] (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये, (वज्रिणे) = गतिशीलता रूप वज्रवाले के लिये (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए (सोमासः) = ये सोमकण (दध्याशिरः) = [ धत्ते, आशृणाति] बल को धारण करनेवाले होते हैं तथा सब बुराइयों को शीर्ण करनेवाले होते हैं। [२] (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले पुरुष को ये (अति अक्षरन्) = अतिशयेन प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये साधन हैं— [क] जितेन्द्रियता, [ख] क्रियाशीलता, [ग] हृदयता की पवित्रता । सुरक्षित हुए हुए सोम हमें बल-सम्पन्न व निर्मल बनाते हैं ।
विषय
उनका राष्ट्र-शोधन का पवित्र कार्य। पक्षान्तर में—आचार्य से शिक्षित शिष्यों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
वे (सोमासाः) सौम्य स्वभावयुक्त, बलवान्, अभिषेक योग्य जन, (वज्रिणे इन्द्राय) बलशाली, ऐश्वर्यवान् राजा के लिये (सुताः) नाना पदों पर अभिषिक्त होकर (दधि-आशिरः) धारण करने योग्य पद पर आश्रित होकर (पवित्रं) अन्यों को पवित्र स्वच्छ करने वाले पद को (अति अक्षरन्) खूब प्राप्त हों। इसी प्रकार ज्ञानवान् आचार्य के शिष्य स्नातक होकर पवित्र वेद-ज्ञान को प्रवाहित करें। इति द्वात्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The showers of soma, distilled and purified from the motherly womb of nature, for the mighty ruling order of life, wielding the thunderbolt of justice and dispensation, radiate and sanctify every pious heart and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
स्वयंसिद्ध परमात्मा पवित्रतेचा सर्वात मोठा अधिकारी आहे. तो कर्मयोगी पुरुषांसाठी आनंदाची वृष्टी करतो. उद्योगी पुरुषांसाठी परमात्मा सदैव आनंद प्रदान करतो. जरी परमात्म्याचा आनंद सर्वांजवळ असतो तरीही त्याच्या आनंदाचा लाभ कर्मयोगीच घेऊ शकतात. ही अपूर्वता या मंत्रात सांगितलेली आहे. ॥१५॥
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