यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 65
ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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क्रम॑ध्वम॒ग्निना॒ नाक॒मुख्य॒ꣳ हस्ते॑षु॒ बिभ्र॑तः। दि॒वस्पृ॒ष्ठ स्व॑र्ग॒त्वा मि॒श्रा दे॒वेभि॑राध्वम्॥६५॥
स्वर सहित पद पाठक्रमध्वम्। अ॒ग्निना॑। नाक॑म्। उख्य॑म्। हस्ते॑षु। बिभ्र॑तः। दि॒वः। पृ॒ष्ठम्। स्वः॑। ग॒त्वा। मि॒श्राः। दे॒वेभिः॑। आ॒ध्व॒म् ॥६५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यँ हस्तेषु बिभ्रतः । दिवस्पृष्ठँ स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
क्रमध्वम्। अग्निना। नाकम्। उख्यम्। हस्तेषु। बिभ्रतः। दिवः। पृष्ठम्। स्वः। गत्वा। मिश्राः। देवेभिः। आध्वम्॥६५॥
विषय - मुक्ति में स्थिति
पदार्थ -
१. (अग्निना) = यज्ञ की अग्नि से, अर्थात् अग्निहोत्र की अग्नि के द्वारा (नाकं क्रमध्वम्) = स्वर्ग का आरोहण करनेवाले बनो। यह यज्ञाग्नी तुम्हारे जीवन को स्वर्ग का जीवन बनाये। यह तुम्हारे सब इष्ट- कामों का दोहन करता हुआ तुम्हें सुखी करे। २. (उख्यम्) = उखा से=स्थाली से संस्कृत किये हुए अन्न को (हस्तेषु बिभ्रतः) = हाथों में धारण करते हुए, अर्थात् यह अन्न तुम्हारे हाथों की कमाई से प्राप्त किया गया हो। ३. (दिवः पृष्ठम्) = ज्ञान के पृष्ठ पर, अर्थात् सदा ज्ञानारूढ़ हुए हुए (स्वर्गत्वा) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को प्राप्त करके (देवेभिः) = दिव्य गुणों से मिलकर (आध्वम्) = ठहरो । अथवा (देवेभिः) = ब्रह्म में ही रमनेवाले, परमात्मा के साथ विचरनेवाले मुक्तात्माओं के साथ (मिश्रा:) = मिलकर (आध्वम्) = ब्रह्म में स्थित होओ। ४. एवं प्रस्तुत मन्त्र में मुक्ति का निम्नक्रम प्रदर्शित हुआ है। [क] हम यहाँ यज्ञमय जीवन बनाकर स्वर्ग को पाने का प्रयत्न करें। [ख] अपने हाथों से कमाकर संस्कृत अन्नों का सेवन करनेवाले बनें [ पहले यज्ञ, पीछे खाना] यह क्रम भी महत्त्वपूर्ण है। [ग] ज्ञान के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करना। [घ] इस प्रकार उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति के समीप पहुँचना । [ङ] और उस ब्रह्म से ही अन्य मुक्तात्माओं के साथ मिलकर आसीन होना । जीवन्मुक्त पुरुष यहाँ भी प्रभु-निष्ठ होते हुए परस्पर प्रेम से मिलकर ज्ञान - चर्चाएँ करते हैं। ऐसी ही ज्ञान चर्चाओं के परिणामरूप 'उपनिषद्' आदि ग्रन्थ बनें।
भावार्थ - भावार्थ - १. यज्ञाग्नि हमारे जीवनों को नीरोग व सुखी बनाये । २. हम पुरुषार्थ से अन्नों का अर्जन करें। ३. ज्ञानप्रधान जीवन बिताएँ । ४. उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति के समीप उपस्थित हों । ५. देवों से मिलकर उस प्रभु में स्थित हुए हुए ज्ञानचर्चाएँ करें।
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