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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - अतिजागतगर्भा जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    56

    शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा ब्र॒ह्मणां॒ हस्ते॑षु प्रपृ॒थक् सा॑दयामि। यत्का॑म इ॒दम॑भिषि॒ञ्चामि॑ वो॒ऽहमिन्द्रो॑ म॒रुत्वा॒न्त्स द॑दादि॒दं मे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ध्दा: । पू॒ता: । यो॒षित॑: । य॒ज्ञिया॑: । इ॒मा: । ब्र॒ह्मणा॑म् । हस्ते॑षु । प्र॒ऽपृ॒थक् । सा॒द॒या॒मि॒ । यत्ऽका॑म: । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽसि॒ञ्चामि॑ । व॒: । अ॒हम् । इन्द्र॑: । म॒रुत्वा॑न् । स: । द॒दा॒त् । इ॒दम् । मे॒ ॥१.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक् सादयामि। यत्काम इदमभिषिञ्चामि वोऽहमिन्द्रो मरुत्वान्त्स ददादिदं मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुध्दा: । पूता: । योषित: । यज्ञिया: । इमा: । ब्रह्मणाम् । हस्तेषु । प्रऽपृथक् । सादयामि । यत्ऽकाम: । इदम् । अभिऽसिञ्चामि । व: । अहम् । इन्द्र: । मरुत्वान् । स: । ददात् । इदम् । मे ॥१.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुद्धाः) शुद्ध स्वभाववाली, (पूताः) पवित्र आचरणवाली, (यज्ञियाः) पूजनीय (इमाः) इन (योषितः) सेवायोग्य [प्रजाओं] को (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानियों के (हस्तेषु) हाथों में [विज्ञान के बलों में] (प्रपृथक्) नाना प्रकार से (सादयामि) मैं बिठलाता हूँ। [हे प्रजाओ !] (यत्कामः) जिस उत्तम कामनावाला (अहम्) मैं (इदम्) इस समय (वः) तुम्हारा (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ, (सः) वह (मरुत्वान्) दोषनाशक गुणोंवाला (इन्द्रः) संपूर्ण ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर (इदम्) वह वस्तु (मे) मुझे (ददात्) देवे ॥२७॥

    भावार्थ

    सब प्रजाएँ अर्थात् स्त्री-पुरुष महात्माओं के सत्सङ्ग से ईश्वरज्ञान द्वारा शुद्ध आचरण करके उन्नति करें ॥२७॥यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ० ६।१२२।५। और दूसरा, तीसरा पाद-अ० १०।६।२७ ॥

    टिप्पणी

    २७−(योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः प्रजाः (ददात्) लेटि रूपम्। ददातु (इदम्) काम्यमानं फलम्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ६।१२२।५ ॥

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    विषय

    'शुद्ध, पवित्र, यज्ञिय' युवतियाँ

    पदार्थ

    १. (इमा:) = ये (योषितः)=-स्त्रियों (शुद्धाः) = शुद्ध जीवनवाली, (पूताः) = पवित्र मानस भावनावाली व (यज्ञिया:) = यज्ञशीला हैं। इन्हें (ब्रह्मणाम्) = ज्ञानियों के (हस्तेषु) = हाथों में (पृथक्) = अलग-अलग (प्र सादयामि) = प्रकर्षेण बिठाता हूँ-स्थापित करता हूँ। एक का विवाह एक के ही साथ करता हूँ। एक युवति को एक युवक का ही जीवनसखा बनाता हूँ, २. (यत् काम:) = जिस कामनावाला होकर (अहम्) = मैं (व:) = तुम्हें (इदम् अभिषिञ्चामि) = इस अभिषेक क्रियावाला करता हूँ (सः मरुत्वान् इन्द्रः) = वह प्राणोंवाला-प्राणसाधना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष (मे इदं ददात्) = मेरे लिए इस कामना को देनेवाला हो। पिता पुत्री को गृहस्थ में इसीलिए अभिषिक्त करता है कि वह सन्तान को जन्म देनेवाली बने। यदि उसे जीवन-साथी [पति] प्राणशक्ति-सम्पन्न व जितेन्द्रिय प्राप्त होता है, तो वह अवश्य उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली बनती है।

    भावार्थ

    पिता अपनी कन्याओं को 'शुद्ध, पवित्र, यज्ञशील' बनाने का प्रयत्न करे। बड़ा होने पर उन्हें ज्ञानी पुरुषों के हाथों में अलग-अलग सौंपे। इनके पति प्राणसाधक व जितेन्द्रिय होते हुए उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (यज्ञियाः) यज्ञयोग्य, योषितः (शुद्धाः पूताः) स्त्रियों के सदृश शुद्ध और पवित्र (इमाः) इन जलों को (ब्रह्मणाम् हस्तेषु) ब्रह्मवेत्ताओं के हाथों में (प्र पृथक्) पृथक्-पृथक कर के (सादयामि) मैं स्थापित करता हुं। (यत्कामः) जिस कामना वाला (अहम्) मैं (इदम्) इस समय (वः) तुम्हें (अभिषिञ्चामि) सींचता हूं, (सः मरुत्वान् इन्द्रः) वह मरुतों का स्वामी इन्द्र अर्थात् परमेश्वर (इदम्) यह काम्यफल (मे) मुझे (ददात्) देवे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २५,२६ में ब्राह्मभोज हो चुकने का निर्देश हुआ है। मन्त्र २७ में शुद्ध जल द्वारा ब्रह्मवेत्ताओं के हाथ धोने के लिये जल डाला गया हैं, और मनुष्यजाति के स्वामी ऐश्वर्यवान् परमेश्वर से, अतिथियज्ञ करने के फलरूप में, काम्याभिलाषा की पूर्ति के लिये, प्रार्थना की गई है। मरुत्वन=म्रियते मारयति वा स मरुत, मनुष्यजातिः (उणा० १।९४) महर्षि दयानन्द। इन्द्रः=इदि परमैश्वर्ये]। [१. मन्त्र द्वारा यह भी सूचित होता है कि शुद्ध, पूत और यज्ञिय अर्थात् पूजा योग्य स्त्रियों का ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ पुरुषों के साथ, विवाह होना चाहिये। "प्र पृथक" द्वारा यह सूचित किया है कि प्रत्येक ब्रह्मज्ञ की एक पत्नी, तथा प्रत्येक पत्नी का एक पति होना चाहिये। "हस्तेषु" पद "पाणिग्रहण" विधि का सूचक है। "मरुत्वान्, इन्द्रः" का अभिप्राय, इस अर्थ में “मनुष्यों का स्वामी राजा" है।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (इमाः) ये (यज्ञियाः) यज्ञ के कर्म में विराजने योग्य (शुद्धाः पूताः) शुद्ध पवित्र (योषितः) स्त्रियां हैं, इनको (ब्रह्मणां) ब्रह्मज्ञानी विद्वान् ब्राह्मणों के (हस्तेषु) हाथों में (पृथक् प्र सादयामि) पृथक् पृथक् प्रदान करता हूं। (अहम्) मैं गृहपति (यत्कामः) जिस अभिलाषा से (वः) आप विद्वान् पुरुषों को (इदम्) इस प्रकार (अभिषिञ्चामि) अभिषेक करता, पूजा प्रतिष्ठा करता हूं (इदं) उस मनोरथ को (सः) वह (मरुत्वान्) देवों का स्वामी मरुत् सब के जीवनाधार प्राणों का स्वामी (इन्द्रः) परमेश्वर (मे ददात्) मुझे प्रदान करे। राजपक्ष में—(इमा यज्ञियाः शुद्धः पूताः योषितः) ये राष्ट्र यज्ञ में विराजने योग्य शुद्ध पवित्र प्रजाएं हैं। इनको विद्वान् ब्राह्मणों के हाथ सौंपता हूं। (यत्काम०) जिस कामना से हे विद्वान् पुरुषो ! मैं आपको अधिकार पदों पर स्थापित करता हूं, वह परमेश्वर मुझे मेरे मनोरथ पूर्ण करे। इस मन्त्र की व्याख्या देखो [ अथर्व० ६। १२२। ५॥ ]

    टिप्पणी

    (च०) ‘स ददातु तन्मे’ इति अथर्व० ६। १२५। ५॥ (प्र०) ‘अपो देवीघृतश्चुतो’ (च०) ‘तस्मे सर्व सम्पद्यताम् वयं स्याम् पतयो रयीनाम्’ इति अ० १०। ९। २७॥ (प्र०) ‘इयमापो मधुग्तीर्घृतश्चुतो ततो ब्रह्मणां’ (तृ०) ‘यत्कामेदं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    These young maidens, virgins pure, sanctified through the discipline of education, adorable like sacred waters of yajna, I assign unto the hands of Brahma- graduates, one for one singly. Whatever desire and purpose of life I entertain, consecrate and expect of you, may Indra, ruler of the vibrant nation, fulfil for me. (This mantra refers to the sacred institution of marriage for the fulfilment of a holy social purpose, the married girl being prepared as the first lady of the home and family order in Grhastha Ashrama yajna. Swami Dayananda writes in Satyartha Prakasha that teachers can play — not that they do and must — an important role in the young people’s selection of their life partner since they know their nature, character, interests and behaviour from personal contact during the disciples’ stay in the homely institute of education in their respective Gurukuls. The mantra may also be interpreted as a divine dispensation so far as the institution of marriage is concerned.)

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    Translation

    These cleansed purified worshipful maidens I seat in separate - succession in the hands of the priests (brahman); with what desire I now pour you on, may resplendent Indra here with the Maruts (cloud bearing wind) grant me that.

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    Translation

    I, the performer of Yajna seat these pious, righteous, morally pure ladies separately (On the vedi of Yajna) under the control of learned priests. May the almighty divinity grant me that desirous for which I appoint you, O learned priests.

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    Translation

    I place in the hands of spiritually advanced persons, in diverse ways, these good-natured well-behaved, venerable, serviceable subjects. May God, the Averter of sin, grant me the blessing which as I anoint you, my heart desireth.

    Footnote

    Sprinkle you: Initiate you as my subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः प्रजाः (ददात्) लेटि रूपम्। ददातु (इदम्) काम्यमानं फलम्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ६।१२२।५ ॥

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