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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    131

    शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा आप॑श्च॒रुमव॑ सर्पन्तु शु॒भ्राः। अदुः॑ प्र॒जां ब॑हु॒लान्प॒शून्नः॑ प॒क्तौद॒नस्य॑ सु॒कृता॑मेतु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ध्दा: । पू॒ता: । यो॒षित॑: । य॒ज्ञिया॑: । इ॒मा: । आप॑: । च॒रुम् । अव॑ । स॒र्प॒न्तु॒ । शु॒भ्रा: । अदु॑: । प्र॒ऽजाम् । ब॒हु॒लान् । प॒शून् । न॒: । प॒क्ता । ओ॒द॒नस्य॑ । सु॒ऽकृता॑म् । ए॒तु॒ । लो॒कम् ॥१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा आपश्चरुमव सर्पन्तु शुभ्राः। अदुः प्रजां बहुलान्पशून्नः पक्तौदनस्य सुकृतामेतु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुध्दा: । पूता: । योषित: । यज्ञिया: । इमा: । आप: । चरुम् । अव । सर्पन्तु । शुभ्रा: । अदु: । प्रऽजाम् । बहुलान् । पशून् । न: । पक्ता । ओदनस्य । सुऽकृताम् । एतु । लोकम् ॥१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुद्धाः) शुद्धस्वभाववाली, (पूताः) पवित्र आचरणवाली, (यज्ञियाः) पूजनीय (योषितः) सेवायोग्य, (शुभ्राः) चरित्रवाली (इमाः) यह (आपः) विद्या में व्याप्त स्त्रियाँ (चरुम्) ज्ञान को (अव) निश्चय करके (सर्पन्तु) प्राप्त हों। इन [शिक्षित स्त्रियों] ने (नः) हमें (प्रजाम्) सन्तान और (बहुलान्) बहुविध (पशून्) [गौ भैंस आदि] पशु (अदुः) दिये हैं, (ओदनस्य) सुख बरसानेवाले [वा मेघरूप परमेश्वर] का (पक्ता) पक्का [मन में दृढ़] करनेवाला मनुष्य (सुकृताम्) सुकर्मियों के (लोकम्) समाज को (एतु) पहुँचे ॥१७॥

    भावार्थ

    गुणवती स्त्रियों के शुभ प्रबन्ध से उत्तम सन्तान और उत्तम गौ, भैंस, बकरी आदि उपकारी पशु घर में होते हैं और परमेश्वर की आज्ञा पालनेवाला पुरुष अवश्य प्रतिष्ठा पाता है ॥१७॥इस मन्त्र का पहिला पाद आ चुका है-अ० ६।१२२।५ ॥

    टिप्पणी

    १७−(शुद्धाः) निर्मलस्वभावाः (पूताः) पवित्राचाराः (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रियः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (आपः) म० १३। व्याप्तविद्याः स्त्रियः (चरुम्) म० १६। बोधम् (सर्पन्तु) गच्छन्तु। प्राप्नुवन्तु (शुभ्रः) शुभचरित्राः (अदुः) प्रायच्छन् (प्रजाम्) सन्तानम् (बहुलान्) (बहून्) (पशून्) गोमहिष्याद्यान् (नः) अस्मभ्यम् (पक्ता) दृढकर्त्ता (ओदनस्य) अ० ९।५।१९। सुखस्य सेचकस्य वर्षकस्य मेघरूपस्य वा परमेश्वरस्य (सुकृताम्) पुण्यकर्मिणाम् (एतु) प्राप्नोतु (लोकम्) दर्शनीयं समाजम् ॥

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    विषय

    ज्ञानरुचिता व स्वर्ग-निर्माण

    पदार्थ

    १. (शुद्धा:) = शुद्ध चरित्रवाली (पूता:) = पवित्र मनवाली (इमाः योषित:) = ये स्त्रियाँ (यज्ञिया:) = यज्ञशीला हैं। (आप:) = कर्मों में व्यास होनेवाली अतएव (शुभ्रा:) = शुद्ध व दीप्त जीवनवाली ये (चरुम् अवसर्पन्तु) = ब्रह्मौदन-ज्ञान-भोजन के प्रति गतिवाली हों। ये खाली समय को ज्ञान प्राप्ति में ही लगाने का ध्यान करें। २. ये गृहिणियाँ (न:) = हमारे लिए (प्रजाम) = उत्तम सन्तान को तथा (बहुलान् पशून्) = दुग्धादि बहुत पदार्थों को प्राप्त करानेवाले-बहुत-से गवादि पशुओं को (अदुः) = दें। (ओदनस्य पक्ता) = ज्ञान के भोजन का परिपाक करनेवाला यह गृहपति (सुकृताम् लोकम्) = पुण्यकर्मा लोगों के लोक को (एतु) = प्राप्त हो। इनका घर स्वर्गतुल्य बने।

    भावार्थ

    पवित्र जीवनवाली स्त्रियाँ कर्मों में व्यास रहें-खाली समय को ज्ञान-प्राप्ति में लगाएँ। इस जीवन में ये उत्तम सन्तानों व उत्तम पशुओं को प्राप्त करेंगी। ज्ञानरुचि-गृहपति घर को स्वर्ग बनानेवाला होगा।

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    भाषार्थ

    (योषितः) महिलाओं के सदृश (शुद्धाः पूताः) शुद्ध और पवित्र, (यज्ञियाः) अतिथि यज्ञकर्म योग्य, (शुभ्राः) चमकीले (इमाः आपः) ये जल, (चरुम्) भाण्ड में (अव सर्पन्तु) शनैः शनैः डलें, या डाले जायें। [ऋष्यादि ने] (नः) हम राजवर्ग को (प्रजाम्) प्रजा तथा (बहुलान् पशून्) बहुत पशु (अदुः) दे दिये हैं। (ओदनस्य पक्ता) ओदन का पकाने वाला (सुकृताम् लोकम्) सुकर्मियों के लोक को (एतु) जाए।

    टिप्पणी

    [मन्त्र १६ द्वारा शुद्ध पवित्र तथा गर्म भाण्ड में, शुद्ध जल को शनैः शनैः डालने का वर्णन मन्त्र १७ में हुआ है, ताकि भाण्ड शनैः शनैः ठण्डा होता रहे, और तदनन्तर समुचित जलमात्रा का संचय भाण्ड में हो जाय। आमन्त्रित ऋषि मुनि आदि भोजन से पूर्व राजपरिवार तथा राजवर्ग को राज्यशासन सम्बन्धी परामर्श देंगे। उन के परामर्शों का ग्रहण कर राजपरिवार आदि व्यक्ति कहते हैं कि इन परामर्शों द्वारा हमें मानो सत्प्रजा और नाना पशुओं की सम्पत्ति, ऋषि आदि ने दे दी हैं। ऋषि लोग कहते है कि अन्नादि द्वारा हमें सत्कृत करने वाला राजपरिवार आदि, उन लोगों की समाज के अधिकारी हो जाय जो कि प्रजा के पालनरूपी सत्कर्मों के करने वाले हैं१]। [१. अथवा सुकर्मी लोग मृत्यु के पश्चात् जिस लोक में जाते हैं, उस लोक में तुम भी मृत्यु के पश्चात् जाओ। इस असीम संसार में लोक लोकान्तरों की कोई सीमा या निश्चित संख्या नहीं की जा सकती। सम्भव है कि मृत्यु के पश्चात् सुकर्मियों और दुष्कर्मियों के पृथक्-पृथक् लोक भी हों, और मिश्रित कर्मियों के लिये मृत्यु के पश्चात् पुनः भूलोक हो।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    your heat of faith and relentless action. Let the devotees, dedicated to visionary sages and the divinities of nature and humanity, tempered in the crucibles of social discipline, having joined together, keep the fire burning, and, according to the seasons of time and place, offer their contribution to society. May these pure, consecrated, adorable gracious young women and their holy actions like gentle streams of water move to the sacred vessel to prepare the holy food for yajna for the community on way to divinity. May they give us noble progeny and plenty of wealth, and may those who prepare and perfect the food for divinity reach the regions of highest attainment in life.

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    Translation

    Let these cleansed, purified, worshipful maidens, the waters, beauteous ones, creep down to the pot; they have given us abundant progeny, cattle; let the cooker of the rice-dish go to the world of the well-doers.

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    Translation

    May the pious, pure, respectable and wise ladies pure in thought, deed and speech obtain this cereal preparation for the performance of Yajna and give us progeny and many cattles. The person who prepares for the purpose of Yajna attain the state of heaven.

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    Translation

    May these immaculate, pure, adorable, serviceable, well-behaved, learned women, verily acquire knowledge. May these learned ladies give us cattle and many children. May he who intensely worships God acquire salvation.

    Footnote

    Odana: God, Who showers joy like a cloud.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(शुद्धाः) निर्मलस्वभावाः (पूताः) पवित्राचाराः (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रियः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (आपः) म० १३। व्याप्तविद्याः स्त्रियः (चरुम्) म० १६। बोधम् (सर्पन्तु) गच्छन्तु। प्राप्नुवन्तु (शुभ्रः) शुभचरित्राः (अदुः) प्रायच्छन् (प्रजाम्) सन्तानम् (बहुलान्) (बहून्) (पशून्) गोमहिष्याद्यान् (नः) अस्मभ्यम् (पक्ता) दृढकर्त्ता (ओदनस्य) अ० ९।५।१९। सुखस्य सेचकस्य वर्षकस्य मेघरूपस्य वा परमेश्वरस्य (सुकृताम्) पुण्यकर्मिणाम् (एतु) प्राप्नोतु (लोकम्) दर्शनीयं समाजम् ॥

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