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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    य आ॑र्षे॒येभ्यो॒ याच॑द्भ्यो दे॒वानां॒ गां न दित्स॑ति। आ स दे॒वेषु॑ वृश्चते ब्राह्म॒णानां॑ च म॒न्यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । आ॒र्षे॒येभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । दे॒वाना॑म् । गाम् । न । दित्स॑ति । आ । स: । दे॒वेषु॑ । वृ॒श्च॒ते॒ । ब्रा॒ह्म॒णाना॑म‌् । च॒ । म॒न्यवे॑ ॥४.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति। आ स देवेषु वृश्चते ब्राह्मणानां च मन्यवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । आर्षेयेभ्य: । याचत्ऽभ्य: । देवानाम् । गाम् । न । दित्सति । आ । स: । देवेषु । वृश्चते । ब्राह्मणानाम‌् । च । मन्यवे ॥४.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (यः) जो पुरुष (याचद्भ्यः) माँगते हुए (आर्षेयेभ्यः) ऋषिसन्तानों का (देवानाम्) विजय चाहनेवालों के बीच (गाम्) वेदवाणी (न) नहीं (दित्सति) देना चाहता है। (सः) वह (देवेषु) स्तुतियोग्य गुणों में (आ) सब ओर से (वृश्चते) कट जाता है, (च) और (ब्राह्मणानाम्) ब्राह्मणों [वेदज्ञानियों] के (मन्यवे) क्रोध के लिये [होता है] ॥१२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य योग्य ब्रह्मचारियों को वेदवाणी देने में बाधा डालता है, वह अपने शुभ गुणों में हेठा होकर विद्वानों के बीच अनादर पाता है ॥१२॥ इस मन्त्र का प्रथम आधा भाग ऊपर मन्त्र २ में आ चुका है ॥

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