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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 45
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इषुर्देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑सꣳशिते। गच्छा॒मित्रा॒न् प्र प॑द्यस्व॒ मामीषां॒ कञ्च॒नोच्छि॑षः॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑सृ॒ष्टेत्यव॑ऽसृष्टा। परा॑। प॒त॒। शर॑व्ये। ब्रह्म॑सꣳशित॒ इति॒ ब्रह्म॑ऽसꣳशिते। गच्छ॑। अ॒मित्रा॑न्। प्र। प॒द्य॒स्व॒। मा। अ॒मीषा॑म्। कम्। च॒न। उत्। शि॒षः॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसँशिते । गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषाङ्कं चनोच्छिषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवसृष्टेत्यवऽसृष्टा। परा। पत। शरव्ये। ब्रह्मसꣳशित इति ब्रह्मऽसꣳशिते। गच्छ। अमित्रान्। प्र। पद्यस्व। मा। अमीषाम्। कम्। चन। उत्। शिषः॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 45
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    पदार्थ -
    संसार में न फँसने व निरन्तर आगे और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने सामने एक लक्ष्य [ध्येय] रखे। लक्ष्य ओझल हुआ और मनुष्य भटका । यह लक्ष्य ही 'शरव्या' है। २. यह लक्ष्य बड़ा सोच-समझकर बनाया जाना चाहिए । मन्त्र में कहते हैं कि यह 'ब्रह्मसंशित' हो, ज्ञान से तीव्र बनाया जाए। हे (ब्रह्मसंशिते) = ज्ञान से तीव्र बनाये गये (शरव्ये) = लक्ष्य ! तू (अवसृष्टा) [ अवसृज् to make, create ] = हमारे जीवनों से उत्पन्न होकर (परापत) = खूब दूर बढ़ चल। लक्ष्य के सदा सामने होने पर हमारी तीव्र गति व शीघ्र प्रगति क्यों न होगी ? लक्ष्य का न होना अथवा लक्ष्य का भूला हुआ होने के कारण ही प्रगति रुकी रहती है । ३. लक्ष्य का संकेत उत्तरार्ध में इस प्रकार करते हैं कि (गच्छ) = तू जा (अमित्रान्) = स्नेह न करने की भावना को, ईर्ष्या-द्वेषादि की भावना को, औरों से जलने की भावना को (प्रद्यस्व) = विशेषरूप से आक्रान्त कर। (मामीषाम्) = इन द्वेषादि की निकृष्ट भावनाओं में से (कञ्चन) = किसी को (न उच्छिषः) = शेष मत छोड़। इन भावनाओं में से एक-एक को ढूँढकर तू समाप्त करनेवाला बन।

    भावार्थ - भावार्थ - १. हमारा जीवन लक्ष्य-दृष्टि से शून्य न हो। २. हम द्वेषादि की भावना को समूल नष्ट कर दें।

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