अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
85
अ॒भ्याव॑र्तस्व प॒शुभिः॑ स॒हैनां॑ प्र॒त्यङे॑नां दे॒वता॑भिः स॒हैधि॑। मा त्वा॒ प्राप॑च्छ॒पथो॒ माभि॑चा॒रः स्वे क्षेत्रे॑ अनमी॒वा वि रा॑ज ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽआव॑र्तस्व । प॒शुऽभि॑: । स॒ह । ए॒ना॒म् । प्र॒त्यङ् । ए॒ना॒म् । दे॒वता॑भि: । स॒ह । ए॒धि॒ । मा । त्वा॒ । प्र । आ॒प॒त् । श॒पथ॑: । मा । अ॒भि॒ऽचा॒र: । स्वे । क्षेत्रे॑ । अ॒न॒मी॒वा । वि । रा॒ज॒ ॥१.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यावर्तस्व पशुभिः सहैनां प्रत्यङेनां देवताभिः सहैधि। मा त्वा प्रापच्छपथो माभिचारः स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽआवर्तस्व । पशुऽभि: । सह । एनाम् । प्रत्यङ् । एनाम् । देवताभि: । सह । एधि । मा । त्वा । प्र । आपत् । शपथ: । मा । अभिऽचार: । स्वे । क्षेत्रे । अनमीवा । वि । राज ॥१.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे जीव !] (पशुभिः सह) सब दृष्टिवाले प्राणियों के साथ [मिलकर] (एनाम्) इस [प्रजा अर्थात् आत्मा] की ओर (अभ्यावर्तस्व) आकर घूम, (देवताभिः सह) जय की इच्छाओं के साथ (एनाम्) इस [प्रजा अपने आत्मा] की ओर (प्रत्यङ्) आगे बढ़ता हुआ तू (एधि) वर्तमान हो। [हे प्रजा !] (त्वा) तुझको (मा) न तो (शपथः) शाप (प्र आपत्) प्राप्त होवे और (मा) न (अभिचारः) विरुद्ध आचरण, (स्वे) अपने (क्षेत्रे) खेत [अधिकार] में (अनमीवा) नीरोग होकर (वि) विविध प्रकार (राज) राज्य कर ॥२२॥
भावार्थ
जो मनुष्य सब प्राणियों को अपने आत्मा से मिलाकर उन्नति करता जाता है, वह विजयी होकर पूरा आधिपत्य पाता है और धर्मात्मा होने के कारण उसको दुष्ट जन वाचिक और कायिक क्लेश नहीं दे सकते ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(अभ्यावर्तस्व) अभिलक्ष्य वर्तनं कुरु (पशुभिः) अ० १।३०।३। पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। द्रष्टृभिः प्राणिभिः (सह) (एनाम्) प्रजाम् (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चन्, आभिमुख्येन गच्छन् (एनाम्) (देवताभिः) विजिगीषाभिः (सह) (एधि) भव। वर्तस्व (मा प्रापत्) मा प्राप्नोतु (त्वा) (शपथः) शापः (मा) निषेधे (अभिचारः) विरुद्धाचारः (स्वे) स्वकीये (क्षेत्रे) अधिकारे (अनमीवा) रोगरहिता सती (वि) विविधम् (राज) शासनं कुरु ॥
विषय
अनमीवा [विराज]
पदार्थ
१. हे ब्रह्मौदन [ज्ञान के भोजन]! (एनाम्) = इस गृहपत्नी को (पशुभिः सह अभ्यावर्तस्व) = गौ आदि पशुओं के साथ प्रास हो। यह गृहिणी गौ आदि का पालन भी करे और स्वाध्याय भी अवश्य करे तथा (एनाम्) = इसे (देवताभिः सह) = यष्टव्य देवों के साथ (प्रत्यङ् एधि) = तू आभिमुख्येन जाता हुआ हो, अर्थात् यह देवयज्ञ आदि यज्ञों को भी करे और ज्ञान के भोजन का परिपाक भी करे-यह स्वाध्यायशील भी हो। २. इस स्थिति में (त्वा) = तुझे (शपथः मा प्रापत्) = आक्रोश मत प्राप्त हो-तू अपशब्द बोलनेवाली न हो, तेरे लिए कोई अपशब्द न कहे। तुझे (अभिचारः मा) = हिंसार्थ की जानेवाली क्रियाएँ भी प्राप्त न हों। तू किसी की हिंसा के लिए कोई कर्म न कर । (स्वे क्षेत्रे) = अपने इस घर में व शरीर में (अनमीवा विराज) = रोगरहित हुई-हुई दीत जीवनवाली बन।
भावार्थ
गृहपली स्वाध्याय को न छोड़ती हुई गौ आदि पशुओं की सेवा करे-देवयज्ञादि यज्ञों को करनेवाली हो, कभी अपशब्द कहनेवाली व हिंसाकर्म में प्रवृत्त न हो। इसप्रकार घर में नीरोग व दीप्त जीवनवाली बने।
भाषार्थ
(पशुभिः, सह, एनाम् अभि) पशु सम्पत्ति के साथ वर्तमान हे राजन तू इस प्रजा के अभिमुख (आवर्तस्व) आया कर, (प्रत्यङ् एनाम्) इसके प्रति आता हुआ तू (देवताभिः सह) देवताओं के साथ (एधि) हुआ कर। हे राष्ट्रिय प्रजा ! (त्वा) तुझे (शपथः) निन्दा, दोष, कलङ्क (मा प्रापत) न प्राप्त हो, (मा) न (अथिचारः) शत्रुकृत मारणकर्म प्राप्त हो। (स्वेक्षेत्रे) अपने निवास स्थान में (अनमीवा) रोग रहित हुई (विराज) तू विराजमान हो।
टिप्पणी
[क्षेत्रे=क्षि निवासे; अपनी निवास भूमि अर्थात् राष्ट्र में। राष्ट्र को क्षेत्र कहा है पशुओं के सहचार के कारण। राजा के प्रति कहा है कि (१) तू प्रजा के प्रति आया कर। (२) साथ देवकोटि के व्यक्तियों को भी लाया कर, जिस से देवों का सङ्ग पा कर प्रजा भी दिव्य विचारों तथा दिव्याचारों वाली हो जाय, इस प्रकार प्रजा निन्दा दोष तथा कलंक का पात्र न बने। राजा जब यज्ञक्रिया करने वाला होगा (मन्त्र २१) तो प्रजा भी यज्ञोन्मुखी हो जायेगी। इस से राष्ट्र रोग रहित होगा, और प्रजा अपने राष्ट्र में सुखपूर्वक निवास करेगी। शपथः= शप आक्रोशे। आक्रोशः= Censure, blame, reviling (आप्टे)]।
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
गृहस्थ पक्ष में—(एनाम्) इस पत्नी के पास (पशुभिः सह) पशुओं की सम्पदाओं के साथ (अभि आवार्त्तस्व) प्राप्त हो अर्थात् पशुओं के पालन सहित गृहस्थ को पाल। गृहस्थ में गाय भैंस खूब हों। और (देवताभिः) दिव्यगुण, देवस्वभाव वाले विद्वान् पुरुषों के सहित (एनाम्) इस पत्नी को (प्रत्यङ्) साक्षात् (एधि) प्राप्त हो। इसके साथ साथ विद्वानों का सत्संग कर। (त्वा शपथः) तुझे दूसरे की की निन्दाएं (मा प्रापत्) प्राप्त न हों और (अभिवारः मा प्रापत्) दूसरे के आक्रमण भी तुझ पर न हों। तू (स्वे क्षेत्रे) अपने क्षेत्ररूप पत्नी ही में (अनमीवा) रोग रहित सुखी होकर (विराज) विराजमान रह। राजा के पक्ष में—हे राजन् ! (पशुभिः सह एनाम् अभ्यावर्त्तस्व) पशु सम्पत्ति सहित इस पृथ्वी को पालन कर। (देवताभिः सह एनां प्रत्यङ् एधि) विद्वान् देवतुल्य पुरुषों सहित इसको स्वतः प्राप्त हो। (शपथः मा, अभिचारः त्वा मा प्रापत्) लोक निन्दाएं और शत्रु के गुप्त आक्रमण तुझ तक न पहुंच पावें। तू (स्वे क्षेत्रे अनमीवाः विराज) अपने राष्ट्र के अहाते में नीरोग और विना क्लेश के विराजमान रह। प्राचीन साहित्य में पृथ्वी को भी राजा की पत्नी के समान जानने के व्यापक भाव के यही मूल मन्त्र हैं। इसी आधार पर विवाह काल में पत्नी को प्राप्त करने के लिये भी वर को राजा के साज करने पड़ते हैं। और पत्नी क्षेत्र है, पर क्षेत्र में भोग करने से रोग और कलह, लोक, निन्दा बढ़ती है। इत्यादि बात भी वेद ने स्पष्ट कर दी है।
टिप्पणी
‘सहैनान् प्रत्त्यङेनन्’ इति सायणाभिमतः पाठः। (प्र०) ‘प्रजयासर्हेनाम्’, (तृ० च०) स्वर्गो लोकमभिसंनिहीनामादित्यो देव परमेव्योम [ ? ] इति पैप्प० सं०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
गृहस्थ पक्ष में—(एनाम्) इस पत्नी के पास (पशुभिः सह) पशुओं की सम्पदाओं के साथ (अभि आवार्त्तस्व) प्राप्त हो अर्थात् पशुओं के पालन सहित गृहस्थ को पाल। गृहस्थ में गाय भैंस खूब हों। और (देवताभिः) दिव्यगुण, देवस्वभाव वाले विद्वान् पुरुषों के सहित (एनाम्) इस पत्नी को (प्रत्यङ्) साक्षात् (एधि) प्राप्त हो। इसके साथ साथ विद्वानों का सत्संग कर। (त्वा शपथः) तुझे दूसरे की की निन्दाएं (मा प्रापत्) प्राप्त न हों और (अभिवारः मा प्रापत्) दूसरे के आक्रमण भी तुझ पर न हों। तू (स्वे क्षेत्रे) अपने क्षेत्ररूप पत्नी ही में (अनमीवा) रोग रहित सुखी होकर (विराज) विराजमान रह। राजा के पक्ष में—हे राजन् ! (पशुभिः सह एनाम् अभ्यावर्त्तस्व) पशु सम्पत्ति सहित इस पृथ्वी को पालन कर। (देवताभिः सह एनां प्रत्यङ् एधि) विद्वान् देवतुल्य पुरुषों सहित इसको स्वतः प्राप्त हो। (शपथः मा, अभिचारः त्वा मा प्रापत्) लोक निन्दाएं और शत्रु के गुप्त आक्रमण तुझ तक न पहुंच पावें। तू (स्वे क्षेत्रे अनमीवाः विराज) अपने राष्ट्र के अहाते में नीरोग और विना क्लेश के विराजमान रह। प्राचीन साहित्य में पृथ्वी को भी राजा की पत्नी के समान जानने के व्यापक भाव के यही मूल मन्त्र हैं। इसी आधार पर विवाह काल में पत्नी को प्राप्त करने के लिये भी वर को राजा के साज करने पड़ते हैं। और पत्नी क्षेत्र है, पर क्षेत्र में भोग करने से रोग और कलह, लोक, निन्दा बढ़ती है। इत्यादि बात भी वेद ने स्पष्ट कर दी है।
टिप्पणी
‘सहैनान् प्रत्त्यङेनन्’ इति सायणाभिमतः पाठः। (प्र०) ‘प्रजयासर्हेनाम्’, (तृ० च०) स्वर्गो लोकमभिसंनिहीनामादित्यो देव परमेव्योम [ ? ] इति पैप्प० सं०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
Turn and meet this people with wealth. Come with divinities and be with them. Let no ordeal of imprecation touch you. Let no sabotage injure and afflict you. Rule and shine in your own dominion free from affliction and ailment.
Translation
Tum thou toward her together with cattle; be opposite to her together with the: divinities; let not curse attain thee, nor wicked craft (abhicara) bear rule (vi-raj) in thine own field (ksetra), free from disease.
Translation
O performer of Yajna, You find this earth enriched with the multitude of cattles, walk forward on it with all the earned men and with all the virtues. Let not curse and abusive words of people come to you. There be no injury to you from others and you live in your land free from disease,
Translation
O King, rear this earth with cattle. Acquire it with learned, godly persons. Let not people's calumny and the enemy's hidden attack reach thee. In thine own country shine forth free from sickness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(अभ्यावर्तस्व) अभिलक्ष्य वर्तनं कुरु (पशुभिः) अ० १।३०।३। पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। द्रष्टृभिः प्राणिभिः (सह) (एनाम्) प्रजाम् (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चन्, आभिमुख्येन गच्छन् (एनाम्) (देवताभिः) विजिगीषाभिः (सह) (एधि) भव। वर्तस्व (मा प्रापत्) मा प्राप्नोतु (त्वा) (शपथः) शापः (मा) निषेधे (अभिचारः) विरुद्धाचारः (स्वे) स्वकीये (क्षेत्रे) अधिकारे (अनमीवा) रोगरहिता सती (वि) विविधम् (राज) शासनं कुरु ॥
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