यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 63
ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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वाज॑स्य मा प्रस॒वऽउ॑द्ग्रा॒भेणोद॑ग्रभीत्। अधा॑ स॒पत्ना॒निन्द्रो॑ मे निग्रा॒भेणाध॑राँ२ऽअकः॥६३॥
स्वर सहित पद पाठवाज॑स्य। मा॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः उ॒द्ग्रा॒भेणेत्यु॑त्ऽग्रा॒भेण॑। उत्। अ॒ग्र॒भी॒त्। अध॑। स॒पत्ना॒निति॑ स॒ऽपत्ना॑न्। इन्द्रः॑। मे॒। नि॒ग्रा॒भेणेति॑ निऽग्रा॒भेण॑। अध॑रान्। अ॒क॒रित्य॑कः ॥६३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजस्य मा प्रसवेऽउद्ग्राभेणोदग्रभीत् । अधा सपत्नानिन्द्रो मे निग्राभेणाधराँऽअकः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाजस्य। मा। प्रसव इति प्रऽसवः उद्ग्राभेणेत्युत्ऽग्राभेण। उत्। अग्रभीत्। अध। सपत्नानिति सऽपत्नान्। इन्द्रः। मे। निग्राभेणेति निऽग्राभेण। अधरान्। अकरित्यकः॥६३॥
विषय - उद्ग्राभ - निग्राभ
पदार्थ -
१. (वाजस्य प्रसवः) = सब शक्तियों का उत्पत्तिस्थान प्रभु (मा) = मुझे (उद्ग्राभेण) = उत्कृष्ट वसुओं के ग्रहण से (उदग्रभीत्) = ऊपर ग्रहण करे, अर्थात् विषय-वासनाओं से ऊपर उठाकर अपने समीप प्राप्त कराए। वस्तुतः शक्ति की उत्पत्ति व रक्षा से ही शरीर में नीरोगता उत्पन्न होती है। मन की पवित्रता के लिए भी यह अत्यन्त आवश्यक है। शक्ति में ही सब गुणों का वास है और अन्त में यह विषय वासनओं से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति प्रभु से ग्रहण के योग्य होता है, प्रभु इसको स्वीकार करते हैं। २. (अध) = अब (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला (मे) = मेरे प्रभु (सपत्नान्) = काम, क्रोधादि शत्रुओं को निग्राभेण निग्रह, वशीकरण के द्वारा (अधरान् अक:) = पराजित करने का अनुग्रह करें। प्रभुकृपा से मैं इन शत्रुओं को वशीभूत करनेवाला बनूँ। ३. इन शत्रुओं के साथ संग्राम में बड़े धैर्य से चलता हुआ यह व्यक्ति सचमुच 'वि-धृति' है। इस विधृतित्व के कारण ही अन्त में यह विजयी बनता है।
भावार्थ - भावार्थ - १. प्रभु मुझमें शक्ति उत्पन्न करें, जिससे उत्कृष्ट गुणों के ग्रहण से मैं प्रभु का प्रिय बन पाऊँ । २. प्रभु काम-क्रोधादि सपत्नों को मेरे वशीभूत करें।
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