यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 59
ऋषिः - विश्वावसुर्ऋषिः
देवता - आदित्यो देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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वि॒मान॑ऽए॒ष दि॒वो मध्य॑ऽआस्तऽआपप्रि॒वान् रोद॑सीऽअ॒न्तरि॑क्षम्। स वि॒श्वाची॑र॒भिच॑ष्टे घृ॒तीची॑रन्त॒रा पूर्व॒मप॑रं च के॒तुम्॥५९॥
स्वर सहित पद पाठवि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमानः॑। ए॒षः। दि॒वः। मध्ये॑। आ॒स्ते॒। आ॒प॒प्रि॒वानित्या॑ऽपप्रि॒वान्। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सः। वि॒श्वाचीः॑। अ॒भि। च॒ष्टे॒। घृ॒ताचीः॑। अ॒न्त॒रा। पूर्व॑म्। अप॑रम्। च॒। के॒तुम् ॥५९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विमानऽएष दिवो मध्यऽआस्तऽआपप्रिवान्रोदसीऽअन्तरिक्षम् । स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
विमान इति विऽमानः। एषः। दिवः। मध्ये। आस्ते। आपप्रिवानित्याऽपप्रिवान्। रोदसी इति रोदसी। अन्तरिक्षम्। सः। विश्वाचीः। अभि। चष्टे। घृताचीः। अन्तरा। पूर्वम्। अपरम्। च। केतुम्॥५९॥
विषय - पूर्व व अपर केतु
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार 'अप्रतिरथ' सब वासनाओं को जीतकर 'सब वसुओं को प्राप्त करनेवाला बनता है' और 'विश्वावसु' हो जाता है। यह 'विश्वावसु' (विमानः) = ‘विशेषेण मिमीते' प्रत्येक क्रिया को बड़ा माप-तोल कर करता है। २. (एषः) = यह विश्वावसु (दिवो मध्ये) = ज्ञान के प्रकाश में (आस्ते) = निवास करता है। ३. (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर को तथा (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष- हृदय को (आपप्रिवान्) = [प्रा पूरणे] न्यूनताओं से रहित करके शक्ति सम्पन्न बनाता है। मस्तिष्क को ज्ञान से, शरीर को शक्ति से तथा हृदयान्तरिक्ष को 'नैर्मल्य' व सत् [सत्य] से पूरण करता है। इसके मस्तिष्क में ज्योति है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' इसके शरीर में नीरोगता उभरती है 'मृत्योर्मा अमृतं गमय'। इसके हृदय में सत्य है 'असतो मा सद्गमय'। ४. (सः) = वह विश्वावसु (विश्वाची:) = [विश्वं अञ्चन्ति ] सर्वव्यापक प्रभु की ओर ले जानेवाली क्रियाओं को (अभिचष्टे) = देखता है, अर्थात् प्रभु की ओर ले जानेवाली क्रियाओं को ही करता है। (घृताची:) = [घृ क्षरणदीप्तिः] यह उन क्रियाओं को करता है जो उसे शरीर के मल के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति की ओर ले जाती हैं, और इस प्रकार यह ५. (अन्तरा) = अपने हृदयदेश में (पूर्वं केतुम्) = उत्कृष्ट ज्ञान को पराविद्या व ब्रह्मविद्या को (च) = तथा (अपरं केतुम्) = अपराविद्या को प्रकृति- ज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार यह अपराविद्या से ऐहलौकिक वसु को प्राप्त करता है तो पराविद्या से 'पारलौकिक वसु' को । इस प्रकार दोनों वसुओं को प्राप्त कर यह सचमुच 'विश्वावसु' बन जाता है।
भावार्थ - भावार्थ- 'विश्वावसु' वह है १. जो सब क्रियाओं को माप-तोलकर करता है। २. सदा ज्ञान में निवास करता है। ३. शरीर-मन व मस्तिष्क का पूरण करता है। ४. उन " क्रियाओं को करता है जो इसे प्रभु व ज्ञान की ओर ले जाएँ। ५. अपने हृदय में 'परा व अपरा' विद्या को ज्ञान-विज्ञान को स्थान देता है।
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