अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
52
श्राम्य॑तः॒ पच॑तो विद्धि सुन्व॒तः पन्थां॑ स्व॒र्गमधि॑ रोहयैनम्। येन॒ रोहा॒त्पर॑मा॒पद्य॒ यद्वय॑ उत्त॒मं नाकं॑ पर॒मं व्योम ॥
स्वर सहित पद पाठश्राम्य॑त: । पच॑त: । वि॒ध्दि॒ । सु॒न्व॒त: । पन्था॑म् । स्व॒:ऽगम् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒न॒म् । येन॑ । रोहा॑त् । पर॑म् । आ॒ऽपद्य॑ । यत् । वय॑: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥१.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
श्राम्यतः पचतो विद्धि सुन्वतः पन्थां स्वर्गमधि रोहयैनम्। येन रोहात्परमापद्य यद्वय उत्तमं नाकं परमं व्योम ॥
स्वर रहित पद पाठश्राम्यत: । पचत: । विध्दि । सुन्वत: । पन्थाम् । स्व:ऽगम् । अधि । रोहय । एनम् । येन । रोहात् । परम् । आऽपद्य । यत् । वय: । उत्ऽतमम् । नाकम् । परमम् । विऽओम ॥१.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे ईश्वर !] (श्राम्यतः) श्रमी [ब्रह्मचारी आदि तपस्वी] का, (पचतः) पक्का करनेवाले [दृढ़ निश्चय करनेवाले], (सुन्वतः) तत्त्व निचोड़नेवाले [विज्ञानी पुरुष] का (विद्धि) तू ज्ञान कर और (स्वर्गम्) सुख पहुँचानेवाले (पन्थाम्) मार्ग में (एनम्) इस [जीव] को (अधि) ऊपर (रोहय) चढ़ा, (येन) जिस [मार्ग] से वह [जीव] (यत्) जो (परम्) बड़ा उच्च (वयः) जीवन है, [उसको] (आपद्य) पाकर (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) सुखस्वरूप (परमम्) सर्वोत्कृष्ट (व्योम) विविध रक्षक [परब्रह्म ओ३म्] को (रोहात्) ऊँचा होकर पावे ॥३०॥
भावार्थ
जो मनुष्य तपस्वी, दृढ़विश्वासी और विवेकी होकर अपना जीवन सुधारते हैं, वे ही सर्वरक्षक, [ओ३म्] परमात्मा को पाते अर्थात् उसकी आज्ञा पालकर संसार का सुधार करते हैं ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(श्राम्यतः) श्रमु तपसि खेदे च-शतृ। शमामष्टानां दीर्घः श्यनि। पा० ७।३।७४। इति दीर्घः। तप्यमानस्य ब्रह्मचारिणः (पचतः) डुपचष् पाके-शतृ। परिपक्वस्य। दृढनिश्चयस्य (विद्धि) ज्ञानं कुरु (सुन्वतः) षुञ् पीडने-शतृ। तत्त्वस्य पीडनं मन्थनं कुर्वतः पुरुषस्य (पन्थाम्) मार्गम् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (अधि) उपरि (रोहय) आरोहय, स्थापय (एनम्) जीवम् (येन) पथा (रोहात्) रोहेत्। अधितिष्ठेत् (परम्) उच्चम् (आपद्य) प्राप्य (यत्) (वयः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, यद्वा वय गतौ-असुन्। वयः=अन्नम्-निघ० २।७। जीवनम् (उत्तमम्) (नाकम्) सुखस्वरूपम् (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (व्योम) वि+अव-मनिन्। व्योमन्-व्यवने-निरु० ११।४०। विविधं रक्षकम्, ओ३म्, इति संज्ञकं परब्रह्म ॥
विषय
'श्राम्यन, पचन, सुन्वन्'
पदार्थ
१. ब्रह्मचर्याश्रम में (श्राम्यत:) = ज्ञान-प्राप्ति में श्रम करते हुए, (पचत:) = ज्ञानाग्नि में अपना परिपाक करते हुए, (सुन्वत:) = शरीर में (सोम) = [वीर्य]-शक्ति का अभिषव करते हुए इन युवकों को (विद्धि) = जान-इनका रक्षण कर। गत मन्त्र के तुषों से ये भिन्न हैं। इन्होंने ही तो राष्ट्रगृह का उत्तम सदस्य बनना है। इनका जितना ध्यान रखा जाए उतना ही ठीक है। हे प्रभो! आप (एनम्) = इस 'श्राम्यन, पचन्, सुन्वन्' पुरुष को (स्वर्ग पन्थाम्) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले मार्ग पर अधिरोहय अधिरूढ़ कीजिए, २. (येन) = जिससे यह (यत् परं वयः आपद्य) = जो उत्कृष्ट जीवन है, उसे प्राप्त करके (उत्तमं नाकम्) = उत्कृष्ट सुखमय स्थिति को (रोहात्) = आरूढ़ हो तथा (परमं व्योम) = सर्वोत्कृष्ट व्योम [आकाशवत् व्यापक] प्रभु को प्राप्त करे [ओम् खं ब्रह्म]।
भावार्थ
हम श्रमशील, ज्ञानानि में अपने को परिपक्व करनेवाले व सोम का सम्पादन करनेवाले बनें। प्रकाश व सुख के मार्ग पर आरूढ़ हों। उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करके स्वर्ग तुल्य इस जीवन को बिताने के बाद प्रभु को प्राप्त करें-मुक्त हो जाएँ।
भाषार्थ
(श्राम्यतः) परिश्रम करने वाले, (पचतः) अतिथि सेवा के लिये ओदन पकाने वाले, (सुन्वतः) दूध का स्रावण करने वाले को–हे परमेश्वर (विद्धि) तू जान, (एनम्) इसे (स्वर्गम्) सुख विशेष प्राप्त कराने वाले (पन्थाम्) मार्ग पर (रोहय) अधिरूढ़ कर, (येन) जिस मार्ग से कि (यत् परम्) जो उत्कृष्ट (वयः) जीवन है उस को (आ पद्य) प्राप्त कर, (उत्तमम्) सर्वोत्तम (परमम्) परमसम्पत्ति रूप (नाकम्) तथा दुःख के स्पर्श से रहित (व्योम) विशेषतया रक्षक परमेश्वर तक (रोहात्) यह रोहण करे।
टिप्पणी
[सुन्वतः=यद्यपि यह पद सोम-ओषधि के रस को निकाल कर उस की आहुति और उस के पीने के निमित्त किये गए यज्ञ का सूचक है, परन्तु प्रकरणानुसार यहां "सुन्वतः" का अभिप्राय है अतिथियों के लिये गौ से सोम अर्थात् दूध का स्रावण करना (मन्त्र २५,२६)। रोहात्=परमेश्वर की प्राप्ति के लिये यद्यपि रोहण की आवश्यता नहीं, परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है, परन्तु यह दर्शाने के लिये कि यज्ञकर्त्ता उस परमेश्वर को प्राप्त हो, जोकि आदित्य में स्थित हुआ सौरमण्डल का नियन्त्रण, आदित्यरूप केन्द्रिय-शक्ति द्वारा कर रहा है -"रोहात्" शब्द पठित है। यथा 'योऽसा वादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं बह्म" (यजु० ४०।१७)। परमम्=पर+मा (लक्ष्मी)]।
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
(श्राम्यतः) श्रम से, तप साधना करने हार (पचतः) ज्ञान और आचार का परिपाक करने वाले और (सुन्वतः) ज्ञान का शिष्यों को सम्पादन कराते हुए विद्वानों को हे राजन् (त्वं विद्धि) तू भली प्रकार जान। हे ईश्वर (स्वर्गं पन्थाम् एनम् अधिरोहय) स्वर्ग, सुखकारी मार्ग पर उस को चढ़ा। (येन) जिससे (परम्) परम श्रेष्ठ (वयः) आयु १०० वर्ष के जीवन को (आपद्य) प्राप्त होकर (उत्तमम्) सब से उत्कृष्ट (यत्) जो (नाकम्) सुखमय, दुःख से रहित (परमम्) परम (व्योम) रक्षास्थान, मोक्षधाम है उसको (रोहात्) प्राप्त हो।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘रोहयैनान्’ इति सायणाभिमतः पाठः। ‘स्वर्ग लोकमधिरोहयैनम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
O Lord, know that who toils to produce, who cooks and serves, and that who distils the essence. Raise him on the path that leads to paradisal bliss so that, having realised the best of life, he may rise to the highest state of bliss and the divine presence of Brahma.
Translation
Know thou the toiling, cooking, soma-pressing one; make him to ascend the heaven-going road, by which he may ascend, arriving at the vigor that is beyond, to the highest firmament, to the furthest vault (param vyomany).
Translation
O learned man! Please know those men who do great labor, who look the cereal etc and who crush herbaceous plants for performing Yajnas. Make this Yajmana tread the path of happiness and through which attaining long life he rise to the highest ascedency of loftist status above all that is the state of salvation.
Translation
O King, know the austere, highly learned preceptor, who imparts knowledge to the pupils! O God, make this man climb the path that leads to godliness. May he, enjoying the full life of a hundred years, reach the highest stage of salvation, entirely free from suffering.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(श्राम्यतः) श्रमु तपसि खेदे च-शतृ। शमामष्टानां दीर्घः श्यनि। पा० ७।३।७४। इति दीर्घः। तप्यमानस्य ब्रह्मचारिणः (पचतः) डुपचष् पाके-शतृ। परिपक्वस्य। दृढनिश्चयस्य (विद्धि) ज्ञानं कुरु (सुन्वतः) षुञ् पीडने-शतृ। तत्त्वस्य पीडनं मन्थनं कुर्वतः पुरुषस्य (पन्थाम्) मार्गम् (स्वर्गम्) सुखप्रापकम् (अधि) उपरि (रोहय) आरोहय, स्थापय (एनम्) जीवम् (येन) पथा (रोहात्) रोहेत्। अधितिष्ठेत् (परम्) उच्चम् (आपद्य) प्राप्य (यत्) (वयः) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, यद्वा वय गतौ-असुन्। वयः=अन्नम्-निघ० २।७। जीवनम् (उत्तमम्) (नाकम्) सुखस्वरूपम् (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (व्योम) वि+अव-मनिन्। व्योमन्-व्यवने-निरु० ११।४०। विविधं रक्षकम्, ओ३म्, इति संज्ञकं परब्रह्म ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal