Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    प्र॒जया॒ स वि क्री॑णीते प॒शुभि॒श्चोप॑ दस्यति। य आ॑र्षे॒येभ्यो॒ याच॑द्भ्यो दे॒वानां॒ गां न दित्स॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजया॑ । स: । वि । क्री॒णी॒ते॒ । प॒शुऽभि॑: । च॒ । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । य: । आ॒र्षे॒येभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । दे॒वाना॑म् । गाम् । न । दित्स॑ति ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजया स वि क्रीणीते पशुभिश्चोप दस्यति। य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजया । स: । वि । क्रीणीते । पशुऽभि: । च । उप । दस्यति । य: । आर्षेयेभ्य: । याचत्ऽभ्य: । देवानाम् । गाम् । न । दित्सति ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (सः) वह पुरुष (प्रजया) अपने सन्तान [पुत्र पुत्री आदि] के साथ (वि क्रीणीते) बिक जाता है (च) और (पशुभिः) अपने पशुओं [गाय घोड़े आदि] के साथ (उप दस्यति) नष्ट हो जाता है। (यः) जो पुरुष (याचद्भ्यः) माँगते हुए (आर्षेयेभ्यः) ऋषिसन्तानों को (देवानाम्) विजय चाहनेवालों के बीच (गाम्) वेदवाणी (न) नहीं (दित्सति) देना चाहता है ॥२॥

    भावार्थ - जो विद्वान् विद्वानों के बीच जिज्ञासुओं को वेदविद्या नहीं देता, वह निर्धन होकर अपने आप और उसके सन्तान पराधीन होकर कष्ट सहते हैं ॥२॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा भाग आगे मन्त्र १२ में आया है ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top