ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सु॒त इन्द्रा॑य॒ विष्ण॑वे॒ सोम॑: क॒लशे॑ अक्षरत् । मधु॑माँ अस्तु वा॒यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तः । इन्द्रा॑य । विष्ण॑वे । सोमः॑ । क॒लशे॑ । अ॒क्ष॒र॒त् । मधु॑ऽमान् । अ॒स्तु॒ । वा॒यवे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुत इन्द्राय विष्णवे सोम: कलशे अक्षरत् । मधुमाँ अस्तु वायवे ॥
स्वर रहित पद पाठसुतः । इन्द्राय । विष्णवे । सोमः । कलशे । अक्षरत् । मधुऽमान् । अस्तु । वायवे ॥ ९.६३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे जगदीश्वर ! (सुतः सोमः) साधनैः सिद्धः सौम्यस्वभावः (इन्द्राय) ज्ञानयोगिने (विष्णवे) बहुव्यापकाय (वायवे) कर्मयोगिने (मधुमान् अस्तु) सुशीलमाधुर्यादिभावप्रदातास्तु। अथ च (कलशे) तेषामन्तःकरणेषु (अक्षरत्) निरन्तरं प्रवाहितो भवतु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (सुतः सोमः) साधनों से सिद्ध किया हुआ सौम्यस्वभाव (इन्द्राय) ज्ञानयोगी के लिये (विष्णवे) जो बहुव्यापक है (वायवे) कर्मयोगी के लिये (मधुमान् अस्तु) सुशीलतायुक्त माधुर्यादि भावों को देनेवाला हो और (कलशे) उनके अन्तःकरणों में (अक्षरत्) सदैव प्रवाहित होता रहे ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा ने सर्वोपरि शील की शिक्षा दी है कि हे पुरुषों ! तुम अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाओ, ताकि तुमारा अन्तःकरण धृत्यादि धर्म के लक्षणों को धारण करके राजधर्म के धारण के योग्य बने ॥३॥
विषय
'इन्द्र, विष्णु व वायु' के द्वारा सोमरक्षण
पदार्थ
[१] (सुतः सोमः) = उत्पन्न हुआ हुआ सोम (इन्द्राय विष्णवे) = इन्द्र व विष्णु के लिये (कलशे अक्षरत्) = शरीर में ही गतिवाला होता है । इन्द्र का भाव है 'जितेन्द्रिय' तथा विष्णु का भाव है 'व्यापक [उदार] हृदयवाला' यज्ञशील। जो जितेन्द्रिय व यज्ञशील बनता है, वही सोम को शरीर में सुरक्षित कर पाता है । [२] यह सोम (वायवे) = [वा गतौ] गतिशील पुरुष के लिये (मधुमान् अस्तु) = अत्यन्त माधुर्यवाला हो। गतिशील व्यक्ति के जीवन में सुरक्षित हुआ हुआ सोम उसके जीवन को मधुर बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ-=हम 'जितेन्द्रिय, यज्ञशील व गतिशील' बनकर सोम को सुरक्षित कर पाते हैं । यह हमारे जीवन को मधुर बनाता है।
विषय
वह बड़ा सैन्य बल का स्वामी होकर राष्ट्र में बराबर विचरे।
भावार्थ
(इन्द्राय विष्णवे वायवे) ऐश्वर्ययुक्त और व्यापक सामर्थ्य और (वायवे) वायुवत बलवान संघ के नेता और सेनापति पद के लिये (सुतः सोमः) अभिषिक्त होकर ही शासक (कलशे अक्षरत्) राष्ट्र में विचरे वा (अक्षरत्) अक्षर, अविनाशी स्थिर हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let that soma, plenteous overflow of peace, prosperity and joy, created, distilled and purified, roll in minds and human communities and be as sweet as honey for Indra, leaders of knowledge and power, Vishnu, generality of people all over the globe, and Vayu, vibrant powers of progress and pioneers of constant advancement in every field of activity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराने सर्वोत्कृष्ट शीलाचे शिक्षण दिलेले आहे की, हे पुरुषांनो! तुम्ही आपल्या अंत:करणाला शुद्ध करून धैर्य इत्यादी लक्षणांना धारण करा व राजधर्म धारण करण्यायोग्य बना. ॥३॥
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