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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॒णाग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒मस्य॑। त्वा॒। ज॒रायु॑णा। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिमस्य त्वा जरायुणाग्ने परिव्ययामसि । पावकोऽअस्मभ्यँ शिवो भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिमस्य। त्वा। जरायुणा। अग्ने। परि। व्ययामसि। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र में 'मनःप्रसाद' का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में उसके कभी क्षुब्ध न होने का उल्लेख है। प्रभु कहते हैं कि हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! (त्वा) = तुझे (हिमस्य) = शीतलता के (जरायुणा) = आवरण से (परिव्ययामसि) = चारों ओर से आच्छादित करते हैं। थोड़े से मानापमान से तू क्षुब्ध नहीं हो उठता। तुझमें क्रोधाग्नि नहीं भड़क उठती । तू सदा शान्त रहता है । २. इस शीतलता के द्वारा (पावकः) = अपने हृदय को पवित्र करनेवाला तू ३. (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शिवः) = कल्याणकर हो। तू मन, वाणी व कर्म से कभी किसी का अशुभ करनेवाला न हो। शिव बनकर ही तू 'शिव' को प्राप्त करेगा।

    भावार्थ - भावार्थ - १. हम अपने व्यवहार में सदा शान्त रहें । २. पवित्र जीवनवाले हों। ३. सभी का कल्याण करें। यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।

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