अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 44
वि॑लि॒प्त्या बृ॑हस्पते॒ या च॑ सू॒तव॑शा व॒शा। तस्या॒ नाश्नी॑या॒दब्रा॑ह्मणो॒ य आ॒शंसे॑त॒ भूत्या॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽलि॒प्त्या: । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । या । च॒ । सू॒तऽव॑शा । व॒शा । तस्या॑: । न । अ॒श्नी॒या॒त् । अब्रा॑ह्मण: । य: । आ॒ऽशंसे॑त । भूत्या॑म् ॥४.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
विलिप्त्या बृहस्पते या च सूतवशा वशा। तस्या नाश्नीयादब्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठविऽलिप्त्या: । बृहस्पते । या । च । सूतऽवशा । वशा । तस्या: । न । अश्नीयात् । अब्राह्मण: । य: । आऽशंसेत । भूत्याम् ॥४.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 44
विषय - वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
“(बृहस्पते) हे बड़ी वेदवाणियों के रक्षक [जिज्ञासु] ! (या) जो (च) निश्चय करके (सूतवशा) उत्पन्न जगत् को वश में करनेवाली (वशा) कामनायोग्य [वेदवाणी] है, (तस्याः) उस (विलिप्त्याः) विशेष वृद्धिवाली का (न अश्नीयात्) वह भोग [अनुभव] नहीं कर सकता, (यः) जो (अब्राह्मणः) अब्रह्मचारी [ब्रह्मचर्य न रखनेवाला पुरुष] (भूत्याम्) ऐश्वर्य में (आशंसेत) इच्छा करे” ॥४४॥
भावार्थ - जिस वेदवाणी के वश में सब संसार है, उसको वही मनुष्य पाकर प्रभुता कर सकता है, जो पूरा ब्रह्मचारी हो, अन्यथा नहीं। यह गत मन्त्र का उत्तर है ॥४४॥
टिप्पणी -
४४−(विलिप्त्याः) म० ४१। विशेषवृद्धियुक्तायाः (बृहस्पते) हे बृहतीनां वेदवाणीनां रक्षक (या) (च) निश्चयेन (सूतवशाः) सूतस्योत्पन्नस्य जगतो वशयित्री (वशा) कमनीया वेदवाणी (तस्याः) (न) निषेधे (अश्नीयात्) भुञ्जीत। अनुभवेत् (यः) (आशंसेत) इच्छेत् (भूत्याम्) ऐश्वर्ये ॥