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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 83
    ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    ऋ॒त॒जिच्च॑ सत्य॒जिच्च॑ सेन॒जिच्च॑ सु॒षेण॑श्च। अन्ति॑मित्रश्च दू॒रेऽअ॑मित्रश्च ग॒णः॥८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒त॒जिदित्यृ॑त॒ऽजित्। च॒। स॒त्यजिदिति॑ सत्य॒ऽजित्। च॒। से॒न॒जिदिति॑ सेन॒ऽजित्। च॒। सु॒षेणः॑। सु॒सेन॒ इति॑ सु॒ऽसेनः॑। च॒। अन्ति॑मित्र॒ इत्यन्ति॑ऽमित्रः। च॒। दू॒रेऽअ॑मित्र॒ इति॑ दू॒रेऽअ॑मित्रः। च॒। ग॒णः ॥८३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतजिच्च सत्यजिच्च सेनजिच्च सुषेणश्च । अन्तिमित्रश्च दूरेअमित्रश्च गणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतजिदित्यृतऽजित्। च। सत्यजिदिति सत्यऽजित्। च। सेनजिदिति सेनऽजित्। च। सुषेणः। सुसेन इति सुऽसेनः। च। अन्तिमित्र इत्यन्तिऽमित्रः। च। दूरेऽअमित्र इति दूरेऽअमित्रः। च। गणः॥८३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 83
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    पदार्थ -
    १. यह प्राणसाधक. (ऋतजित् च) = [ऋतेन जयति] ऋत के द्वारा, भौतिक क्रियाओं में अत्यन्त नियमितता के द्वारा रोगों का पराजय करनेवाला तथा स्वास्थ्य का विजय करनेवाला होता है। २. (सत्यजित् च) - [ सत्येन जयति] इसी प्रकार अपने सत्य व्यवहार से यह सबके हृदयों को जीतनेवाला होता है। ३. (सेनजित् च) = [सेनां जयति] यह काम, क्रोधादि की सेना को जीतनेवाला होता है [ शतसेना अजयत् साकमिन्द्रः] शतशः वासनाओं के बल को यह पराजित करनेवाला होता है और स्वयं ४. (सुषेणः च) = 'धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय - निग्रह, धी, विद्या, सत्य व अक्रोध' आदि उत्तम गुणों की सेनावाला होता है । ५. (अन्तिमित्रश्च) = [मिद्-स्नेहने] सबके साथ स्नेह की भावना इसके हृदय में अन्तिकतम होती है [ अन्तौ = समीपे मित्रा यस्य - द०] अथवा 'प्रमीतेः त्रायते ' = अपने को पाप से बचाने की भावना इसके समीप होती है, इस भावना को यह विस्मृत नहीं होने देता । ६. (दूरे अमित्रश्च) = अमित्रता व शत्रुता की भावना को यह अपने से दूर रखता है। किसी के प्रति राग-द्वेष को यह अपने में नहीं आने देता। साथ ही पाप की भावना को अपने से परे रखता है । ७. इस प्रकार 'अच्छाई को लेते हुए और बुराई को दूर करते हुए यह (गणः) = ' गण्यते' प्रभु भक्तों में गिना जाता है। प्रभु महादेव है, तो यह उनका 'गण' होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम ऋत से स्वास्थ्य का विजय करें। सत्य से हृदय की वासना - सैन्य को जीतनेवाले बनें। धृति आदि उत्तम गुणों की सेनावाले हों। स्नेह की भावना हमारे समीप हो और द्वेष की भावना दूर हो। इस प्रकार हम सच्चे प्रभु भक्तों में परिगणित हों।

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