अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
58
उ॒रुः प्र॑थस्व मह॒ता म॑हि॒म्ना स॒हस्र॑पृष्ठः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के। पि॑ताम॒हाः पि॒तरः॑ प्र॒जोप॒जाऽहं प॒क्ता प॑ञ्चद॒शस्ते॑ अस्मि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु: । प्र॒थ॒स्व॒ । म॒ह॒ता । म॒हि॒म्ना । स॒हस्र॑ऽपृष्ठ: । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के । पि॒ता॒म॒हा: । पि॒तर॑: । प्र॒ऽजा । उ॒प॒ऽजा । अ॒हम् । प॒क्ता । प॒ञ्च॒ऽद॒श: । ते॒ । अ॒स्मि॒ ॥१.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुः प्रथस्व महता महिम्ना सहस्रपृष्ठः सुकृतस्य लोके। पितामहाः पितरः प्रजोपजाऽहं पक्ता पञ्चदशस्ते अस्मि ॥
स्वर रहित पद पाठउरु: । प्रथस्व । महता । महिम्ना । सहस्रऽपृष्ठ: । सुऽकृतस्य । लोके । पितामहा: । पितर: । प्रऽजा । उपऽजा । अहम् । पक्ता । पञ्चऽदश: । ते । अस्मि ॥१.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (महता) बड़ी (महिम्ना) महिमा से (उरुः) विस्तृत और (सहस्रपृष्ठः) सहस्रों स्तोत्रवाला तू (सुकृतस्य) सुकर्म के (लोके) समाज में (प्रथस्व) प्रसिद्ध हो। (पितामहाः) पितामह [पिता के पिता] आदि, (पितरः) पिता आदि [सब गुरुजन], (प्रजा) सन्तान, और (उपजा) सन्तान के सन्तान [ये हैं] (पञ्चदशः) [पाँच प्राण, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान+पाँच इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण+पाँच भूत अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, वायु, और आकाश इन] पन्द्रह पदार्थवाला जीवात्मा (अहम्) मैं (ते) तेरा (पक्ता) पक्का [अपने हृदय में दृढ़] करनेवाला (अस्मि) हूँ ॥१९॥
भावार्थ
मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वर की आज्ञा पालन करके संसार में अपने बड़ों और छोटों के साथ सुकर्मी होकर आनन्द भोगें ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(उरुः) विस्तीर्णः (प्रथस्व) प्रख्यातो भव (महता) अधिकेन (महिम्ना) महत्त्वेन (सहस्रपृष्ठः) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। पृषु सेचने-थक्। पृष्ठं शरीरस्य पश्चाद्भागः स्तोत्रं वा। सहस्राणि स्तोत्राणि यस्य सः परमेश्वरः (सुकृतस्य) सुकर्मणः (लोके) समाजे (पितामहाः) अ० ५।५।१। पितुः पितृतल्याः पितामहादयः (पितरः) पितृसदृशा माननीयाः (प्रजा) सन्तानः (उपजा) सन्तानस्य सन्तानः (अहम्) प्राणी (पक्ता) मनसि दृढकर्ता (पञ्चदशः) अ० ८।९।१५। संख्याऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये। पा० २।२।२५। इति पञ्चाधिका दश यत्र स पञ्चदशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। पञ्चदशन्-डच्। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यस्मिन् स जीवात्मा (ते) तव (अस्मि) ॥
विषय
ज्ञानरुचि सम्पन्न वंश
पदार्थ
१. हे ब्रह्मौदन-ज्ञान के भोजन! तू (महता महिम्ना) = अपनी महनीय महिमा से हमारे जीवन में (उरु: प्रथस्व) = खूब फैल। (सहस्त्रपृष्ठः) = [पृष्ठ सेचने] तू शतश: सुखों का सेचन करनेवाला हो। । हमें (सुकृतस्य लोके) = पुण्य के लोक में स्थापित कर । २. हमारे वंश में (पितामहा:) = दादा-परदादा आदि (पितर:) = हमारे रक्षक-सात पीढ़ियों के लोग तथा (प्रजा) = हमारे पुत्र (उपजा) = पुत्रों के पुत्र भी सात पीढ़ी तक तथा (पंचदशः अहम्) = इनके बीच में पन्द्रहवाँ मैं (ते पक्ता अस्मि) = हे ब्रह्मौदन! तेरा पकानेवाला हूँ, अर्थात् हमारे वंश में सभी ज्ञान की रुचिवाले हों।
भावार्थ
हमारे वंश में पूर्वज व अवरज सभी वंश में ज्ञान की रुचिवाले हों। यह ज्ञान हमारी महिमा का वर्धक होता है, शतशः सुखों का सेचक होता है तथा सुकृत के लोक में हमें स्थापित करता है।
भाषार्थ
हे ओदन ! (उरुः) मात्रा में महान तू (प्रथस्व) फैल, (सुकृतस्य लोके) मुझ सुकर्मी के गृह में (महता महिम्ना) निज महामहिमा के कारण तू (सहस्रपृष्ठः) हजारों अतिथियों का पृष्ठवत् आश्रय हुआ है। (पितरः) पितृवर्ग, (पितामहाः) पितामहवर्ग [तथा इन के पूर्वज ५] और [पितृवर्ग की] प्रजा अर्थात् पुत्र और (उपजा) पौत्र [तथा पौत्र के ५ अनुज वंशज], तथा (अहम्) मैं (पच्चदशः) १५ वां, (ते पक्ता अस्मि) तेरा पाक करने वाला हुआ हूं।
टिप्पणी
[वेद की भाषा कवितामय है। इसलिये ओदन का वर्णन भी कविता की भाषा में हुआ है। अतिथियज्ञ में बहुत से अतिथियों की सम्भावना से ओदन की मात्रा भी बड़ी होगी, इसे "उरु" शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया है। पके गर्म-ओदन को ठण्डा करने के लिये तथा ओदन के दानों को पृथक्-पृथक् करने के लिये उन्हें फैलाया जाता है। इस विधि की सूचना "प्रथस्व" शब्द द्वारा है। "सुकृतस्य लोके१" पदों द्वारा मन्त्र में परलोक का वर्णन नहीं, अपितु अतिथियज्ञ के करने वाले यजमान का गृह अभिप्रेत है। ओदन की यह निज महिमा है कि इसे जो व्यक्ति खाता है उस के जीवन का यह आश्रय बन जाता है। जैसे प्राणियों की पीठ प्राणियों का आश्रय होती है, क्योंकि पृष्ठ के पृष्ठवंश और तदगत सुषुम्णा-नाड़ी पर जीवन अश्रित होता है, इसी प्रकार अन्न, जीवन का आश्रय होता है। इस भावना को "सहस्रपृष्ठः" द्वारा सूचित किया है। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि जिस कुल की वांशिक १५ संख्या तक कुल परम्परा द्वारा, अतिथि सेवा अक्षुण्ण रूप में होती है वे बड़े सुकर्मी होते हैं। अतिथि सेवा, सामाजिक महासुकर्म है]। [१. सुकृतस्य लोके तथा पत्युलोंके-इन शब्दों से परलोक की भावना, सर्वथा सूचित नहीं। विवाह के पश्चात् पत्नी जब पति के घर जाती है, तब वह पतिलोक में विराजमान होती है। यथा “शिवा स्योना पति लोके विराज" (अथर्व० १४।१।६४), तथा "पतिलोकमाविश" (अथर्व० १४।२।४०)। इन उद्धरणों में पतिलोक का अभिप्राय परलोक नहीं, अपितु विवाहित और जीवित पति के गृह का है।]
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे राजन् ! तू (उरुः) सब से बड़ा होकर (महता महिम्ना) बड़े भारी ऐश्वर्य से (प्रथस्व) बढ़। तू (सुकृतस्य लोके) पुण्य के लोक में (सहस्रपृष्ठः) सहस्त्रों पीठों से युक्त, सहस्रों से बलवान्, सहस्रवीर्य है अर्थात् जैसे एक पीठ वाला एक बोझ उठाने में समर्थ है वैसे तू हज़ारों प्रकार के कार्य भार उठाने में समर्थ मानों हज़ारों पीठों वाला होकर विद्यमान है (पितामहाः) पितामह, दादा लोग, (पितरः) पिता लोग (प्रजाः) सन्तान और (उपजाः) सन्तानों की भी सन्तान हों और (अहम्) मैं (पक्ता) सब का परिपाक करने वाला स्वयं (पञ्चदशः) पन्द्रहवां अर्थात् वीर क्षत्रिय पन्द्रहवें स्तोम का भागी होकर (अस्मि) रहूं। ‘पञ्चदशः’—क्षत्रं पञ्चदशः। ऐ० ८। ४॥ तस्माद् राजन्यस्य पञ्चदशः स्तोमः। राज्य के १४ विभागों के ऊपर १५ वां राजा है।
टिप्पणी
(च०) ‘पाका’ इति बहुत्र, ‘पक्वा’ इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
O yajamana, noble support of thousands, with the preparation and offer of food for the divinities, rise and expand with greatness and glory in the field of holy work in the region of divine bliss. O Lord, presiding presence of Divinity, grandparents, parents, children, children’s children, we are fifteen, and I , preparing and offering the food for you.
Translation
Spread thyself broad, with great greatness, thousand-backed in the world of the well-done; grandfathers, fathers, progeny, descendants (upaja), I am thy fifteen-fold cooker.
Translation
O Man expand yourself in all your greatness with thousands of admirations in the world of meritorious deeds. Your expansion contains grandfathers, fathers, children, their desendants and you, the cook of the cereal of Yajna, be able to say “that I am the fifteenth of it.”
Translation
O God, worthy of a thousand eulogies, expand thyself abroad in all Thy greatness, in the world of virtue. Grandfathers, fathers, children, descendants depend upon thee. I, the soul, the master of fifteen forces, deeply worship Thee in the heart!
Footnote
पृष्ठं स्तोत्रं वा। सहस्राणि स्तोत्राणि यस्य सः परमेश्वर : Fifteen forces: Prána, Apana, Vyana, Udäna, Smana, Ear, Skin, Eye, Tongue, Nostril, Earth, Water, Fire, Air, Atmosphere.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(उरुः) विस्तीर्णः (प्रथस्व) प्रख्यातो भव (महता) अधिकेन (महिम्ना) महत्त्वेन (सहस्रपृष्ठः) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। पृषु सेचने-थक्। पृष्ठं शरीरस्य पश्चाद्भागः स्तोत्रं वा। सहस्राणि स्तोत्राणि यस्य सः परमेश्वरः (सुकृतस्य) सुकर्मणः (लोके) समाजे (पितामहाः) अ० ५।५।१। पितुः पितृतल्याः पितामहादयः (पितरः) पितृसदृशा माननीयाः (प्रजा) सन्तानः (उपजा) सन्तानस्य सन्तानः (अहम्) प्राणी (पक्ता) मनसि दृढकर्ता (पञ्चदशः) अ० ८।९।१५। संख्याऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये। पा० २।२।२५। इति पञ्चाधिका दश यत्र स पञ्चदशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। पञ्चदशन्-डच्। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यस्मिन् स जीवात्मा (ते) तव (अस्मि) ॥
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