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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 63/ मन्त्र 22
    ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पव॑स्व देवायु॒षगिन्द्रं॑ गच्छतु ते॒ मद॑: । वा॒युमा रो॑ह॒ धर्म॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पव॑स्व । दे॒व॒ । आ॒यु॒षक् । इन्द्र॑म् । ग॒च्छ॒तु॒ । ते॒ । मदः॑ । वा॒युम् । आ । रो॒ह॒ । धर्म॑णा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवस्व देवायुषगिन्द्रं गच्छतु ते मद: । वायुमा रोह धर्मणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवस्व । देव । आयुषक् । इन्द्रम् । गच्छतु । ते । मदः । वायुम् । आ । रोह । धर्मणा ॥ ९.६३.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 63; मन्त्र » 22
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देव) हे परमैश्वर्यसम्पन्नपरमात्मन् ! भवान् मां (पवस्व) पवित्रयतु (ते) भवतः (मदः) आनन्दः (आयुषक्) उपासकं (इन्द्रम्) कर्मयोगिनं (गच्छतु) प्राप्नोतु। तथा भवान् (वायुम्) ज्ञानयोगिनं पुरुषं (धर्मणा) उपास्यभावेन (आरोह) प्राप्नोतु ॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देव) हे दिव्यगुणसम्पन्न परमात्मन् ! आप मुझको (पवस्व) पवित्र करें। (ते) आपका (मदः) परम आनन्द (आयुषक्) उपासक (इन्द्रम्) कर्मयोगी पुरुष को (गच्छतु) प्राप्त हो। तथा आप (वायुं) ज्ञानयोगी पुरुष को (धर्मणा) उपास्य भाव से (आरोह) प्राप्त हों ॥२२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष ज्ञानयोगी वा कर्मयोगी बनकर परमात्मा के उपासक बनते हैं, परमात्मा उन्हें तद्धर्मतापत्ति योग द्वारा पवित्र करता है अर्थात् अपने शिष्यादिभावों को प्रदान करके उनको शुद्ध करता है ॥२२॥

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    विषय

    वायुं आरोह धर्मणा

    पदार्थ

    [१] हे (देव) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले सोम ! तू (आयुषक्) = [अनुषक्तं] निरन्तर हमें (पवस्व) = प्राप्त हो (ते मदः) = तेरा उल्लास, तेरे रक्षण से उत्पन्न उल्लास (इन्द्रं गच्छतु) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को प्राप्त हो । [२] हे सोम ! तू (धर्मणा) = अपनी धारण शक्ति के द्वारा (वायं आरोह) = आरोहण करता हुआ निरन्तर गतिशील प्रभु को [वा गतौ] प्राप्त हो। यह सोम हमारे जीवन में पवित्रता का सञ्चार करता हुआ हमें प्रभु की ओर ले जानेवाला हो। 'वायु' नाम से प्रभु का स्मरण करता हुआ यह सोमरक्षक पुरुष भी निरन्तर गतिशील बनता हुआ अपने जीवन को अधिकाधिक पवित्र करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोमरक्षण द्वारा पवित्र व उल्लासमय जीवनवाले बनकर प्रभु को प्राप्त हों ।

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    विषय

    उसके ‘वायु’ पद की व्याख्या।

    भावार्थ

    हे (देव) सुखों के देने वाले, तेजोमय ! (आयुषक् पवस्व) सब के प्राणों के प्राप्त कराने वाला, सब मनुष्यों को प्रेम से बांधने वाला होकर तू प्राप्त हो (ते मदः इन्द्रम् गच्छतु) तेरा हर्ष और दमन-बल इन्द्र ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता को प्राप्त हो। तू (धर्मणा) अपने धारक बल से (वायुम् आ रोह) वायुवत् सर्वप्राणप्रद, बलशाली पद को आरूढ़ हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निध्रुविः काश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ४, १२, १७, २०, २२, २३, २५, २७, २८, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७-११, १६, १८, १९, २१, २४, २६ गायत्री। ५, १३, १५ विराड् गायत्री। ६, १४, २९ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, self-refulgent and self-joyous lord of peace and bliss, let your presence vibrate and purify us. Let your ecstatic bliss reach Indra, the ruler, for the glory of mankind. May you with your divine power and presence emerge and rise in the heart of vibrant devotees.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष ज्ञानयोगी किंवा कर्मयोगी बनून परमात्म्याचे उपासक बनतात. परमात्मा त्यांना तद्धर्मतापत्ति योगाद्वारे पवित्र करतो अर्थात आपले शिष्य इत्यादी भाव प्रदान करून त्यांना शुद्ध करतो. ॥२२॥

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