अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
181
कृ॑णु॒त धू॒मं वृ॑षणः सखा॒योऽद्रो॑घाविता॒ वाच॒मच्छ॑। अ॒यम॒ग्निः पृ॑तना॒षाट् सु॒वीरो॒ येन॑ दे॒वा अस॑हन्त॒ दस्यू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒णु॒त । धू॒मम् । वृ॒ष॒ण॒: । स॒खा॒य॒: । अद्रो॑घऽअविता । वाच॑म् । अच्छ॑ । अ॒यम् । अ॒ग्नि: । पृ॒त॒ना॒षाट् । सु॒ऽवीर॑: । येन॑ । दे॒वा: । अस॑हन्त । दस्यु॑न् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कृणुत धूमं वृषणः सखायोऽद्रोघाविता वाचमच्छ। अयमग्निः पृतनाषाट् सुवीरो येन देवा असहन्त दस्यून् ॥
स्वर रहित पद पाठकृणुत । धूमम् । वृषण: । सखाय: । अद्रोघऽअविता । वाचम् । अच्छ । अयम् । अग्नि: । पृतनाषाट् । सुऽवीर: । येन । देवा: । असहन्त । दस्युन् ॥१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(वृषणः) हे ऐश्वर्यवाले (सखायः) सखाओ ! (धूमम्) कम्पन [चेष्टा] (कृणुत) करो, (वाचम् अच्छ) [अपने] वचन का लक्ष्य करके (अद्रोघाविता) निद्रोहियों [शुभाचार्यों] का रक्षक (पृतनाषाट्) संग्रामों का जीतनेवाला, (सुवीरः) उत्तम वीरोंवाला (अयम्) यह (अग्निः) तेजस्वी वीर है, (येन) जिस [वीर] के साथ (देवाः) देवों [विजयी जनों] ने (दस्यून्) डाकुओं को (असहन्त) जीता है ॥२॥
भावार्थ
सब मनुष्य मित्रभाव से रहकर सुपरीक्षित शूरवीर विद्वान् पुरुष को सेनापति बनाकर शत्रुओं का नाश करें ॥२॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ३। सू० २९। म० ९ ॥
टिप्पणी
२−(कृणुत) कुरुत (धूमम्) इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। कम्पनं चेष्टनम्। (वृषणः) अ० १।१२।१। वृषु सेचने प्रजनैश्ययोः-कनिन्। वा षपूर्वस्य निगमे। पा० ६।४।९। दीर्घाभावः। वृषाणः। ऐश्वर्यवन्तः। इन्द्राः (सखायः) सर्वमित्रभूताः (अद्रोघाविता) अद्रोहकारिणां सुचरित्राणामविता रक्षिता (वाचम्) वचनम् (अच्छ) अभिलक्ष्य (अयम्) (अग्निः) तेजस्वी विद्वान् (पृतनाषाट्) अ० ५।१४।८। संग्रामजेता (सुवीरः) नञ्सुभ्याम्। पा० ६।२।११२। इत्युत्तरपदेऽन्तोदात्ते प्राप्ते। वीरवीर्यौ च। पा० ६।२।१२०। उत्तरपदाद्युदात्तः। शोभनवीरोपेतः (येन) शूरेण (देवाः) विजयिनः (असहन्त) अभ्यभवन् (दस्यून्) चौरान्। महासाहसिकान् ॥
विषय
धूम-सुवीर
पदार्थ
१. हे (वृषण:) = अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले, (सखायः) = परस्पर प्रेम से चलनेवाले लोगो ! तुम (धूमं कृणुत) = ऐसे सन्तान को जन्म दो जो शत्रुओं को कम्पित करनेवाला हो [धूञ् कम्पने], (अद्रोघ अविता) = द्रोहशून्य व रक्षा करनेवाला हो। (वाचम् अच्छ) = वेदवाणी की ओर चलनेवाला हो। उत्तम सन्तान को जन्म देने के लिए आवश्यक है कि हम शक्ति का शरीर में ही सेचन करें तथा परस्पर प्रेम [सखित्व] से वर्ते। इसप्रकार हम नौरोग व निद्वेष होंगे तो हमारी सन्तान भी उत्तम होंगे। २. (अयम्) = यह (सन्तान अग्नि:) = प्रगतिशील होता है, (पृतनाषाट्) = शत्रुसैन्य का मर्षण करनेवाला होता है, (सुवीर:) = उत्तम वीर होता है, (येन) = जिस सन्तान के द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (दस्यून् असहन्त) = दस्युओं का पराभव करते हैं, अर्थात् घरों में दास्यव वृत्तियों को नहीं पनपने देते। सन्तान उत्तम हों, तो घर उत्तम बने रहते हैं।
भावार्थ
हम अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले व परस्पर निद्वेषतावाले बनें तो हमारी सन्तान 'शत्रुओं को कम्पित करनेवाली, द्रोहशून्य, रक्षणात्मक वृत्तिवाली, ज्ञानरूचि, प्रगतिशील, शत्रुसैन्यसंहारक व सुवीर' होगी। इन सन्तानों से हमारे घरों में कभी दास्यव वृत्तियों का प्रवेश नहीं होगा।
भाषार्थ
(वृषण:) हे सुखों की वर्षा करने वालो ! (सखायः) हे सब के मित्रो ! (अद्रोधाविताः) हे द्रोह विहीन प्रजा द्वारा रक्षा को प्राप्त सप्त ऋषियों ! (वाचम्, अच्छ) वेदवाणी को स्वाभिमुख कर के, उस का उच्चारण करते हुए (धूमम्) यज्ञियधूम को (कृणुत) करो, यज्ञानुष्ठान करो (अयम् अग्निः) अग्निसमान तेजस्वी यह पुरुष अर्थात् राजसूययज्ञ द्वारा किया जाने वाला सम्राट् (पृतनाषाट्) शत्रुसेनाओं को पराभव करने वाला है, (सुवीरः) उत्तम वीर है। (येन) जिस की सहायता द्वारा (देवा) सप्तर्षि देव या सैनिक [दिवु विजिगीषा, अर्थात् विजिगीषु सैनिक] (दस्यून्) उपक्षयकारी शत्रुओं का (असहन्त) पराभव करते रहे हैं। इस के साथ ही।
टिप्पणी
[असहन्त = इस द्वारा यह दर्शाया गया है कि राजा के निमित्त चुना गया तेजस्वी, हमारी सेनाओं का नायक बन कर पहिले भी युद्धों में विजय प्राप्त करता रहा है। इसलिये यह राजा होने का अधिकारी है। राजसूय-यज्ञ द्वारा राजा बनाने का वर्णन अथर्व (४।८।१-७)के मन्त्रों में देखो। अथर्व ४।८।१ में कहा है कि "तस्य मृत्युश्चरति राजसूयं स राजा राज्यमनुमन्यतामिदम्१"]। [१. अर्थात् उस राजा के राजसूय यज्ञ में, मृत्यु भी उपस्थित हो कर, उसे राजा रूप में मानती है, अतः वह निर्वाचित अग्रणी होना स्वीकृत करे, अनुमति दे। इस से यह भाव भी सूचित होता है कि स्वयं चुने राजा के राज्य में मृत्यु भी, उस के अधीन हो कर, उस के राज्य में विचरेगी। स्वेच्छाचारिता से नहीं।]
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे (वृषणः) वर्षण करने हारे, समस्त कामना के पूरक वीर्यवान् (सखायः) मित्रगणो ! आप लोग (धूमम्) शत्रु को कंपाने वाले इस वीर्यवान् पुरुष को (कृणुत) सम्पन्न करो, बढ़ाओ, उत्पन्न करो। यह (अद्रोघा विता) न द्रोह करने वालों की रक्षा करने हारा है। इसकी (वाचम् अच्छ) वाणी के प्रति तुम ध्यान दो। अथवा (वाचमच्छ अद्रोघविता) इसकी वाणी के या आज्ञा के प्रति द्रोह न करने वाले मित्रजनों की यह रक्षा करता है। (अयम्) यह (अग्निः) शत्रुतापक स्वभाव वाला अग्नि के समान तेजस्वी (सुवीरः) उत्तम वीर (पृतनाषाट्) समस्त शत्रु सेनाओं को दबाने हारा है। (येन) जिसके बल से (देवाः) देवगण (दस्यून् असहन्त) विनाशकारी दुष्टों को पराजित करते हैं।
टिप्पणी
‘कृणोत धूमं वृषणं सखायोऽस्रेधन्त इतनवाजमच्छ’ (च०)। ‘देवासो’ इति ऋ०। ऋग्वेदे विश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता। ‘देवा असहन्त शत्रून्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
O generous friends, brave performers, light the fire, let the flames arise and holy words resound without hate and enmity to anyone. This Agni is a brave warrior, throws out the enemies but never for malice or jealousy. It is by Agni that the Devas, positive powers of love, nobility and creativity, challenge and defeat the negative forces and win over the enemies.
Translation
Make ye smoke, O ye showerers, companions, ye that are aided by the unhateful (?), unto speech, this Agni fight- overpowering, having good heroes, by whom the gods overpowered the barbarians.
Translation
O friends! hold belief in the dictate of Vedic speech and pouring butter etc. in this fire create smokes of vapor. This is the protector of all without being malignant and hostile to any one, this fire is powerful and means of destroying enemies and is such a thing through which the wise men defeat the enemies and the celestial foces destroy the coluds.
Translation
O strong companions, exert hard! Utter words that protect the lovers of freedom from deceit and malice. Here is this hero, victor in fights, equipped with valiant soldier by whom the sages subdue the hostile demons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(कृणुत) कुरुत (धूमम्) इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। कम्पनं चेष्टनम्। (वृषणः) अ० १।१२।१। वृषु सेचने प्रजनैश्ययोः-कनिन्। वा षपूर्वस्य निगमे। पा० ६।४।९। दीर्घाभावः। वृषाणः। ऐश्वर्यवन्तः। इन्द्राः (सखायः) सर्वमित्रभूताः (अद्रोघाविता) अद्रोहकारिणां सुचरित्राणामविता रक्षिता (वाचम्) वचनम् (अच्छ) अभिलक्ष्य (अयम्) (अग्निः) तेजस्वी विद्वान् (पृतनाषाट्) अ० ५।१४।८। संग्रामजेता (सुवीरः) नञ्सुभ्याम्। पा० ६।२।११२। इत्युत्तरपदेऽन्तोदात्ते प्राप्ते। वीरवीर्यौ च। पा० ६।२।१२०। उत्तरपदाद्युदात्तः। शोभनवीरोपेतः (येन) शूरेण (देवाः) विजयिनः (असहन्त) अभ्यभवन् (दस्यून्) चौरान्। महासाहसिकान् ॥
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