Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 47
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    त्रीणि॒ वै व॑शाजा॒तानि॑ विलि॒प्ती सू॒तव॑शा व॒शा। ताः प्र य॑च्छेद्ब्र॒ह्मभ्यः॒ सोना॑व्र॒स्कः प्र॒जाप॑तौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । वै । व॒शा॒ऽजा॒तानि॑ । व‍ि॒ऽलि॒प्ती । सू॒तऽव॑शा। व॒शा । ता: । प्र । य॒च्छे॒त् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । स: । अ॒ना॒व्र॒स्क: । प्र॒जाऽप॑तौ ॥४.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि वै वशाजातानि विलिप्ती सूतवशा वशा। ताः प्र यच्छेद्ब्रह्मभ्यः सोनाव्रस्कः प्रजापतौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । वै । वशाऽजातानि । व‍िऽलिप्ती । सूतऽवशा। वशा । ता: । प्र । यच्छेत् । ब्रह्मऽभ्य: । स: । अनाव्रस्क: । प्रजाऽपतौ ॥४.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 47

    पदार्थ -
    (त्रीणि) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] (वै) ही (वशाजातानि) कामनायोग्य [वेदवाणी] के प्रसिद्ध कर्म हैं, (विलिप्ती) वह विशेष वृद्धिवाली (सूतवशा) उत्पन्न जगत् को वश में करनेवाली, (वशा) कामनायोग्य [वेदवाणी] है। (सः) वह [विद्वान्] (प्रजापतौ) प्रजापालक [परमेश्वर] में (अनाव्रस्कः) अच्छेद्य [अति दृढ़] होकर (ताः=ताम्) उसे (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारियों को (प्र यच्छेत्) दान करे ॥४७॥

    भावार्थ - मनुष्य सर्वनियन्त्री वेदवाणी द्वारा कर्म, उपासना, ज्ञान प्राप्त करके आस्तिक बुद्धि से ब्रह्मचारियों को विद्या दान करे ॥४७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top