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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - अतिजागतगर्भा परशाक्वरा चतुष्पदा भुरिग्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    55

    स॒हस्र॑पृष्ठः श॒तधा॑रो॒ अक्षि॑तो ब्रह्मौद॒नो दे॑व॒यानः॑ स्व॒र्गः। अ॒मूंस्त॒ आ द॑धामि प्र॒जया॑ रेषयैनान्बलिहा॒राय॑ मृडता॒न्मह्य॑मे॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽपृष्ठ: । श॒तऽधा॑र: । अक्षि॑त: । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒न: । दे॒व॒ऽयान॑: । स्व॒:ऽग: । अ॒मून् । ते॒ । आ । द॒धा॒मि॒ । प्र॒ऽजया॑ । रे॒ष॒य॒ । ए॒ना॒न् । ब॒लि॒ऽहा॒राय॑ । मृ॒ड॒ता॒त् । मह्य॑म् । ए॒व ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रपृष्ठः शतधारो अक्षितो ब्रह्मौदनो देवयानः स्वर्गः। अमूंस्त आ दधामि प्रजया रेषयैनान्बलिहाराय मृडतान्मह्यमेव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽपृष्ठ: । शतऽधार: । अक्षित: । ब्रह्मऽओदन: । देवऽयान: । स्व:ऽग: । अमून् । ते । आ । दधामि । प्रऽजया । रेषय । एनान् । बलिऽहाराय । मृडतात् । मह्यम् । एव ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सहस्रपृष्ठः) सहस्रों स्तोत्रवाला (शतधारः) बहुविध जगत् का धारण करनेवाला, (अक्षितः) क्षयरहित, (देवयानः) विद्वानों से पाने योग्य, (स्वर्गः) आनन्द पहुँचानेवाला, (ब्रह्मौदनः) ब्रह्म-ओदन [वेदज्ञान, अन्न वा धन का बरसानेवाला, तू परमात्मा है]। (अमून्) उन [वैरियों] को (ते) तुझे (आ दधामि) सौंपता हूँ, (एनान्) इन [शत्रुओं] को (प्रजया) [उनकी] प्रजासहित (रेषय) नाश करा, (मह्यम्) मुझे (बलिहाराय) सेवा विधि स्वीकार करने के लिये (एव) ही (मृडतात्) सुख दे ॥२०॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा के दिव्य गुणों को अनेक प्रकार साक्षात् करके अपने दोषों को उनकी प्रजासहित, अर्थात् दोषों से उत्पन्न दोषों सहित, विचारपूर्वक नाश करके संसार की सेवा करे ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(सहस्रपृष्ठः) बहुस्तोत्रयुक्तः (शतधारः) शतं बहुविधं जगद् धरतीति यः (अक्षितः) अक्षीणः (ब्रह्मौदनः) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य धनस्य वा सेचको वर्षकः परमात्मा (देवयानः) विद्वद्भिः प्राप्यः (स्वर्गः) सुखस्य गमयिता प्रापकः (अमून्) शत्रून् (ते) तुभ्यम् (आ दधामि) समर्पयामि (प्रजया) सन्तानेन सह (रेषय) हिंसय (एनान्) अरीन् (बलिहाराय) हृञ् स्वीकरणे-घञ्। बलेः सेवाविधेः स्वीकरणाय (मृडतात्) सुखं देहि (मह्यम्) उपासकाय (एव) निश्चयेन ॥

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    विषय

    ब्रह्मौदन: देवयानः

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मौदन:) = यह ज्ञान का भोजन (सहस्त्रपृष्ठः) = सहस्रों सुखों का सेचन करनेवाला है। (शतधार:) = शत-वर्षपर्यन्त-आजीवन हमारा धारण करनेवाला है। (अ-क्षित:) = [न क्षितं यस्मात्] इससे कभी हमारा विनाश नहीं होता। (देवयान:) = यह देव की प्राप्ति का मार्ग है। (स्वर्ग:) = जीवन को सुखमय व प्रकाशमय बनानेवाला है। २. हे ब्रह्मौदन ! मैं (अमून) = उन अपने शत्रुओं को (ते आदधामि) = तेरी अधीनता में स्थापित करता हूँ। वस्तुत: ज्ञानरुचिता होने पर ये काम-क्रोध आदि शत्रु अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं। (प्रजया) = मेरी शक्तियों के विकास के हेतु से (एनान् रेषय) = इन शत्रुओं को नष्ट कर डालिए। (मह्यम्)= मुझ (बलिहाराय) = बलि प्राप्त करानेवाले के लिए बलिवैश्वदेवादि यज्ञों को करनेवाले के लिए यह ब्रह्मौदन (मृडतात् एव) = अनुग्रह ही करनेवाला हो। ज्ञान के द्वारा मेरा जीवन सुखी हो।

    भावार्थ

    ज्ञान हमारे जीवनों को आनन्दमय बनाता हुआ हमें प्रभु की ओर ले-चलता है। यह जीवन को प्रकाशमय बना देता है। यह ज्ञान हमारे शत्रुओं को नष्ट करे, हमारे विकास के लिए इन कामादि शत्रुओं का विनाश आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    (ब्रह्मौदनः) ब्रह्म के प्रसादन के निमित्त ब्राह्मणों और वेदज्ञों को दिया गया ओदन, (सहस्रपृष्ठः) हजारों अतिथियों का पृष्ठवत् आश्रय होता है, (शतधारः) असंख्यातों का धारण-पोषण करता है, (अक्षितः देवयानः) अक्षुण्ण रूप में दिया गया, अर्थात् वंशपरम्परा द्वारा दिया गया (मन्त्र १९), (देवयानः) यह देवमार्ग कहलाता है, (स्वर्गः) और सुख विशेष प्राप्त कराता है। (ते) हे ब्रह्मन् ! तेरे लिये (बलिहाराय) बलि भेंट के निमित्त (अमून्) उन व्यक्तियों का (आ दधामि) मैं सम्राट् पूर्णतया धारण-पोषण करता हूं [जो कि ब्रह्मौदन यज्ञ करते हैं]; [और जो अतिथियों के निमित्त तुझे ब्रह्मौदन भेंट नहीं करते] (एमान्) इन्हें (प्रजया) सन्तान से (रेषय) अल्प संख्यक कर, और (मह्यम्) मुझ अतिथि यज्ञ के करने वाले सम्राट् के लिये (एव) अवश्य, (मृडतात) सुख प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मौदनः=अतिथियज्ञ में दिया गया अन्न, ब्रह्म को प्रसन्न करता है, क्यों कि इस द्वारा उस के पुत्रों की सेवा होती है। देवयानः=अतिथियज्ञ देवकोटि के गृहस्थों का मार्ग हैं, इसलिये इस यज्ञ को अवश्य करते रहना चाहिये। गृहस्थी के पञ्चमहायज्ञों में अतिथियज्ञ भी है। मन्त्र की भावना के अनुसार जो केवल स्वार्थ के लिये अन्न पकाते हैं वे केवल पाप का भोजन करते हैं, अन्न का नहीं, "भुञ्जते ते त्वघं पापाः ये पचन्त्यात्मकारणात्" (गीता ३।१३), तथा "केवलाघो भवति केवलादी" (ऋ० १०।११७।६)। इसलिये ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम हो जानी चाहिये, क्योंकि ये स्वार्थी हैं। और मुझ जैसे अतिथि यज्ञ करने वालों को हे ब्रह्मन् ! तू सुखी कर। [शतधारः; शतम् बहुनाम (निघं० ३।१)। "रेषय= रेशय (सायण) =लेशय, अल्पी कुरु, लिश अल्पीभावे, रलयोरेकत्वस्मरणात् रेफः" (सायण)। अथवा "रेषय" विनष्ट कर, रिष हिंसायाम्। बलिः=अन्न प्रदान, जैसे कि "बलि वैश्वदेव" में बलि का अर्थ है- अन्न प्रदान]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (सहस्रपृष्ठः) सहस्रों पृष्ठों वाला या सहस्रों का पोषक (शतधारः) सैकड़ों धारों वाला, शतवीर्य (अक्षितः) अविनाशी, अक्षय (ब्रह्मोदनम्) ब्रह्म के बल से संयुक्त, प्रजापति अर्थात् क्षत्र बल ही (स्वर्गः) सुखमय (देवयानः) देवताओं का मार्ग है। (ते) तेरे वश में मैं (अमून् आ दधामि) उन शत्रु लोगों को रखता हूं। (एनान्) उनको (प्रजया) प्रजासहित (बलिहराय) कर देने के लिये (रेषय) पीड़ित कर, दण्डित कर। (मह्यम्) मुझ को (एव) ही (मृढ़तात्) सुखी कर।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘रेशयैनान्’ इति सायणः। (प्र०) ‘अक्षतो’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    Support of thousands, streaming forth in a hundred showers, unhurt and undiminished is Brahmaudana, food for divinities, the path of divines to the regions of bliss. I sustain all those around me along with their progeny who bear homage to you, O Lord, move and inspire all these, be kind and gracious for my sake so that we all are able to offer the homage of Brahmaudana.

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    Translation

    Thousand-backed, hundred-streamed, unexhausted, (is) the brahman-rice-dish, god-travelled, heaven-going; them yonder I assign to thee; lessen (?) thou them with progeny; be gracious then to me (as) bringer of tribute.

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    Translation

    The luminous whole (Brahmaudana) of the universal cosmos is described and praised in various ways, it has various kinds of supporting enexgies, it is inexhaustible, it has its place in spatial void and is the jumble of all physical and non-physical forces and elements. I, the knower of this bring, into your control all the foes, O Man’, you punish them with their children and make me happy.

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    Translation

    O God, Thou art worthy of a thousand eulogies, sustainest the universe in a hundred ways, Undecaying, Attainable by the learned, Bestower of joy, and Giver of Vedic knowledge, riches and food! I hand over these foes to Thee. Punish them with their children. Be gracious unto me for service.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(सहस्रपृष्ठः) बहुस्तोत्रयुक्तः (शतधारः) शतं बहुविधं जगद् धरतीति यः (अक्षितः) अक्षीणः (ब्रह्मौदनः) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य धनस्य वा सेचको वर्षकः परमात्मा (देवयानः) विद्वद्भिः प्राप्यः (स्वर्गः) सुखस्य गमयिता प्रापकः (अमून्) शत्रून् (ते) तुभ्यम् (आ दधामि) समर्पयामि (प्रजया) सन्तानेन सह (रेषय) हिंसय (एनान्) अरीन् (बलिहाराय) हृञ् स्वीकरणे-घञ्। बलेः सेवाविधेः स्वीकरणाय (मृडतात्) सुखं देहि (मह्यम्) उपासकाय (एव) निश्चयेन ॥

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