Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - पुरोविराट्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    45

    स॒माचि॑नुष्वानुस॒म्प्रया॒ह्यग्ने॑ प॒थः क॑ल्पय देव॒याना॑न्। ए॒तैः सु॑कृ॒तैरनु॑ गच्छेम य॒ज्ञं नाके॒ तिष्ठ॑न्त॒मधि॑ स॒प्तर॑श्मौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽआचि॑नुष्व । अ॒नु॒ऽसं॒प्रया॑हि । अ॒ग्ने॒ । प॒थ: । क॒ल्प॒य॒ । दे॒व॒ऽयाना॑न् । ए॒तै: । सु॒ऽकृ॒तै: । अनु॑ । ग॒च्छे॒म॒ । य॒ज्ञम् । नाके॑ । तिष्ठ॑न्तम् । अधि॑ । स॒प्तऽर॑श्मौ ॥१.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समाचिनुष्वानुसम्प्रयाह्यग्ने पथः कल्पय देवयानान्। एतैः सुकृतैरनु गच्छेम यज्ञं नाके तिष्ठन्तमधि सप्तरश्मौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽआचिनुष्व । अनुऽसंप्रयाहि । अग्ने । पथ: । कल्पय । देवऽयानान् । एतै: । सुऽकृतै: । अनु । गच्छेम । यज्ञम् । नाके । तिष्ठन्तम् । अधि । सप्तऽरश्मौ ॥१.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (देवयानान्) देवताओं [विजय चाहनेवालों] के चलने योग्य (पथः) मार्गों को (समाचिनुष्व) चौरस करके ठीक-ठीक सुधार, [उन पर] (अनु संप्रयाहि) निरन्तर यथाविधि आगे बढ़, [और उन्हें दूसरों के लिये] (कल्पय) बना। (एतैः) इन (सुकृतैः) सुन्दर [विचार से] बनाये हुए [मार्गों] द्वारा (सप्तरश्मौ) सात किरणोंवाले (नाके) [लोकों वा प्रकाश आदि के चलानेवाले] सूर्य पर (अधि) राजा होकर (तिष्ठन्तम्) ठहरे हुए (यज्ञम्) पूजनीय [परमात्मा] को (अनु) निरन्तर (गच्छेम) पावें ॥३६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वे वेदद्वारा विचारपूर्वक अपना आचरण ऐसा धार्मिक बनावें, जिसके अनुकरण से सब मनुष्य सूर्य आदि के प्रकाशक परमात्मा को प्राप्त होकर शुभ गुणों से प्रकाशमान होवें। सूर्य की किरणों में शुल्क, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र, ये सात वर्ण हैं ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(समाचिनुष्व) चिञ् चयने-लोट्। समाभावेन समन्ताद् रचनं कुरु (अनु संप्रयाहि) निरन्तरं सम्यक् प्रकर्षेण गच्छ (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (पथः) मार्गान् (कल्पय) विरचय (देवयानान्) विजिगीषुभिर्गन्तव्यान् (एतैः) पूर्वोक्तैः (सुकृतैः) सुनिर्मितैः पथिभिः (अनु) निरन्तरम् (गच्छेम) प्राप्नुयाम (यज्ञम्) पूजनीयं परमात्मानम् (नाके) अ० १।९।२। पिनाकादयश्च। उ० ४।१५। णीञ् प्रापणे आकप्रत्ययः, टिलोपः। नाक आदित्यो भवति नेता रसानां नेता भासां ज्योतिषां प्रणयः-निरु० २।१४। लोकानां प्रकाशादीनां वा नेतरि सूर्ये। यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी। पा० २।३।९। इति कर्मप्रवचनीययुक्ते सप्तमी (तिष्ठन्तम्) विद्यमानम् (अधि) अधिरीश्वरे। पा० १।४।९९। इति ईश्वरार्थे कर्मप्रवचनीयत्वम्। ईश्वरो भूत्वा (सप्तरश्मौ) अ० ६।५।१५। शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्मिन् तस्मिन् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मलोक-प्राप्ति

    पदार्थ

    १.हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (सम् आचिनुष्व) = तु सब ओर से ज्ञान का संचय कर और (अनु सं प्रयाहि) = उस ज्ञान के अनुसार सम्यक गतिवाला हो। अपने जीवन में (देवयानान् पथ: कल्पय) = देवयान मागों का निर्माण कर-उन मार्गों से चल, जिनपर देव चला करते हैं। २. यह ज्ञान संचेता जीव प्रार्थना करता है कि (एतैः सुकृतैः) = इन उत्तम कर्मों से हम (अधि सप्तरश्मौ) = सूर्य से भी ऊपर (नाके) = दुःख से अर्सभिन्न आनन्दमय स्वरूप में (तिष्ठन्तम्) = स्थित होते हुए (यज्ञम्) = उस (उपासनीय) = संगतिकरणयोग्य व समर्पणीय प्रभु को (अनुगच्छेम) = प्राप्त हों। ('सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो हाव्ययात्मा')

    भावार्थ

    हम ज्ञान का सञ्चय करें, ज्ञान के अनुसार कर्मों को करनेवाले बनें। देवयान मागों पर चलें। इन पुण्यकर्मों के द्वारा 'पृथिवीलोक से ऊपर अन्तरिक्ष को, अन्तरिक्ष से ऊपर युलोक को तथा धुलोक से ऊपर उठकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करें।'

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणीराजन् ! (समाचिनुष्व) सत्कर्मों का संग्रह तू किया कर, (अनु सं प्रयाहि) और इन कर्मों के अनुकूल सम्यक्तया चला कर (देवयानान्) देवकोटि के लोग जिन मार्गों पर चलते हैं (पथः) उन मार्गों को [प्रजा के लिये] (कल्पय) विधिपूर्वक निश्चित कर (ए सुकृतैः) इन सुकर्मों द्वारा (नाके तिष्ठन्तम्) दुःख के स्पर्श से रहित आनन्दमय स्वरूप में सदास्थित, और (सप्तरश्मौ अधि) सात रश्मियों वाले सूर्य में अधिष्ठातृरूप में स्थित, (यज्ञम्१) यजनीय-संगतियोग्य तथा आत्मसर्मपण योग्य परमेश्वर को (अनुगच्छेम) तदनन्तर हम प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [राजा जब सत्कर्मों का संचय करेगा और सत्कर्मों के अनुकूल चल कर देवयान-पथों का अवलम्ब करेगा, तो प्रजाजन भी तदनुरूप सत्कर्मी हो जायंगे, "यथा राजा तथा प्रजा"। इन सत्कर्मों के द्वारा परमेश्वर को पा सकेंगे। यज्ञम् = यज देवपूजा संगतिकरण दानेषु। नाके; कम= सुखम्; अकम् = सुखाभाव + दुःख नाकम्= न+ अकम् = सुखाभाव अर्थात् दुःख के स्पर्श से रहित। सप्तरश्मी वर्षाकाल में इन्द्रधनुष में सूर्य की सातरश्मियां प्रकट होती हैं। इस सूर्य में परमेश्वर अधिष्ठातृरूप में स्थित है, "योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म" (यजु० ४०।१७)]। [१. यजुर्वेद (३१।९) में "यज्ञ पुरुष" द्वारा परमेश्वर-पुरुष को "यज्ञम्" कहा है। महर्षि दयानन्द इस का अर्थ करते हैं, "सम्यक पूजने योग्य परमात्मा को"। इस प्रकार परमेश्वर को "यज्ञ कहते हैं।"]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) राजन् ! (सम् आ चिनुष्व) सब राष्ट्र के वासियों को या सैनिक वर्गों को संगठित, सुव्यवस्थित कर। (अनु-संप्रयाहि) और फिर जिन पर आक्रमण करना हो उन पर आक्रमण कर। (देवयानान् पथः कल्पय) देवों, विद्वानों और शासकों के लिये चलने योग्य मार्गों उनके कर्तव्यों का निर्माण कर। (एतैः) इन (सुकृतैः) उत्तम कार्यों से (सप्तरश्मौ नाके तिष्ठन्तम्) सप्तरश्मि, सात ज्योतियों से युक्त नाक = स्वर्गमय स्थान में विराजमान (यज्ञम्) यज्ञरूप प्रजापति या राष्ट्रपति को हम (अनु गच्छेम) अनुगमन करें। अथवा सप्तरश्मि सात प्राणों से युक्त आनन्दमय स्थान मूर्धा में विराजमान (यज्ञम्) आत्मा को जिस प्रकार योगी प्राप्त होते हैं उसी प्रकार सात विद्वान् अमात्यों से युक्त राजा को हम प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘समातनुष्व’ (तृ०) ‘येभिः सुकृतैरनु प्रष्ठं’ [ षं ] ‘सं यज्ञे० ' इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    O Agni, leading light of humanity, create and prepare pioneering paths of life worthy of divine souls, leading to Divinity. Move together by them and collect a tally of noble deeds. By these noble acts, let us rise and reach the adorable lord of yajna abiding in the state of the sevenfold rainbow beauty of light and divine bliss.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Gather thou together unto, go thou together forth after, O Agni, make ready (kalpaya) the roads travelled by the gods; by them well-made, may we go after the offering, that stands upon the seven-rayed firmament.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O learned men, arrange and perform Yajnas, follow this action deliberately and expand and maintain the paths of persons of wisdom. By these excellent acts we may follow the performance of Yajna which carries the substance of oblations to the sun having seven rays and stationed in the sky.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O King, organise the soldiers, and then attack those who deserve to be attacked. Define the code of conduct for the learned and the officials! With these noble deeds, let us follow the king, seated in a comfortable place in the midst of seven ministers of his.

    Footnote

    Just as a Yogi controlling the seven breaths realizes the soul, so the king rightly directing his ministers should efficiently administer his state.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(समाचिनुष्व) चिञ् चयने-लोट्। समाभावेन समन्ताद् रचनं कुरु (अनु संप्रयाहि) निरन्तरं सम्यक् प्रकर्षेण गच्छ (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (पथः) मार्गान् (कल्पय) विरचय (देवयानान्) विजिगीषुभिर्गन्तव्यान् (एतैः) पूर्वोक्तैः (सुकृतैः) सुनिर्मितैः पथिभिः (अनु) निरन्तरम् (गच्छेम) प्राप्नुयाम (यज्ञम्) पूजनीयं परमात्मानम् (नाके) अ० १।९।२। पिनाकादयश्च। उ० ४।१५। णीञ् प्रापणे आकप्रत्ययः, टिलोपः। नाक आदित्यो भवति नेता रसानां नेता भासां ज्योतिषां प्रणयः-निरु० २।१४। लोकानां प्रकाशादीनां वा नेतरि सूर्ये। यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी। पा० २।३।९। इति कर्मप्रवचनीययुक्ते सप्तमी (तिष्ठन्तम्) विद्यमानम् (अधि) अधिरीश्वरे। पा० १।४।९९। इति ईश्वरार्थे कर्मप्रवचनीयत्वम्। ईश्वरो भूत्वा (सप्तरश्मौ) अ० ६।५।१५। शुक्लनीलपीतादिवर्णाः सप्तकिरणाः सन्ति यस्मिन् तस्मिन् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top