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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 32
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    59

    बभ्रे॒ रक्षः॑ स॒मद॒मा व॑पै॒भ्योऽब्रा॑ह्मणा यत॒मे त्वो॑प॒सीदा॑न्। पु॑री॒षिणः॒ प्रथ॑मानाः पु॒रस्ता॑दार्षे॒यास्ते॒ मा रि॑षन्प्राशि॒तारः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब॒भ्रे । रक्ष॑: । स॒ऽमद॑म् । आ । व॒प॒ । ए॒भ्य॒: । अब्रा॑ह्मणा: । य॒त॒मे । त्वा॒ । उ॒प॒ऽसीदा॑न् । पु॒रीषिण॑: । प्रथ॑माना: । पु॒रस्तात् । आ॒र्षे॒या: । ते॒ । मा । रि॒ष॒न् । प्र॒ऽअ॒शि॒तार॑: ॥१.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बभ्रे रक्षः समदमा वपैभ्योऽब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान्। पुरीषिणः प्रथमानाः पुरस्तादार्षेयास्ते मा रिषन्प्राशितारः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बभ्रे । रक्ष: । सऽमदम् । आ । वप । एभ्य: । अब्राह्मणा: । यतमे । त्वा । उपऽसीदान् । पुरीषिण: । प्रथमाना: । पुरस्तात् । आर्षेया: । ते । मा । रिषन् । प्रऽअशितार: ॥१.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 32
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (बभ्रे) हे पोषक ! [अन्नरूप परमात्मन्] (रक्षः) विघ्न और (समदम्) लड़ाई (एभ्यः) उनके लिये (आ वपः) फैला दे, (यतमे) जो (अब्राह्मणाः) अब्राह्मण [अब्रह्मज्ञानी] (त्वा) तुझको (उपसीदान्) प्राप्त होवें। (पुरीषिणः) पूर्ति रखनेवाले, (पुरस्तात्) आगे-आगे (प्रथमानाः) फैलते हुए, (आर्षेयाः) ऋषियों में विख्यात (ते) तेरे (प्राशितारः) भोग करनेवाले पुरुष (मा रिषन्) न दुःखी होवें ॥३२॥

    भावार्थ

    जैसे कुपथ्यभोजी प्राणी रोगी हो जाते हैं, वैसे ही नास्तिक पाखण्डी लोग क्लेश पाते हैं और जैसे सुपथ्यभोजी तृप्त होकर बली होते हैं, वैसे ही ऋषि-मुनि परमात्मा की आज्ञा पालने में आनन्द पाते हैं ॥३२॥इस मन्त्र के पूर्वार्द्ध का मिलान पूर्वार्द्ध-म० २६ से और उत्तरार्द्ध-म० २५ से करो ॥

    टिप्पणी

    ३२−(बभ्रे) म० ३१। हे पोषक (रक्षः) रक्ष्यते यस्मात्। विघ्नम् (समदम्) सम्+अद भक्षणे-क्विप्। यद्वा सम्+मदी हर्षे-क्विप्, समो मलोपः समत्सु संग्रामनाम-निघ० २।१७। समदः समदो वात्तेः सम्मदो वा मदतेः-निरु० ९।१७। युद्धम् (आ वप) प्रक्षिप (एभ्यः) वक्ष्यमाणेभ्यः (अब्राह्मणः) अब्रह्मज्ञानिनः (पुरीषिणः) शृपॄभ्यां किच्च। उ० ४।२७। पॄ पालनपूरणयोः-ईषन्, कित्, णिनि। पुरीषमुदकनाम-निघ० १।१२। पुरीषं पृणातेः पूरयतेर्वा-निरु० २।२२। पूर्तियुक्ताः (प्रथमानाः) विस्तीर्यमाणाः (पुरस्तात्) अग्रे (आर्षेयाः) म० १६। ऋषिषु विख्याताः (ते) तव (मा रिषन्) मा हिंसन्ताम् (प्राशितारः) प्रकर्षेण भोक्तारः ॥

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    विषय

    ज्ञान से अभिमान-विनाश

    पदार्थ

    १. (बभ्रे) = हे पोषण करनेवाले ब्रह्मौदन [ज्ञान के भोजन] ! (यतमे) = जितने भी (अब्राह्मणाः) = ब्रह्म को न जाननेवाले अज्ञानी पुरुष (त्वा उपसीदान्) = तेरी उपासना करें, अर्थात् ज्ञान-प्रासि में प्रवृत्त हों, (एभ्यः) = इनके लिए तू (सः मदं रक्षः) = मद [अभिमान] से युक्त राक्षसी वृत्तियों को (आवप) = काटनेवाला बन। २. (ते प्राशितार:) = वे ब्रह्मौदन का अशन करनेवाले (मा रिषन्) = राक्षसी वृत्तियों से हिंसित न हों। ये (पुरीषिण:) = पालन व पूरण करनेवाले हों। (पुरस्तात् प्रथमाना:) = आगे और आगे शक्तियों का विस्तार करते हुए (आर्षेयाः) = [ऋषौ भवाः, ऋषिर्वेदः] वेदज्ञान में निवास करनेवाले हों।

    भावार्थ

    ज्ञान हमारे जीवन से अभिमानयुक्त सब राक्षसी वृत्तियों को दूर करे। इस ज्ञान को प्राप्त करनेवाले हम पालन व पूरण करनेवाले बनें, आगे और आगे शक्तियों को विस्तृत करते चलें तथा ज्ञान में ही निवास करनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (बभ्रे) हे भरण-पोषण करने वाले ! (रक्षः) हे सब की रक्षा करने वाले राजन्! (एभ्यः) इन के लिये भी (समदम्) सम्यक् अदनीय अन्न (आ वय) दे, (यतमे) जो कि (अब्राह्मणाः) ब्रह्मवेत्ताओं और वेदवेत्ताओं से भिन्न व्यक्ति (त्वा) तेरे (उप सीदान्) समीप आ बैठे, प्राशनार्थ उपस्थित हो जायं। तथा (ये) जो (पुरीषिणः) प्रजापालक, और (पुरस्तात्) आगे की ओर (प्रथमानाः) फैले हुए अर्थात् आगे की पंक्ति में फैल कर बैठे हैं, (ते प्राशितारः आर्षेयाः) वे प्राशन कर्त्ता ऋषि तथा ऋषि सन्तानें (मा रिषन्) कष्टभागी न हों।

    टिप्पणी

    [रक्षः=रक्षा करने वाला, न कि राक्षस। अथर्व० (१३।४(३)।२५) में परमेश्वर को "रक्षः" कहा है, जिस का "रक्षक" ही अर्थ उपपन्न होता है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि अन्नग्रहणार्थ यदि अब्राह्मण भी, ऋषि लोगों के साथ आ जायं, तो उन्हें भी सम्यक्-अदनीय अन्न देना चाहिये। जैसे कि कहा है कि " अथयस्याव्रात्यो व्रात्यब्रुवो नामबिभ्रत्यतिथिर्गृहानागच्छेत् ॥११।। कर्षेदेनं नचैनं कर्षेत् ॥१२।। अस्यै देवतायाउदकं याचामीमां देवतां वासय इमामिमां देवतां परि वेवेष्मीत्येनंपरि वेविष्यात् ॥१३।।तस्यामेवास्यतद्देवतायां हुतं भवति य एवं वेद ॥१४।। (अथर्व० १५।१३। ११-१४) इन की व्याख्या के लिये देखो अथर्ववेद भाष्य का यह प्रकरण। इन मन्त्रों द्वारा यह स्पष्ट है कि यदि अव्रात्य अतिथि भी अन्न ग्रहणार्थ आ उपस्थित हो, तो गृहस्थी इसे कष्ट न पहुंचाए। अपितु अतिथि सम्बन्धी "दैवत्यभाव" के अनुसार गृहस्थी, इस के साथ भी अतिथि का सा व्यवहार करे, परन्तु ऐसे की सेवा गृहस्थी स्वयं न करे, भृत्यों द्वारा उस की सेवा कराए। गृहस्थी के लिये वैदिक पञ्चमहायज्ञों में नानाविध प्राणियों को अन्नांश देने का विधान है, अतः वैदिक सद्-गृहस्थी अन्न के प्रशन में मनुष्य की उपेक्षा कैसे कर सकता है। प्राणियो को अन्नांश देने के सम्बन्ध में कहा है कि "शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि" (मनु० ३।९२)। तस्यां देवतायाम्=अतिथि में "दैवत्य" विद्यमान है, चाहे वह श्रोत्रिय (अथर्व० ९।६(३)।७) हो, या न हो, उस "दैवत्य" के लिये अश्रोत्रिय की भी सेवा करनी चाहिए। यथा "मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, अतिथि देवो भव" के अनुसार माता-पिता के श्रोत्रिय न होते हुए भी वे देव हैं, वैसे प्रत्येक अतिथि भी देव हैं। समदम्=सम्+अद् (भक्षणे)। अन्नम्=अद्+क्त। पुरीषिणः="पुरीषं पृणातेः पूरयते र्वा” (निरुक्त २।६।२२)]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (बभ्रे) प्रजा के धारण और पोषण कर्ता राजन् ! (यतमे) जो जो श्रेष्ठ (ब्राह्मणाः) ब्रह्मज्ञानी लोग (त्वा) तेरे समीप (उपसीदान्) आकर बैठें, तेरी शरण लें। (एभ्यः) इनके लिये (समदम् रक्षः) दुखदायी मदमत्त राक्षस को (आ वप) विनाश कर। (ते) तेरे जो (प्राशिताः) उपभोग करने वाले (पुरीषिणः) पुरवासी, पशु, धन, धान्य से समृद्ध, प्रजावान् (प्रथमानाः) सर्वत्र प्रसिद्ध और यशस्वी (पुरस्तात्) पूर्वोक्त या प्रारम्भ में (आर्षेयाः) ऋषियों के सन्तान एवं शिष्य हैं (मा रिंषन्) वे कभी क्लेश को प्राप्त न हो।

    टिप्पणी

    ‘रक्षः’ इति बभ्रे विशेषणम् सम्बोधनपदम् इति ह्विटनिः। ‘रक्षः-समदम्’ एत्येकं पदमिति सायणः। (द्वि०) ‘एभ्यः। अब्राह्मणाः। यतमे’। इति पदपाठः। स च न सुसंगतः। अस्य सूक्तस्य च षड्विंशतिनमस्यामृचि ‘सोमराजन्त्संज्ञानमावपैभ्यः सुब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान्’। इति पठ्यते पैप्पलाद संहितायामपि ‘बभ्रेरक्षः समदमावरैभ्यः सुब्राह्मणा यतमे’ इत्यादि षड्विंशतितममन्त्रवदेव पाठः। इति हेतोः ‘एभ्यः, अब्राह्मणाः, यतमे’, इति पदपाठो नादरणीयः। सायणने—(बभ्रे यतमे अब्राह्मणा त्वा उपासीदन् एभ्यः रक्षः समदमावपै) हे ब्रह्मौदन ! जितने अब्राह्मण = क्षत्रिय यदि तुझे प्राप्त हों उन पर राक्षस जाति के साथ मदन (हर्ष) अथवा कलह डाल। ऐसा अर्थ किया है। ह्विटनि के मत में—हे बभ्रे हे राक्षस के समान ! तू अब्राह्मणों पर घृणा फेंक। इत्यादि सब अर्थ असंगत हैं। यदि ‘अब्राह्मणाः’ पद ही स्वीकार करना हो तो उस चरण का सुसंगत अर्थ इस प्रकार जानना चाहिये। (यतमे अब्राह्मणाः त्वा उपसीदान्) जितने ब्राह्मण से अतिरिक्त प्रजाएं भी तेरे समीप तेरी शरण में आवें हे पालक रक्षक ! (एभ्यः समदं रक्षः आवप) उनके लिये भी मदमत्त राक्षसों को विनाश कर। प्रजा वै पशवः पुरीषम्। तै० सं० २। ६। ४। ३॥ अन्नं पुरीषम्। श० ८। १। ४। ५॥ रक्षिणः पुरीषम्। श० ८। ७। ४। १७॥ पुरीप्य इति वै तमाहुः यः श्रियं गच्छति। श० २। १। १। ७॥ यत्पुरीषं स इन्द्रः। श० १०। ४। १।७॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    O protector of yajna, rich in ghrta and grace, keep off the negative forces of arrogance opposed to lovers of divinity, whosoever they be around you. And see that those, who love positivity, bear and enjoy the food for yajna, rise and expand in knowledge and are dedicated to the sages close to you, never come to harm.

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    Translation

    O bearing one, (as) a wild-wicked demon, strew discord for them, for whatsoever non-Brahmans shall sit by thee; rich in ground spreading themselves forward, let not them of the seers, partakers of thee, suffer harm.

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    Translation

    O protector of Yajna, drives away the arrogant feeling from those wise-men who serve and protect you. The eaters, possessors of grain amongst you who are disseminating knowledge and are the masters of the Vedic speeches, may not be in trouble.

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    Translation

    O King, the nourisher of the subjects, destroy the troublesome fiends for the highly spiritually advanced persons who sit near thee. Let not thy dependents, the citizens, with their great possessions, the famous, and fore-most Rishis, children be injured!

    Footnote

    Sayāna's rendering is अब्रह्मणाः instead of ब्रह्मणा: meaning thereby Non-Brahmanas. There is no justification for this interpretation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३२−(बभ्रे) म० ३१। हे पोषक (रक्षः) रक्ष्यते यस्मात्। विघ्नम् (समदम्) सम्+अद भक्षणे-क्विप्। यद्वा सम्+मदी हर्षे-क्विप्, समो मलोपः समत्सु संग्रामनाम-निघ० २।१७। समदः समदो वात्तेः सम्मदो वा मदतेः-निरु० ९।१७। युद्धम् (आ वप) प्रक्षिप (एभ्यः) वक्ष्यमाणेभ्यः (अब्राह्मणः) अब्रह्मज्ञानिनः (पुरीषिणः) शृपॄभ्यां किच्च। उ० ४।२७। पॄ पालनपूरणयोः-ईषन्, कित्, णिनि। पुरीषमुदकनाम-निघ० १।१२। पुरीषं पृणातेः पूरयतेर्वा-निरु० २।२२। पूर्तियुक्ताः (प्रथमानाः) विस्तीर्यमाणाः (पुरस्तात्) अग्रे (आर्षेयाः) म० १६। ऋषिषु विख्याताः (ते) तव (मा रिषन्) मा हिंसन्ताम् (प्राशितारः) प्रकर्षेण भोक्तारः ॥

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