अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
57
इ॒दं मे॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ हिर॑ण्यं प॒क्वं क्षेत्रा॑त्काम॒दुघा॑ म ए॒षा। इ॒दं धनं॒ नि द॑धे ब्राह्म॒णेषु॑ कृ॒ण्वे पन्थां॑ पि॒तृषु॒ यः स्व॒र्गः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । मे॒ । ज्योति॑: । अ॒मृत॑म् । हिर॑ण्यम् । प॒क्वम् । क्षेत्रा॑त् । का॒म॒ऽदुघा॑ । मे॒ । ए॒षा । इ॒दम् । धन॑म् । नि । द॒धे॒ । ब्रा॒ह्म॒णेषु॑ । कृ॒ण्वे । पन्था॑म् । पि॒तृषु॑ । य: । स्व॒:ऽग: ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं मे ज्योतिरमृतं हिरण्यं पक्वं क्षेत्रात्कामदुघा म एषा। इदं धनं नि दधे ब्राह्मणेषु कृण्वे पन्थां पितृषु यः स्वर्गः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । मे । ज्योति: । अमृतम् । हिरण्यम् । पक्वम् । क्षेत्रात् । कामऽदुघा । मे । एषा । इदम् । धनम् । नि । दधे । ब्राह्मणेषु । कृण्वे । पन्थाम् । पितृषु । य: । स्व:ऽग: ॥१.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) यह (मे) मेरा (ज्योतिः) चमकता हुआ (अमृतम्) मृत्यु से बचानेवाला (हिरण्यम्) सुवर्ण, (क्षेत्रात्) खेत से [लाया गया] (पक्वम्) पका हुआ [अन्न], और (एषा) यह (मे) मेरी (कामदुघा) कामना पूरी करनेवाली [कामधेनु गौ] है। (इदम्) इस (धनम्) धन को (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मज्ञानों में [वेदप्रचार व्यवहारों में] (नि दधे) मैं धरता हूँ, और (पन्थाम्) मार्ग को (कृण्वे) मैं बनाता हूँ, (यः) जो (पितृषु) पालन करनेवाले [विज्ञानियों] के बीच (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला है ॥२८॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपना सर्वस्व परमेश्वर को समर्पण करके सत्यज्ञान द्वारा संसार का उपकार करते हैं, वे विद्वानों के बीच कीर्ति पाते हैं ॥२८॥
टिप्पणी
२८−(इदम्) उपस्थितम् (मे) मम (ज्योतिः) दीप्यमानम् (अमृतम्) नास्ति मृतं मरणं यस्मात् तत् (हिरण्यम्) सुवर्णम् (पक्वम्) परिणतमन्नम् (क्षेत्रात्) सस्यप्रदेशात् (कामदुघा) अ० ४।३४।८। कामनां दोग्ध्री प्रपूरयित्री। कामधेनुर्गौः (मे) मम (एषा) (इदम्) (धनम्) (नि दधे) स्थापयामि (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मज्ञानप्रचारेषु (कृण्वे) करोमि (पन्थाम्) पन्थानम्। मार्गम्। (पितृषु) पालकेषु विज्ञानिषु (यः) पन्थाः (स्वर्गः) सुखस्य गमयिता प्रापकः ॥
विषय
स्वर्ग: पन्थाः
पदार्थ
१. (इदं) = मे (ज्योति:) = यह मेरा ज्ञान का प्रकाश है, अर्थात् मैं ज्ञान से जीवन को ज्योतिर्मय करने के लिए यत्नशील होता है। (अमृतम्) = यह नीरोगता है, (हिरण्यम्) = यह शरीर में सुरक्षित हितरमणीय वीर्यशक्ति है। (क्षेत्रात् पक्वम्) = खेतों में जिसका परिपाक हुआ है, वह वानस्पतिक भोज्य पदार्थ है। (मे) = मेरी (एषा) = यह (कामदुघा) = खूब ही दूध देनेवाली गौ है। २. (इदं धनम्) = इस धन को (ब्राह्मणेषु निदधे) = मैं ज्ञानियों में स्थापित करता हूँ, अर्थात् ज्ञानियों के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराता हुआ 'अतिथियज्ञ' करता हूँ। मैं (पितृषु पन्थां कृण्वे) = पितरों में अपने मार्ग को बनाता है, अर्थात् मैं भी पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त होता हूँ। यह मार्ग वह है (यः) = जोकि (स्वर्ग:) = सुख व प्रकाश की ओर जानेवाला है।
भावार्थ
स्वर्ग का मार्ग यह है कि [क] हम ज्ञान का संचय करें, [ख] नीरोग बनें, [ग] वीर्यरक्षण करनेवाले हों [घ] वानस्पतिक भोजन करें, [ङ] घर में कामदुमा धेनु रक्खें, [च] ज्ञानियों को लोकहित के कार्यों के लिए धन दें, [छ] पालनात्मक प्रवृत्तिवाले बनें।
भाषार्थ
(क्षेत्रात् पक्वम्) कृषिकर्म द्वारा खेत से पका हुआ (इदम्) यह ओदनान्न (मे) मेरी (ज्योतिः) ज्योति रूप है, (अमृतम्) मरने से बचाने वाला है, (हिरण्यम्) सुवर्णरूप है, (मे) मेरी (एषा) यह (कामदुघा) कामनाओं का दोहन करने वाली गौ है। (इदम् धनम्) इस पक्वौदन रूपी धन को (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवेत्ताओं में (निदधे) निधिरूप में मैं स्थापित करता हूं, इसे (पितृषु) पितरों में जाने का (पन्थाम्) मार्ग (कृण्वे) मैं बनाता हूं, (यः) जो यह मार्ग (स्वर्गः) विशिष्ट सुख प्राप्त कराता है, स्वर्गरूप है।
टिप्पणी
[मन्त्र २७,२८ में अतिथियज्ञ के कर्त्ता राजा की उक्तियां हैं। राजा अन्न को, निज तथा सब प्राणियों के लिये जीवनीय ज्योति, क्षुधाजन्यमृत्यु से बचाने वाला, तथा बहुमूल्य हिरण्य और कामदुधा गौ मानता है। अन्न वस्तुतः एतद्रूप है। कागजी तथा धातवीय सिक्के अन्न के लिये ही हैं। ब्राह्मण हैं ब्रह्म अर्थात् वेदों के वक्ता तथा ब्रह्मज्ञ अर्थात् परमेश्वर के ज्ञाता। ऐसे व्यक्ति मनुष्य-समाज के लिये आदर्शरूप हैं। इन्हें अन्न द्वारा सत्कृत करना मानो इन में निधि स्थापित करना है, जो कि वस्तुतः राष्ट्र के या पृथिवीमात्र के लिये बहु उत्पादिका है। पितृषु पन्थाम्=इन राष्ट्रिय भावनाओं के प्रसङ्ग में "पितृषु" के दो अभिप्राय हैं। (१) वैदिक-समाज के गृहस्थ माता-पिता जो कि पञ्चमहायज्ञों के करने वाले हैं, इन महायज्ञों में अतिथि यज्ञ भी महायज्ञ है। राजा इस महायज्ञ द्वारा इन जीवित पितरों में जाने-आने का निज मार्ग बनाता है। (२) "पितरः" पद द्वारा राष्ट्रिय सभा-समिति और संसद के सभासद्, सामित्य तथा सांसद्य भी पितरः हैं। यथा "सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः सङ्गतेषु" (अथर्व० ७।१२।१) में "पितरः संगतेषु" द्वारा राष्ट्र के नेतृरूप अधिकारियों को पितरः कहा है। राजा अतिथियज्ञ करके इन पितरों में जाने का निजमार्ग बनाता है, क्योंकि वैदिकाज्ञानुसार ये पितर भी पञ्चमहायज्ञों के करने वाले हैं। यह मार्ग स्वर्गरूप है, स्वः (विशिष्ट सुख) कागः (मार्ग) है, विशिष्ट सुख प्राप्त कराने वाला है]।
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
(इदं हिरण्यम्) यह मनोहर सुवर्ण (अमृतं ज्योतिः) अमृत स्वरूप तेज (क्षेत्रात्) मेरे राष्ट्र रूप क्षेत्र से (पक्वम्) सुपक्व रूप में (मे) मुझे प्राप्त हुआ है। (एषा) यह पृथ्वी (मे कामदुधा) मेरे समस्त कामनाओं, अभिलाषाओं को पूर्ण करने हारी है। (इदं धनम्) यह धन मैं (ब्राह्मणेषु निदधे) ब्राह्मणों में रखता हूं उनको प्रदान करता हूं। और (पितृषु) पितृजनों में (यः स्वर्गः पन्थाः) जो सुख को प्राप्त कराने वाला मार्ग है उसको (कृण्वे) मैं भी पालन करता हूं। गृहस्थपक्ष में—(क्षेत्रात् पक्वं) खेत में पके धान के समान मेरे क्षेत्र स्त्री से परिपक्व गर्भ रूप में प्राप्त (इदम्) यह (हिरण्यम्) सुवर्ण के समान सुन्दर (अमृतम्) अमृत अन्न के समान मधुर, अमर, चेतन (ज्योतिः) पुत्र रूप तेज (मे) मुझे प्राप्त हुआ है। (एषा मे कामदुधा) यह स्त्री मेरी समस्त अभिलाषाओं को पूरा करती है। (इदं धनं ब्राह्मणेषु निदधे) इस धन को ब्राह्मणों को प्रदान करता हूं। (पितृषु यः स्वर्गः पन्थाः कृण्वे) मेरे परिपालक गुरु, पिता, पितामह आदि के अधीन जो मरा सुख प्राप्त कराने वाला मार्ग, सन्मार्ग, धर्माचरण है उसको मैं पालन करता हूं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘हिरण्ययं’ (च०) ‘यत्स्वर्गेः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
(इदं हिरण्यम्) यह मनोहर सुवर्ण (अमृतं ज्योतिः) अमृत स्वरूप तेज (क्षेत्रात्) मेरे राष्ट्र रूप क्षेत्र से (पक्वम्) सुपक्व रूप में (मे) मुझे प्राप्त हुआ है। (एषा) यह पृथ्वी (मे कामदुधा) मेरे समस्त कामनाओं, अभिलाषाओं को पूर्ण करने हारी है। (इदं धनम्) यह धन मैं (ब्राह्मणेषु निदधे) ब्राह्मणों में रखता हूं उनको प्रदान करता हूं। और (पितृषु) पितृजनों में (यः स्वर्गः पन्थाः) जो सुख को प्राप्त कराने वाला मार्ग है उसको (कृण्वे) मैं भी पालन करता हूं। गृहस्थपक्ष में—(क्षेत्रात् पक्वं) खेत में पके धान के समान मेरे क्षेत्र स्त्री से परिपक्व गर्भ रूप में प्राप्त (इदम्) यह (हिरण्यम्) सुवर्ण के समान सुन्दर (अमृतम्) अमृत अन्न के समान मधुर, अमर, चेतन (ज्योतिः) पुत्र रूप तेज (मे) मुझे प्राप्त हुआ है। (एषा मे कामदुधा) यह स्त्री मेरी समस्त अभिलाषाओं को पूरा करती है। (इदं धनं ब्राह्मणेषु निदधे) इस धन को ब्राह्मणों को प्रदान करता हूं। (पितृषु यः स्वर्गः पन्थाः कृण्वे) मेरे परिपालक गुरु, पिता, पितामह आदि के अधीन जो मरा सुख प्राप्त कराने वाला मार्ग, सन्मार्ग, धर्माचरण है उसको मैं पालन करता हूं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘हिरण्ययं’ (च०) ‘यत्स्वर्गेः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
This is my light immortal, gold in reality culled and matured from the field of existence, the food of life which, like the mother cow, fulfils my desire and purpose of living. This is the wealth I assign and entrust to the Brahmanas, dedicated to knowledge and enlightenment. Thus do I create the paradisal path among the pitaras, parental sustainers of the people, and the life around. (The mantra may also be interpreted literally in relation to food production and maintenance of the intellectuals who preserve and advance knowledge.)
Translation
This my light (jyotir) immortal gold, cooked (pakva) from the field, this my desire milker; this riches I deposit in the Brahmans; I make a road to the Fathers: (pitr-yana) that is heaven-going.
Translation
Here is my shining (medically) immortal, gold, here is my ripened grain from the field and here is this my cow which fulfill all desires. All this wealth of mine I surrender to the learned men and make that path which gives happiness among the persons of profession and practice.
Translation
This ripened grain from the field is my immortal, brilliant wealth. This Earth is the fulfiller of all my ambitions. I spend this wealth for propagating the Vedas, and thus prepare the path that lends joy to the learned.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(इदम्) उपस्थितम् (मे) मम (ज्योतिः) दीप्यमानम् (अमृतम्) नास्ति मृतं मरणं यस्मात् तत् (हिरण्यम्) सुवर्णम् (पक्वम्) परिणतमन्नम् (क्षेत्रात्) सस्यप्रदेशात् (कामदुघा) अ० ४।३४।८। कामनां दोग्ध्री प्रपूरयित्री। कामधेनुर्गौः (मे) मम (एषा) (इदम्) (धनम्) (नि दधे) स्थापयामि (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मज्ञानप्रचारेषु (कृण्वे) करोमि (पन्थाम्) पन्थानम्। मार्गम्। (पितृषु) पालकेषु विज्ञानिषु (यः) पन्थाः (स्वर्गः) सुखस्य गमयिता प्रापकः ॥
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