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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 26
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वि॒श्वक॑र्म्मा॒ विम॑ना॒ऽआद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत स॒न्दृक्। तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दन्ति॒ यत्रा॑ सप्तऽऋ॒षीन् प॒रऽएक॑मा॒हुः॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। विम॑ना॒ इति॒ विऽम॑नाः। आत्। विहा॑या॒ इति॒ विऽहा॑याः। धा॒ता। वि॒धा॒तेति॑ विऽधा॒ता। प॒र॒मा। उ॒त। स॒न्दृगिति॑ स॒म्ऽदृक्। तेषा॑म्। इ॒ष्टानि॑। सम्। इ॒षा। म॒द॒न्ति॒। यत्र॑। स॒प्त॒ऋ॒षीनिति॑ सप्तऽऋ॒षीन्। प॒रः। एक॑म्। आ॒हुः ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मा विमनाऽआद्विहाया धाता विधाता परमोत सन्दृक् । तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऽऋषीन्पर एकमाहुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। विमना इति विऽमनाः। आत्। विहाया इति विऽहायाः। धाता। विधातेति विऽधाता। परमा। उत। सन्दृगिति सम्ऽदृक्। तेषाम्। इष्टानि। सम्। इषा। मदन्ति। यत्र। सप्तऋषीनिति सप्तऽऋषीन्। परः। एकम्। आहुः॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 26
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    पदार्थ -
    १. वे प्रभु (विश्वकर्मा) = [विश्वं कर्म यस्य] इस सृष्टिरूप कर्मवाले हैं, इस ब्रह्माण्ड के निर्माता हैं । २. (विमनाः) = [विविधं मनो विज्ञानं यस्य - द०] विविध व विशिष्ट ज्ञानवाले हैं। अपनी उत्कृष्ट ज्ञानमयता से ही प्रभु सृष्टि का निर्माण करते हैं। प्रभु के विशिष्ट ज्ञान के कारण ही यह सृष्टि पूर्ण है । ३. (आत्) = और [अपि च] (विहायाः) = वे प्रभु महान् हैं, सर्वव्यापाक हैं। सर्वत्र प्राप्त होने से ही वे सृष्टिरूप कार्य के करनेवाले हैं। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया सम्भव नहीं है। ४. (धाता) = वे प्रभु धर्त्ता व पोषक हैं। ५. (विधाता) = उत्पादक हैं, जीवों को कर्मानुसार शरीरों के देनेवाले हैं । ६. (परमः) = प्रकृति 'पर' है, जीव 'पर - तर ' है और परमात्मा 'परतम' व 'परम' है, सबसे उत्कृष्ट हैं। प्रकृति से पुरुष = जीव उत्कृष्ट है, परन्तु प्रभु जीवों से भी उत्तमपुरुष हैं, इसी से 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं । ७. (उत) = और (सन्दृक्) = वे प्रभु सम्यग् द्रष्टा हैं। अपने उपासकों के योगक्षेम का ध्यान करनेवाले हैं। ८. (तेषाम्) = उन लोगों को ही (इष्टानि) = इष्टसुख प्राप्त होते हैं और वे ही इषा = प्रभु प्रेरणा से (संमदन्ति) = उत्तम आनन्द को अनुभव करते हैं । (यत्र) = जबकि (सप्तऋषीन्) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' = कान, नासिका, आँखों व मुख-इन सप्त ऋषियों को पर उस परब्रह्म में (एकम्) = एकीभाव को प्राप्त हुआ हुआ (आहुः) = कहते हैं, अर्थात् जब ये सब इन्द्रियाँ उस उत्कृष्ट परब्रह्म में एकाग्र हो जाती हैं तब प्रभु प्रेरणा के सुनने से ये ध्यानी लोग एक आनन्द - विशेष का अनुभव करते हैं और इन्हें सब इष्टसुख प्राप्त होते हैं। =

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपनी इन्द्रियों को एकाग्र करके उस परमात्मा का चिन्तन करें जो ऐसा करने 'विश्वकर्मा - विमना - विहाया - धाता - विधाता - परम व सन्दृक्' है, जो 'पर' हैं। पर हम प्रेरणा के सुननेवाले होंगे और आनंन्द का अनुभव करेंगे।

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