ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 17
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तमी॑ मृजन्त्या॒यवो॒ हरिं॑ न॒दीषु॑ वा॒जिन॑म् । इन्दु॒मिन्द्रा॑य मत्स॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ई॒म् इति॑ । मृ॒ज॒न्ति॒ । आ॒यवः॑ । हरि॑म् । न॒दीषु॑ । वा॒जिन॑म् । इन्दु॑म् । इन्द्रा॑य । म॒त्स॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिनम् । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ईम् इति । मृजन्ति । आयवः । हरिम् । नदीषु । वाजिनम् । इन्दुम् । इन्द्राय । मत्सरम् ॥ ९.६३.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 17
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तं हरिम्) पूर्वोक्तगुणसम्पन्नं (इन्दुम्) स्वप्रेम्णार्द्रकारकम् अथ च (इन्द्राय मत्सरं) कर्मयोगिनामाह्लादकारकं (ईम् वाजिनम्) समृद्धिषु बलस्वरूपं तथा (नदीषु) समस्ताभ्युदयेषु (आयवः) मनुष्याः (मृजन्ति) अविद्यास्वरूपवनिकामुत्पाट्य बुद्धिविषयं कुर्वन्ति ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तं हरिं) उक्त गुणसम्पन्न परमात्मा को, (इन्दुम्) जो सबको अपने प्रेम से आर्द्रित करनेवाला है और (इन्द्राय मत्सरं) कर्मयोगी के लिये आह्लाद को उत्पन्न करनेवाला है (ईं वाजिनम्) बलस्वरूप को समृद्धियों में (नदीषु) सम्पूर्ण अभ्युदयों में (आयवः) मनुष्य लोग (मृजन्ति) अविद्या के परदे को हटाकर बुद्धिविषय बनाते हैं ॥१७॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि जो लोग आवरण को दूर करके परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं, वे सब प्रकार के अभ्युदयों को प्राप्त होते हैं ॥१७॥
विषय
नदीषु वाजिनम्
पदार्थ
[१] (आयवः) = गतिशील पुरुष (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं, इसे वासनाओं से मलिन नहीं होने देते। जो सोम (हरिम्) = सब दुःखों का हरण करनेवाला है। जो (नदीषु) = शरीर की सब नाड़ियों में [रक्तवाहिनी धमनियों में] (वाजिनम्) = शक्ति का सञ्चार करनेवाला है । इसके नाश से सारा नाड़ी संस्थान दुर्बल पड़ जाता है। [२] उस सोम का शोधन करते हैं, जो कि (इन्दुम्) = शक्ति का संचार करनेवाला है तथा (इन्द्राय मत्सरम्) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये आनन्द का संञ्चार करनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- गतिशीलता से वासनाओं के आक्रमण के न होने से सोम पवित्र बना रहता है । यह रोगहर्ता, नाड़ियों को सशक्त बनानेवाला व आनन्द का दाता है।
विषय
जलों और ओषधिरसों के तुल्य राजा का अभिषेक, उसके परिशोधन के तुल्य हो।
भावार्थ
(नदीषु वाजिनम् हरि आयवः मृजन्ति) नदियों में वेगवान् अन्यों को भी बहा ले जाने वाले जल को जिस प्रकार वस्त्रादि से स्वच्छ करते हैं वा जिस प्रकार नदीतटों पर उगे बलदायक ओषधि वर्ग को स्वच्छ करते हैं उसी प्रकार (आयवः) उसको सब प्रकार से चाहने और प्राप्त होने वाले मनुष्य (नदीषु) प्रशंसा वचन कहने वाली और समृद्ध प्रजाओं के बीच (वाजिनं) बलवान् (हरिम्) प्रजा के दुःखहारी एवं मनोहर (इन्दुम्) ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी, दयार्द्र (मत्सरम्) हर्षदायक पुरुष को (इन्द्राय) परम-ऐश्वर्य साम्राज्य पद के लिये (मृजन्ति) शुद्ध, अभिषिक्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That shower of soma, sparkling brilliant, most exhilarating, destroyer of suffering and pain, seeping in the heart and flowing in the streams of life, the yajakas exalt and adore for the glory of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, जे लोक आवरण दूर करून परमात्म्याचा साक्षात्कार करतात त्यांचा सर्व प्रकारे अभ्युदय होतो. ॥१७॥
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