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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 12
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः
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    नृ॒षदे॒ वेड॑प्सु॒षदे॒ वेड् ब॑र्हि॒षदे॒ वेड् व॑न॒सदे॒ वेट् स्व॒र्विदे॒ वेट्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ॒षदे॑। नृ॒सद॒ इति॑ नृ॒ऽसदे॑। वेट्। अ॒प्सु॒षदे॑। अ॒प्सु॒सद॒ इत्य॑प्सु॒ऽसदे॑। वेट्। ब॒र्हि॒षदे॑। ब॒र्हि॒सद इति॑ बर्हि॒ऽसदे॑। वेट्। व॒न॒सद॒ इति॑ वन॒ऽसदे॑। वेट्। स्व॒र्विद॒ इति॑ स्वः॒ऽविदे॑। वेट् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृषदे वेडप्सुषदे वेड्बर्हिषदे वेड्वनसदे वेट्स्वर्विदे वेट् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नृषदे। नृसद इति नृऽसदे। वेट्। अप्सुषदे। अप्सुसद इत्यप्सुऽसदे। वेट्। बर्हिषदे। बर्हिसद इति बर्हिऽसदे। वेट्। वनसद इति वनऽसदे। वेट्। स्वर्विद इति स्वःऽविदे। वेट्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्र में 'लोपामुद्रा' बनने के लिए मार्ग बताया है कि अपनी जीवन-यात्रा की प्रथम मंज़िल में (नृषदे) = [नृषु सीदति] नायकों में स्थित होनेवाले के लिए आगे ले चलनेवाले माता-पिता व आचार्यों में स्थित होनेवाले के लिए, अर्थात् पूर्णरूप से उनकी आज्ञा में चलनेवाले के लिए (वेट्) = हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं । २. (अप्सुषदे) = अब गृहस्थ में आने पर निरन्तर कर्मों में आसीन होनेवाले के लिए, अर्थात् उस गृहस्थ के लिए जो कि कुटुम्ब - भरण का सतत पुरुषार्थ करता है, जिसको आलस्य छू भी नहीं गया उस गृहस्थ का (वेट्) = हम आदर करते हैं। ३. अब वानप्रस्थाश्रम में (बर्हिषदे) = वासना - शून्य हृदय में स्थित होनेवाले के लिए (वेट्) = हम प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं। जिसमें वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है वही हृदय बर्हि कहलाता है। एक वानप्रस्थ का सतत प्रयत्न यही होता है कि वह अपने हृदय को वासनाओं से शून्य बना सके। ४. (वनसदे) = [वननं-वन:- संभजन ] सदा सम्भजन में स्थित होनेवाले संन्यासी के लिए हम (वेट्) = आदर के शब्द कहते हैं। यह संन्यासी प्रतिक्षण परमेश्वर का स्मरण करता है। अपनी सब क्रियाओं को करते हुए इसके मुख में प्रभु का नाम ही उच्चरित होता रहता है। ५. यह संन्यासी (स्वर्विदे) = उस स्वयं देदीप्यान प्रभु को प्राप्त करनेवाला [विद् लाभे, स्वयं राजते इति स्वर:] होता है। इस प्रभु को प्राप्त करनेवाले संन्यासी के लिए (वेट्) = हम आदर के शब्द कहते हैं । ६. इस प्रकार जीवन-यात्रा को क्रमशः पूर्ण करता हुआ यह व्यक्ति अपनी छोटी उम्र में माता-पिता व आचार्य में स्थित होता है। आगे चलकर सदा क्रियाशील बनता है। फिर वासनाओं के उखाड़ने में लगकर यह सतत उस प्रभु का भजन करता है। यही व्यक्ति हम सबके आदर का पात्र होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम 'नृषद्, अप्सुषद्, बर्हिषद्, वनसद् तथा स्वर्वित् का आदर करते हैं । '

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