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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 41
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    या व॒शा उ॒दक॑ल्पयन्दे॒वा य॒ज्ञादु॒देत्य॑। तासां॑ विलि॒प्त्यं भी॒मामु॒दाकु॑रुत नार॒दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । व॒शा: । उ॒त्ऽअक॑ल्पयन् । दे॒वा: । य॒ज्ञात् । उ॒त्ऽएत्य॑ । तासा॑म् । वि॒ऽलि॒प्त्यम् । भी॒माम् । उ॒त्ऽआकु॑रुत । ना॒र॒द: ॥४.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वशा उदकल्पयन्देवा यज्ञादुदेत्य। तासां विलिप्त्यं भीमामुदाकुरुत नारदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । वशा: । उत्ऽअकल्पयन् । देवा: । यज्ञात् । उत्ऽएत्य । तासाम् । विऽलिप्त्यम् । भीमाम् । उत्ऽआकुरुत । नारद: ॥४.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 41

    पदार्थ -
    (याः) जिन (वशाः) कामनायोग्य [शक्तियों] को (देवाः) विजय चाहनेवाले [जिज्ञासुओं] ने (यज्ञात्) यज्ञ [परमेश्वर की पूजा, संगतिकरण और दानव्यवहार] से (उदेत्य) ऊँचे होकर (उदकल्पयन्) उत्तम माना है। (तासाम्) उन [शक्तियों] के बीच (विलिप्त्यम्) विशेष वृद्धिवाली और (भीमाम्) भयानक [वेदवाणी] को (नारदः) नीति देनेवाले [आचार्य] ने (उदाकुरुत) स्वीकार किया है ॥४१॥

    भावार्थ - सदा से विद्वानों ने अनेक शक्तियों की कल्पना करके यही निश्चय किया है कि संसार में शिष्टों की वृद्धि करनेवाली और दुष्टों की ताड़नेवाली इस वेदवाणी के तुल्य अन्य कोई शक्ति नहीं है ॥४१॥

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