अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - शक्वरातिजागतगर्भा जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
76
ए॒तौ ग्रावा॑णौ स॒युजा॑ युङ्ग्धि॒ चर्म॑णि॒ निर्भि॑न्ध्यं॒शून्यज॑मानाय सा॒धु। अ॒व॒घ्न॒ती नि ज॑हि॒ य इ॒मां पृ॑त॒न्यव॑ ऊ॒र्ध्वं प्र॒जामु॑द्भर॒न्त्युदू॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तौ । ग्रावा॑णौ । स॒ऽयुजा॑ । यु॒ङ्ग्धि॒ । चर्म॑णि । नि: । भि॒न्धि॒ । अं॒शून् । यज॑मानाय । सा॒धु । अ॒व॒ऽघ्न॒ती । नि । ज॒हि॒ । ये । इ॒माम् । पृ॒त॒न्यव: । ऊ॒र्ध्वम् । प्र॒ऽजाम् । उ॒त्ऽभर॑न्ती । उत् । ऊ॒ह ॥१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
एतौ ग्रावाणौ सयुजा युङ्ग्धि चर्मणि निर्भिन्ध्यंशून्यजमानाय साधु। अवघ्नती नि जहि य इमां पृतन्यव ऊर्ध्वं प्रजामुद्भरन्त्युदूह ॥
स्वर रहित पद पाठएतौ । ग्रावाणौ । सऽयुजा । युङ्ग्धि । चर्मणि । नि: । भिन्धि । अंशून् । यजमानाय । साधु । अवऽघ्नती । नि । जहि । ये । इमाम् । पृतन्यव: । ऊर्ध्वम् । प्रऽजाम् । उत्ऽभरन्ती । उत् । ऊह ॥१.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे सेना !] (एतौ) इन दोनों (सयुजा) आपस में मिले हुए (ग्रावाणौ) सिलबट्टों को (चर्मणि) विज्ञान में [होकर] (युङ्ग्धि) मिला और (यजमानाय) यजमान [श्रेष्ठ कर्म करनेवाले] के लिये (अंशून्) कणों को (साधु) सावधानी से (निः भिन्द्धि) कूट डाल। (अवघ्नती) मारती हुई तू [उन लोगों को] (नि जहि) मार डाल, (ये) जो (इमाम् प्रजाम्) इस प्रजा पर (पृतन्यवः) सेना चढ़ानेवाले हैं और [प्रजा को] (ऊर्ध्वम्) ऊँची ओर (उद्भरन्ती) उठाती हुई तू (उत् ऊह) ऊँचा विचार कर ॥९॥
भावार्थ
सेनापति को योग्य है कि जैसे सिलबट्टे से अन्न आदि कूटकर निःसार वस्तु निकालकर ससार पदार्थ ग्रहण करते हैं, वैसे ही सेना द्वारा शत्रुओं को मारकर श्रेष्ठों की रक्षा करे ॥९॥
टिप्पणी
९−(एतौ) पुरोवर्तिनौ (ग्रावाणौ) उलूखलमुसलरूपौ धान्याद्यवहननप्रस्तरौ (सयुजा) सयुजौ। सहयुञ्जानौ (युङ्ग्धि) योजय (चर्मणि) विज्ञाने-म० ८ (निर्भिन्द्धि) निरन्तरं छिन्द्धि (अंशून्) अंश विभाजने-कु। अवयवान् (यजमानाय) श्रेष्ठकर्मकारकाय (साधु) यथा तथा। सुन्दररीत्या (अवघ्नती) अवहननं कुर्वती (नि जहि) नितरां नाशय तान् शत्रून् (ये) (इमाम्) समीपस्थाम् (पृतन्यवः) अ० ७।३४।१। सङ्ग्रामेच्छवः (ऊर्ध्वम्) उन्नतं यथा तथा (प्रजाम्) प्रजां प्रति (उद्भरन्ती) उन्नतां धरन्ती (उत्) उत्तमम् (ऊह) ऊह वितर्के। परस्मैपदं छान्दसम्। विचारय ॥
विषय
शत्रुसंहार व प्रजोन्नति
पदार्थ
१. हे यज्ञशील पुरुष! तू (एतौ) = इन (सयुजा) = अवहनन [कूटने के] कर्म में साथ-साथ व्याप्रियमाण (ग्रावाणौ) = अश्मवत् दृढ़तर ऊखल और मूसल को (चर्मणि) = अवहननार्थ आस्तीर्ण चर्म पर (युङ्ग्धि) = स्थापित कर। अब (यजमानाय साधु अंशून् निर्भिन्धि) = इस यज्ञशील पुरुष के लिए यागनिर्वतक व्रीहिकणों को सम्यक् तुषरहित कर [उलूखलमुसलयोः ग्रावत्वेन रूपणात् वीहयः सोमांशत्वेन रूप्यन्ते], यज्ञ के लिए हविर्द्रव्यों को तैयार कर । २. ऊखल व मूसल में व्रीहिकणों को कूटती हुई गृहपत्नी से पति कहता है कि (अवघ्नती) = इस अवहनन कार्य को करती हुई तू उनको भी (निजहि) = नष्ट कर, (ये) = जोकि (इमां पृतन्यवः) = इस मातृभूमि पर सेना द्वारा आक्रमण की कामनावाले होते हैं। जिस प्रकार (उद् भरन्ती) = तू मूसल को ऊपर उठाती है, उसी प्रकार (प्रजां ऊर्य उदूह) = प्रजा को ऊपर स्थापित कर । प्रजा को उन्नत [श्रेष्ठ] स्थान प्राप्त करा।
भावार्थ
जिस प्रकार यज्ञ के लिए हविद्रव्यों को ऊखल में कूटते हैं, इसी प्रकार हम शत्रुओं को कूटनेवाले बनें। जैसे मूसल को ऊपर उठाया जाता है, इसी प्रकार हम अपनी प्रजाओं को उन्नत करें।
भाषार्थ
हे राजपत्नि! (एतौ) इन दोनों (ग्रावाणो) पत्थरों अर्थात् सिल-वट्टे के सदृश दृढ़ ऊखल-मुसल को, (सयुजा) जो कि अवहनन कार्य में साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं, (चर्मणि) चर्म पर (युङ्ग्धि) स्थापित कर, और (यजमानाय) राष्ट्रयज्ञ के रचयिता राजा या सम्राट् के लिये (साधु) ठीक तरह से (अंशून्) धान के सिट्टों१ को (निर्भिन्धि) तोड़। (अवघ्नती) और अवहनन करती हुई, अर्थात् मुसल को उलूखल में मारती हुई उन का (निजहि) तू हनन कर (ये) जो कि (इमाम्) इस प्रजा को (पृतन्यवः) सेना द्वारा मारना चाहते हैं, और (उद्भरन्ती) मुसल को ऊपर उठाती हुई (प्रजाम्) प्रजा को (उद् ऊह) ऊपर उठा, अर्थात् उन्नति की ओर ले जा।
टिप्पणी
[अवघ्नती और उद्धरन्ती-इन स्त्रीलिङ्ग पदों द्वारा पत्नी की अवहनन क्रिया मन्त्र में निर्दिष्ट हुई है। इमां पृतन्यवः=इस द्वारा "इमाम्" से अभिप्राय राष्ट्रिय प्रजा का है, किसी वैयक्तिक प्रजा अर्थात् सन्तानों का नहीं। शत्रु, सेना द्वारा आक्रमण, राष्ट्र और राष्ट्रिय-प्रजा पर करेंगे, किसी व्यक्ति की सन्तान पर नहीं। अवघ्नती द्वारा मुसल को ऊखल में, धान्य के अवहननार्थ फैंकती हुई को कहा है कि इस द्वारा मानो कि तू शत्रुसेना का हनन कर रही है, और मुसल को ऊपर उठाती हुई को कहा है कि इस द्वारा तू प्रजा को ऊपर उठा अर्थात उसे उन्नति की ओर ले जा। यह वर्णन राजपत्नी के सम्बन्ध में सार्थक हो सकता है, सामान्य यज्ञकर्त्ता की पत्नी के सम्बन्ध में नहीं। ग्रावाणौ को चर्म पर इसलिये स्थापित किया है कि कूटते समय धान्यांश इधर-उधर न बिखरे] [१. मञ्जरी।]
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे ऋत्विक् (चर्मणि) चर्म पर (सयुजौ) सदा साथ रहने वाले (एतौ ग्रावाणौ) इन दोनों ‘ग्रावा’ ऊखल और मुसल को (युङ्-ग्धि) जोड़ और (अंशून्) अन्न के कणों को (यजमानाय) यज्ञ करनेहारे गृहपति के लिये (साधु) उत्तम प्रकार से (निः भिन्धि) कूट। राजपक्ष में—हे पुरोहित ! अमात्य ! तू (एतौ ग्रावाणौ) इन दोनों (स-युजौ) सदा साथ रहने वाले क्षत्रिय और वैश्य प्रजा अथवा राजा और प्रजा दोनों को (युङ्-ग्धि) परस्पर मिला। और (यजमानाय) राष्ट्रपति के लिये (अंशून्) तेजोमय, पुष्टिकारक अन्नादि पदार्थों को (निर्भिन्धि) बल से प्राप्त कर। विशो वै ग्रावाणः। श० ३। ७। १। वज्रो वै ग्रावा। श० ११। ५। १। ७॥ क्षत्रं वै प्रस्तरः। श० १। ३। ४। १। हे पत्नि ! (अवनती) मूसल का प्रहार करती हुई तू (यः) जो (इमाम्) इस प्रजा को (पृतन्यवः) सेना लेकर विनाश करना चाहते हैं उनको (निजहि) सर्वथा विनाश कर। इसी प्रकार हे सेने ! तू प्रहार करती हुई स्वयं प्रजा के विनाशक लोगों का विनाश कर। हे राजन् ! तू गृहपति के समान और हे पृथ्वी ! तू पत्नी के समान (ऊर्ध्वं) अपने ऊपर (प्रजाम् उद्धरन्ती) प्रजा को धारण पोषण करती हुई (उदूह) उन्नत कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
O lady of the house of Order, O nation of humanity, take up and use these complementary soma stones, place them on the stable floor of the Order’s Yajna, crush well the filaments of soma for nectar juice for the yajamana, the Samrat. Take up the mortar and pestle to pound the paddy for the nation, striking down those that rise to attack this nation and raising the people to prosperity.
Translation
Join thou on the hide-these two allied stones, split apart the shoots (ansu) successfully for the sacrificer, smiting down, smite them that would fight her; bearing up thy progeny aloft, lift up.
Translation
O Yajna—priest, You fix these two joined stones on work in scientific way and crush skillfully the herbs etc. for the sake of the performer of Yajna. May the army of men be seiging them kill the foes who invade the subject and lift up it to pleasure and plenty.
Translation
O priest, unite through knowledge, both the king and the subjects who constantly live together, and acquire through thy strength, for the king, nice invigorating eatables! O army, attacking the foe, strike down and slay those who assail the subjects elevating, raise the subjects on high!
Footnote
ग्रावाणौ may mean the king and subjects or the Kshatriya and Vaisha.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(एतौ) पुरोवर्तिनौ (ग्रावाणौ) उलूखलमुसलरूपौ धान्याद्यवहननप्रस्तरौ (सयुजा) सयुजौ। सहयुञ्जानौ (युङ्ग्धि) योजय (चर्मणि) विज्ञाने-म० ८ (निर्भिन्द्धि) निरन्तरं छिन्द्धि (अंशून्) अंश विभाजने-कु। अवयवान् (यजमानाय) श्रेष्ठकर्मकारकाय (साधु) यथा तथा। सुन्दररीत्या (अवघ्नती) अवहननं कुर्वती (नि जहि) नितरां नाशय तान् शत्रून् (ये) (इमाम्) समीपस्थाम् (पृतन्यवः) अ० ७।३४।१। सङ्ग्रामेच्छवः (ऊर्ध्वम्) उन्नतं यथा तथा (प्रजाम्) प्रजां प्रति (उद्भरन्ती) उन्नतां धरन्ती (उत्) उत्तमम् (ऊह) ऊह वितर्के। परस्मैपदं छान्दसम्। विचारय ॥
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