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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 22
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मुह्य॑न्त्व॒न्येऽअ॒भितः॑ स॒पत्ना॑ऽइ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑कर्म॒न्निति॒ विश्व॑ऽकर्मन्। ह॒विषा॑। वा॒वृ॒धा॒नः। व॒वृ॒धा॒न इति॑ ववृधा॒नः। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। मुह्य॑न्तु। अ॒न्ये। अ॒भितः॑। स॒पत्ना॒ इति॑ स॒ऽपत्नाः॑। इ॒ह। अ॒स्माक॑म्। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। सू॒रिः। अ॒स्तु॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयँयजस्व पृथिवीमुत द्याम् । मुह्यन्त्वन्येऽअभितो सपत्नाऽइहास्माकम्मघवा सूरिरस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वकर्मन्निति विश्वऽकर्मन्। हविषा। वावृधानः। ववृधान इति ववृधानः। स्वयम्। यजस्व। पृथिवीम्। उत। द्याम्। मुह्यन्तु। अन्ये। अभितः। सपत्ना इति सऽपत्नाः। इह। अस्माकम्। मघवेति मघऽवा। सूरिः। अस्तु॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अन्तिम शब्दों में प्रभु जीव से शक्तिधामों को स्वयं प्राप्त करने के लिए कह रहे थे। उसी प्रसङ्ग को प्रस्तुत मन्त्र में चलाते हुए प्रभु कहते हैं कि हे (विश्कर्मन्) = सब कालों में सदा कर्म करनेवाले मेरे मित्र ! तू (हविषा) = दानपूर्वक अदन से, अर्थात् स्वार्थ की वृत्ति से ऊपर उठने के द्वारा (वावृधानः) = शरीर, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से खूब उन्नति करता हुआ (स्वयम्) = अपने पुरुषार्थ से ही (पृथिवीम्) = विस्तृत शक्तियोंवाले शरीर को (उत) = और (द्याम्) = प्रकाशमय मस्तिष्क को (यजस्व) = अपने साथ सङ्गत कर। [क] तेरा जीवन क्रियाशील हो [विश्वकर्मन्] [ख] दानपूर्वक अदन करनेवाला बन [हविषा ] [ग] सब प्रकार से खूब उन्नति कर [वावृधानः] और इस प्रकार [घ] शरीर की शक्तियों को प्रथित कर [पृथिवीम्] तथा मस्तिष्क को प्रकाशमय बना [धाम्] । २. (अन्ये) = तुझसे भिन्न (अभितः सपत्ना:) = तेरे आन्तर व बाह्य शत्रु (मुह्यन्तु) = वैचित्य को प्राप्त करें। उनके तो होशो हवास भी गुम हो जाएँ। तेरे शत्रु घबराकर तुझे दूर से छोड़ दें । ३. प्रभु कहते हैं कि (इह) = इस संसार में (मघवा) = [मघ-मख] यज्ञशील (सूरि:) = विद्वान् पुरुष (अस्माकम् अस्तु) = हमारा बनकर रहे। वह प्रकृति का दास न बन जाए। प्रभु की मित्रता के लिए आवश्यक है कि हमारा जीवन यज्ञमय हो और हम ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें। यह प्रभु का प्यारा स्वयं यज्ञशील व ज्ञानी बनकर औरों को भी [षू प्रेरणे] सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाला हो । [सूरि:- आत्मज्ञानोपदेशक:- म०] ।

    भावार्थ - भावार्थ - १. हम क्रियाशील हों। २. दानपूर्वक अदन ही हमारा स्वभाव हो । ३. सदा उन्नति के मार्ग पर चलें। ४. शरीर की शक्तियों को बढ़ाएँ, मस्तिष्क को प्रकाशमय करें। ५. बाह्य व आन्तर शत्रुओं को जीतें। ६. यज्ञशील हों। ७. ज्ञानी बनकर औरों को भी उत्तम प्रेरणा देनेवाले हों।

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