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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 68
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स्व॒र्यन्तो॒ नापे॑क्षन्त॒ऽआ द्या रो॑हन्ति॒ रोद॑सी। य॒ज्ञं ये वि॒श्वतो॑धार॒ꣳ सुवि॑द्वासो वितेनि॒रे॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वः॑। यन्तः॑। न। अप॑। ई॒क्ष॒न्ते॒। आ। द्याम्। रो॒ह॒न्ति॒। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। य॒ज्ञम्। ये। वि॒श्वतो॑धार॒मिति॑ वि॒श्वतः॑ऽधारम्। सुवि॑द्वास॒ इति॒ सुवि॑द्वासः। वि॒ते॒नि॒र इति॑ विऽतेनि॒रे ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वर्यन्तो नापेक्षन्त आ द्याँ रोहन्ति रोदसी । यज्ञँये विश्वतोधारँ सुविद्वाँसो वितेनिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वः। यन्तः। न। अप। ईक्षन्ते। आ। द्याम्। रोहन्ति। रोदसी इति रोदसी। यज्ञम्। ये। विश्वतोधारमिति विश्वतःऽधारम्। सुविद्वास इति सुविद्वासः। वितेनिर इति विऽतेनिरे॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 68
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र में स्वर्ज्योति की प्राप्ति का उल्लेख है। उसी के साधनों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि (स्वर्यन्तः) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति की ओर जाते हुए योगवृत्तिवाले पुरुष (नापेक्षन्ते) = सांसारिक वस्तुओं की बहुत अपेक्षा नहीं करते, अर्थात् भौतिक आवश्यकताओं को कम और कम करते चलते हैं। २. (रोदसी) = जरा मृत्यु शोकादि का निरोध करनेवाले [रुणद्धि जरामृत्युशोकादीन् -म०] (द्याम्) = प्रकाशमयलोक में (आरोहन्ति) = आरोहण करते हैं। अपने ज्ञान को अधिक-से-अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। यह ज्ञान इनका (रोदसी रोध्री) = जन्म-मरणचक्र का निरोध करनेवाला बनता है । ३. ये (सुविद्वांसः) = ज्ञान - वृद्धि करनेवाले उत्तम ज्ञानी (विश्वतोधारं यज्ञम्) = जगत् के धारणहेतु, यज्ञ को वितेनिरे विस्तृत करते हैं, अर्थात् ये विद्वान् लोकहित के कार्यों में लगे रहते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- स्वयं देदीप्यमान ज्योति की ओर चलनेवाले लोग । १. भौतिक आवश्यकताओं को कम करते हैं। २. दुःख-शोक निरोधक ज्ञान का अपने में वर्धन करते हैं और ३. जगत् के धारणहेतुभूत यज्ञों को विस्तृत करते हैं।

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