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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    70

    शृ॒तं त्वा॑ ह॒व्यमुप॑ सीदन्तु दै॒वा निः॒सृप्या॒ग्नेः पुन॑रेना॒न्प्र सी॑द। सोमे॑न पू॒तो ज॒ठरे॑ सीद ब्र॒ह्मणा॑मार्षे॒यास्ते॒ मा रि॑षन्प्राशि॒तारः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ॒तम् । त्वा॒ । ह॒व्यम् । उप॑ । सी॒द॒न्तु॒ । दै॒वा: । नि॒:ऽसृप्य॑ । अ॒ग्ने: । पुन॑: । ए॒ना॒न् । प्र । सी॒द॒ । सोमे॑न । पू॒त: । ज॒ठरे॑ । सी॒द॒ । ब्र॒ह्मणा॑म् । आ॒र्षे॒या: । ते॒ । मा । रि॒ष॒न् । प्र॒ऽअ॒शि॒तार॑: ॥१.२५


    स्वर रहित मन्त्र

    शृतं त्वा हव्यमुप सीदन्तु दैवा निःसृप्याग्नेः पुनरेनान्प्र सीद। सोमेन पूतो जठरे सीद ब्रह्मणामार्षेयास्ते मा रिषन्प्राशितारः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृतम् । त्वा । हव्यम् । उप । सीदन्तु । दैवा: । नि:ऽसृप्य । अग्ने: । पुन: । एनान् । प्र । सीद । सोमेन । पूत: । जठरे । सीद । ब्रह्मणाम् । आर्षेया: । ते । मा । रिषन् । प्रऽअशितार: ॥१.२५

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ओदन] (दैवाः) उत्तम गुणवाले पुरुष (शृतम्) परिपक्व, (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य (त्वा उप) तेरे समीप (सीदन्तु) बैठें, (अग्नेः) अग्नि से (निःसृप्य) निकलकर (पुनः) अवश्य (एनाम्) इन [पुरुषों] को (प्रसीद) प्रसन्न कर। (सोमेन) अमृत रस से (पूतः) शोधा हुआ तू (ब्रह्मणाम्) ब्राह्मणों [ब्रह्मज्ञानियों] के (जठरे) पेट में (सीद) बैठ, (ते) तेरे (प्राशितारः) भोग करनेवाले (आर्षेयाः) ऋषियों में विख्यात पुरुष (मा रिषन्) न दुःखी होवें ॥२५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि तप से परमात्मा को अपने हृदय में दृढ़ करके बैठालते हैं, वे क्लेशों से छूटकर आनन्द भोगते हैं, जैसे मनुष्य परिपक्व उत्तम अन्न को अग्नि पर से उतार कर परोसते और भोजन करके भूख से निवृत्त होकर तृप्त होते हैं ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(शृतम्) श्रा पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। परिपक्वम् (त्वा) त्वाम्। ओदनम् (हव्यम्) ग्राह्यत (उप सीदन्तु) समीपे तिष्ठन्तु (दैवाः) दिव्यगुणाः पुरुषाः (निः सृप्य) निर्गत्य (अपि) सम्भावनायाम् (अग्नेः) पावकात् (पुनः) अवश्यम् (एनान्) उपसत्तॄन् (प्र सीद) प्रसन्नान् कुरु। संतोषय (सोमेन) अमृतरसेन (पूतः) शोधितः (जठरे) उदरे (सीद) उपविश (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानिनाम् (आर्षेयाः) म० १६। ऋषिषु विख्याताः (ते) तव (मा रिषन्) मा विनश्यन्तु (प्राशितारः) प्रकर्षेण भोक्तारः ॥

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    विषय

    आर्षेय पुरुषों का अहिंसन

    पदार्थ

    परिपक्व ज्ञान प्राप्त होता है। हे ब्रह्मौदन ! तू (अग्नेः) = उस अग्नणी प्रभु से (निःसृप्य) = निकलकर (पुन:) = फिर (एनान्) = इन उपासकों को (प्रसीद) = प्राप्त हो। प्रभु के उपासक हृदयस्थ प्रभु से ज्ञान प्राप्त करते हैं। २. (सोमेन) = शरीर में सुरक्षित सोमशक्ति द्वारा (पूत:) = पवित्र हुआ-हुआ, हे ब्रह्मौदन! तू (ब्रह्मणाम्) = इन जानियों के (जठरे) = जठर में-इनके अन्दर (सीद) = आसीन हो। शरीर में सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और दीस ज्ञानाग्नि में ज्ञान पवित्र हो जाता है। (ते प्राशितार:) = वे ब्रह्मौदन को खानेवाले (आर्षेया:) = [ऋषिः वेदः, तस्य इमे] ज्ञान के उपासक लोग (मा रिषन्) = हिसित न हों।

    भावार्थ

    प्रभु के उपासक परिपक्व ज्ञान को प्राप्त करते हैं-इन्हें अन्त:स्थ प्रभु से ज्ञान प्रास होने लगता है। शरीर में सुरक्षित सोम से ज्ञान की पवित्रता होती है। ब्रह्मौदन को खानेवाले ये ज्ञानभक्त पुरुष वासनाओं से हिंसित नहीं होते।

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    भाषार्थ

    हे ओदन ! (शृतम्) पके हुए, (हव्यम्) आहुतियोग्य तथा अदनीय (त्वा उप) तेरे समीप (देवाः) अतिथिदेव (सीदन्तु) बैठें, (अग्नेः) अग्नि से (निः सृप्य) हट कर (पुनः) तदनन्तर (एनान्) इन अतिथि देवों को (प्रसीद) प्रसन्न कर। (सोमेन) दुग्ध-दधि द्वारा (पूतः) पवित्र किया गया तू (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मवेत्ताओं के (जठरे) पेट में (सीद) स्थित हो, (प्राशितार) प्राशन करने वाली (ते आर्षेयाः) वे ऋषि सन्तानें (मा रिषन्) ताकि दुःख-कष्ट अनुभव न करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २४ में पक्व ब्रह्मौदन को, बलिवैश्वदेव के लिये, वेदि पर संचित करने का विधान हुआ है। मन्त्र २५ में ब्रह्मौदन को वेदि की अग्नि से पृथक् करने का विधान किया है, ताकि ब्रह्मज्ञ अतिथि देव उस का प्राशन कर सकें। सोमेन=सोम का अर्थ दूध भी होता है। यथा "सोमो दुग्धाभिरक्षाः" (ऋ० ९।१०७।९), तथा "सोमो दुग्धाभ्यः क्षरति" निरुक्त (५।१।३), अर्थात् दुही गई गौओं से सोम अर्थात् दूध क्षरित होता है तथा "सोमः खलु वै सांनाय्यम्" (तैत्ति० ब्राह्मण ३।२।३।११), अर्थात् सोम है सांन्नाय्य, क्षीरदधिरूप। अतः ब्रह्मवेत्ता अतिथियों को दूध-दधि के साथ ओदन देना चाहिये। ओदन के प्राशन से अतिथियों की भूख शान्त हो जाती है,अतः भूख के कारण हुए दुःख-कष्ट का अनुभव वे नहीं करते]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    भात के पक्ष में—(त्वा) तुझ (शृतम्) पके हुए (हव्यम्) हविरूप अन्न को (देवाः) देव, विद्वान् गण (उप सीदन्तु) प्राप्त हों। तू (अग्नेः निः सृप्य) अग्नि से निकल कर (पुनः, एनान् प्रसीद) फिर इन देवगण को प्रसन्न कर। तू (सोमेन) सोम रूप घी, दूध आदि से (पूतः) पवित्र होकर (ब्रह्मणां जठरे सीद) ब्राह्मणों, विद्वानों के पेट में प्रविष्ट हो। (ते आर्षेयाः) वे ऋषितुल्य, ऋषि सन्तान विद्वान् (प्राशितारः) खाने वाले (मा रिषन्) कभी पीड़ित न हों। राजपक्ष में—(हव्यम्) पूजनीय (शृतम्) परिपक्व (त्वा) हे राजन् तुझको (देवाः) देव तुल्य, विद्वान्गण (उप सीदन्तु) प्राप्त हों तू (अग्नेः) अग्नि तुल्य आचार्य के समीप से या उसके सदृश तेज से (निः सृप्य) निकल कर (पुनः) फिर (एनान्) इनको (प्रसीद) प्रसन्न कर, तू (सोमेन पूतः) सोम रूप राष्ट्र से पवित्र होकर (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानी वेद के विद्वानों के (जठरे) गर्भ में, उनकी रक्षा में (सीद) रह। (ते) वे (आर्षेयाः) ऋषियों के सन्तान तेरा (प्राशितारः) भोग करने वाले, तेरी शक्ति का लाभ उठाने वाले (मा रिषन्) कभी दुष्टों से पीड़ित न हों। ब्रह्मोदन के प्रति दृष्टान्त से राजा के कर्त्तव्यों का उपदेश किया गया है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘श्रुतं त्वाहविः’ (द्वि०) ‘अनुसृत्याग्ने पुनरेनं प्रसृण्यः’ (तृ० च०) ‘ब्राह्मणा आश्रया’ ‘मार्षम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    O yajnic food for the fire and the participants, well prepared and seasoned in delicious form, may the priests and participants of divine interests come and sit by you. Please them, seasoned and sanctified as you are with soma. Satisfy their appetite and see that the sagely receivers do not experience any want or dissatisfaction.

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    Translation

    Let them of the gods sit by thee, a cooked (srta) oblation; having crept out of the fire, sit thou forward again to them; purified by soma, sit thou in the belly of the worshipers; let not them of the seers, partakers (prasitar) of thee, suffer harm.

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    Translation

    The learned men give this cooked cereal of Homa to fire and this in turn makes happy to them. This mixed and purified with juice of herbs finds its place in bellies of wise-men and the wise eaters of this do not develop any trouble.

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    Translation

    O God, may noble persons sit near Thee, Perfect, Adorable Resplendent with lustre lend them joy. Pure in Thy Immortal elegance, reside in the bosom of seekers after Thee. May not Thy worshippers, renowned amongst the sages, be injured!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(शृतम्) श्रा पाके-क्त। शृतं पाके। पा० ६।१।२७। इति शृभावः। परिपक्वम् (त्वा) त्वाम्। ओदनम् (हव्यम्) ग्राह्यत (उप सीदन्तु) समीपे तिष्ठन्तु (दैवाः) दिव्यगुणाः पुरुषाः (निः सृप्य) निर्गत्य (अपि) सम्भावनायाम् (अग्नेः) पावकात् (पुनः) अवश्यम् (एनान्) उपसत्तॄन् (प्र सीद) प्रसन्नान् कुरु। संतोषय (सोमेन) अमृतरसेन (पूतः) शोधितः (जठरे) उदरे (सीद) उपविश (ब्रह्मणाम्) ब्रह्मज्ञानिनाम् (आर्षेयाः) म० १६। ऋषिषु विख्याताः (ते) तव (मा रिषन्) मा विनश्यन्तु (प्राशितारः) प्रकर्षेण भोक्तारः ॥

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