यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 74
ऋषिः - कण्व ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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ता स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यस्य चि॒त्रामाहं वृ॑णे सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्। याम॑स्य॒ कण्वो॒ अदु॑ह॒त् प्रपी॑ना स॒हस्र॑धारां॒ पय॑सा म॒हीं गाम्॥७४॥
स्वर सहित पद पाठताम्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यस्य। चि॒त्राम्। आ। अ॒हम्। वृ॒णे॒। सु॒म॒तिमिति॑ सुऽम॒तिम्। वि॒श्वज॑न्याम्। याम्। अ॒स्य॒। कण्वः॑। अदु॑हत्। प्रपी॑ना॒मिति॒ प्रऽपी॑नाम्। स॒हस्र॑धारा॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधाराम्। पय॑सा। म॒हीम्। गाम् ॥७४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तँ सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामाहँवृणे सुमतिँविश्वजन्याम् । यामस्य कण्वोऽअदुहत्प्रपीनाँ सहस्रधाराम्पयसा महीङ्गाम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ताम्। सवितुः। वरेण्यस्य। चित्राम्। आ। अहम्। वृणे। सुमतिमिति सुऽमतिम्। विश्वजन्याम्। याम्। अस्य। कण्वः। अदुहत्। प्रपीनामिति प्रऽपीनाम्। सहस्रधारामिति सहस्रऽधाराम्। पयसा। महीम्। गाम्॥७४॥
विषय - सुमति-वरण
पदार्थ -
१. गत मन्त्रों का ऋषि 'कुत्स' बुराइयों के संहार के लिए प्रस्तुत मन्त्र में सुमति का वरण करता है। सुमति-वरण के कारण ही इसका नाम 'कण्व' = मेधावी हो जाता है। यह कहता है कि (सवितुः) = सब ऐश्वर्यों के दाता - सबके उत्पादक सविता की, (वरेण्यस्य) = वरने के योग्य प्रभु की, प्रकृति और प्रभु में प्रभु ही तो वरने योग्य हैं, (ताम्) = उस (चित्राम्) = अद्भुत अथवा चेतना देनेवाली (विश्वजन्याम्) = सब जनों का हित करनेवाली (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (अहम्) = मैं (आवृणे) = सर्वथा वरता हूँ। २. (अस्य) = इस प्रभु की (याम्) = जिस (प्रपीनाम्) = प्रकृष्ट आप्यायन, वर्धनवाली, (सहस्रधाराम्) = शतशः वेदवाणियोंवाली [ धारा = वाक्] अथवा सहस्त्रों का धारण करनेवाली, (पयसा महीम्) = आप्यायन के कारण महनीय (गाम्) = तत्त्वार्थ की (गमयित्री) = ज्ञापिका सुमति को (कण्वः) = मेधावी पुरुष (अदुहत्) = अपने में दोहन करता है, अपने में भरता है। ३. प्रभु के 'सवितुः तथा वरेण्यस्य' ये दो नाम यह सूचना दे रहे हैं कि यह सुमति तुम्हें सब प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त कराएगी, तथा सचमुच यह वरणीय है, हमारे जीवनों को श्रेष्ठ बनानेवाली है। ४. इस सुमति के विशेषण पद इसके निम्न लाभों का संकेत कर रहे हैं [क] (चित्राम्) = यह अद्भुत योगैश्वर्यों को देनेवाली है तथा हमें उत्कृष्ट चेतना प्राप्त करानेवाली है [चित्+रा] । [ख] (विश्वजन्याम्) = यह सब लोकों का हित करनेवाली है। [ग] (प्रपीनाम्) = यह प्रकृष्ट आप्यायन व वर्धनवाली है। [घ] (सहस्त्रधाराम्) = शतशः वेदवाणियों में इसका प्रतिपादन हुआ है। [ङ] (पयसा महीम्) = अपनी आप्यायन-शक्ति से यह महनीय है, पूजनीय है। [च] (गाम्) = तत्त्वार्थ की गमयित्री है, वास्तविकता का ज्ञान देनेवाली है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की सुमति का ही वरण करें और सचमुच 'कण्व' मेधावी बनें। मेधावी बनकर निम्न शब्दों से प्रभु स्तवन करें-
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