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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 50
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    उ॒तैनां॑ भे॒दो नाद॑दाद्व॒शामिन्द्रे॑ण याचि॒तः। तस्मा॒त्तं दे॒वा आग॒सोऽवृ॑श्चन्नहमुत्त॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ए॒ना॒म् । भे॒द: । न । अ॒द॒दा॒त् । व॒शाम् । इन्द्रे॑ण । या॒चि॒त: । तस्मा॑त् । तम् । दे॒वा: । आग॑स: । अवृ॑श्चन् । अ॒ह॒म्ऽउ॒त्त॒रे ॥४.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतैनां भेदो नाददाद्वशामिन्द्रेण याचितः। तस्मात्तं देवा आगसोऽवृश्चन्नहमुत्तरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । एनाम् । भेद: । न । अददात् । वशाम् । इन्द्रेण । याचित: । तस्मात् । तम् । देवा: । आगस: । अवृश्चन् । अहम्ऽउत्तरे ॥४.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 50

    पदार्थ -
    (उत) और (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् [ब्रह्मचारी] से (याचितः) याचना किये हुए (भेदः) फूट डालनेवाले ने (एनाम्) इस (वशाम्) [कामनायोग्य वेदवाणी] को (न अददात्) नहीं दिया। (देवाः) विद्वानों ने (तस्मात् आगसः) उस पाप से (अहमुत्तरे) संग्राम में [जहाँ अपनी-अपनी बड़ाई के लिये झगड़ते हैं] (तम्) उस [वेदशत्रु] को (अवृश्चन्) छिन्न-भिन्न किया है ॥५०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य वेदविद्या के दान को रोकता है, विद्वान् लोग उस जगत् के हानिकारक को नष्ट कर देते हैं ॥५०॥

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