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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 64
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    उ॒द्ग्रा॒भं च॑ निग्रा॒भं च॒ ब्रह्म॑ दे॒वाऽअ॑वीवृधन्। अधा॑ स॒पत्ना॑निन्द्रा॒ग्नी मे॑ विषू॒चीना॒न् व्यस्यताम्॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒द्ग्रा॒भमित्यु॑त्ऽग्रा॒भम्। च॒। नि॒ग्रा॒भमिति॑ निऽग्रा॒भम्। च॒। ब्रह्म॑। दे॒वाः। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। अध॑। स॒पत्ना॒निति॑ स॒ऽपत्ना॑न्। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। मे॒। वि॒षू॒चीना॑न्। वि। अ॒स्य॒ता॒म् ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्ग्राभञ्च निग्राभञ्च ब्रह्म देवा अवीवृधन् । अधा सपत्नानिन्द्राग्नी मे विषूचीनान्व्यस्यताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उद्ग्राभमित्युत्ऽग्राभम्। च। निग्राभमिति निऽग्राभम्। च। ब्रह्म। देवाः। अवीवृधन्। अध। सपत्नानिति सऽपत्नान्। इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। मे। विषूचीनान्। वि। अस्यताम्॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 64
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    पदार्थ -
    १. (देवा:) = विद्वान् लोग (उद्ग्राभं च) = उत्कृष्ट वसुओं के बारम्बार ग्रहण से (च) = तथा (निग्राभम्) = वासनाओं के निग्रह से [आभीक्ष्ण्ये णवुल्] ब्रह्म (अवीवृधन्) = अपने अन्दर ज्ञान का व प्रभु का वर्धन करते हैं। ज्ञान व प्रभु-वर्धन का मुख्य उपाय यही है कि हम उत्कृष्ट सत्य आदि गुणों का ग्रहण करते चलें और निकृष्ट कामादि का निग्रह करनेवाले बनें। सत्य को ग्रहण करें, असत्य को छोड़ें' यही तो प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है। २. (अध) = अब (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और (अग्नि) = जितेन्द्रियता [इन्द्र] व आगे बढ़ने की वृत्ति व बुराइयों को भस्म करने की वृत्ति [अग्नि] (मे) = मेरे (विषूचीनान्) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि में विचरनेवाले [ विष्वग् अञ्चनान्] (सपत्नान्) = काम, क्रोध, लोभरूप शत्रुओं को (व्यस्यताम्) = विशेषरूप से दूर फेंक दें। वस्तुत: 'इन्द्र-शक्ति का विकास व आगे बढ़ने की प्रबल कामना' ये दो बातें ऐसी हैं जिनके होने पर वासनाओं का जन्म सम्भव ही नहीं होता। मैं जितेन्द्रिय बनकर अपने अन्दर बने हुए असुरों के दुर्गों का दहन कर डालता हूँ। ब्रह्म का वर्धन करता हुआ मैं भी 'त्रिपुरारि' का छोटा रूप बन जाता हूँ।

    भावार्थ - भावार्थ - १. हम सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करके ब्रह्म वर्धन करनेवाले बनें। २ जितेन्द्रियता व अग्नित्व के द्वारा हम विरोधी वासनाओं का विनाश करनेवाले हों।

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