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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 88
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमाव॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम्। मि॒मि॒क्षे॒। घृ॒तम्। अ॒स्य॒। योनिः॑। घृ॒ते। श्रि॒तः। घृ॒तम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्। आ। व॒ह॒। मा॒दय॑स्व॒। स्वाहा॑कृत॒मिति॒ स्वाहा॑ऽकृतम्। वृ॒ष॒भ॒। व॒क्षि॒। ह॒व्यम् ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतम्मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम । अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतँवृषभ वक्षि हव्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम्। मिमिक्षे। घृतम्। अस्य। योनिः। घृते। श्रितः। घृतम्। ऊँऽइत्यूँ। अस्य धाम। अनुष्वधम्। अनुस्वधमित्यनुऽस्वधम्। आ। वह। मादयस्व। स्वाहाकृतमिति स्वाहाऽकृतम्। वृषभ। वक्षि। हव्यम्॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 88
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र में 'प्रभुरूप सदन' में प्रवेश का उल्लेख है। उसी प्रवेश के लिए प्रयत्न करता हुआ 'गृत्समद ऋषि कहता है कि (घृतं मिमिक्षे) = मैं घृत का सेचन करना चाहता हूँ [मेदुमिच्छति, मिह सेचने] । घृत की दो भावनाएँ हैं [क] क्षरण मल को दूर करना। [ख] तथा (दीप्ति) = ज्ञान को दीप्त करना। मैं प्रभु प्राप्ति के लिए शारीरिक मल के क्षरण के द्वारा शरीर के स्वास्थ्य का साधन करता हूँ और अपने मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला बनता हूँ। २. (घृतम् अस्य योनिः) = यह मलक्षरण - जनित स्वास्थ्य तथा ज्ञान की दीप्ति ही इस प्रभु के प्रकाश का उत्पत्ति स्थान है। स्वास्थ्य व ज्ञान ही हममें प्रभु के प्रकाश को प्रकट करते हैं। ३. (घृते श्रितः) = वे प्रभु इस स्वास्थ्य व ज्ञान दीप्ति में ही आश्रित हैं। अथवा स्वास्थ्य व ज्ञानदीप्ति होने पर ही प्रभु सेवित [ श्रि सेवायाम्] होते हैं । ४. (उ) = और (घृतम्) = यह स्वास्थ्य दीप्ति व ज्ञान दीप्ति ही (अस्य) = इस प्रभु का धाम धाम है, निवास है । ५. अतः हे जीव! तू (अनुष्वधम्) = अन्न की अनुकूलता में आवह इस स्वास्थ्य व ज्ञानदीप्ति को धारण कर। 'स्वधा' वह अन्न है, जिसका मूलतत्त्व 'स्व' का धारण है, जिसमें स्वाद आदि को मापक नहीं बनाया गया। उस अन्न का सेवन हमें स्वस्थ भी बनाएगा और ज्ञानदीप्त भी । ६. इस प्रकार यह अन्न हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर ले चलेगा, अतः इस अन्न से स्वास्थ्य व ज्ञान का वहन करके मादयस्व तू आनन्द का अनुभव कर। ७. हे (वृषभ) = अपने अन्दर स्वास्थ्य व ज्ञान का सेचन करनेवाले, अतएव शक्तिशाली जीव ! तू (स्वाहाकृतम्) = स्वाहाकार के द्वारा आहुति दिये गये (हव्यम्) = अदन करने योग्य सात्त्विक पदार्थों को ही (वक्षि) = वहन करता है व चाहता है, अर्थात् तेरा भोजन अत्यन्त सात्त्विक है। इस सात्त्विक भोजन से ही तूने उस स्वास्थ व ज्ञान को सिद्ध किया है जो 'घृत' कहलाता है और प्रभु के प्रकाश का कारण है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए अपने स्वास्थ्य व ज्ञान को बढ़ाएँ और प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करनेवाले हों। प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करके हम 'गृणाति माद्यति' = स्तुति करें, प्रसन्न हों और इस मन्त्र के ऋषि 'गृत्समद' बनें।

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