यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 80
ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः
देवता - मरुतो देवताः
छन्दः - आर्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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शु॒क्रज्यो॑तिश्च चि॒त्रज्यो॑तिश्च स॒त्यज्योति॑श्च॒ ज्योति॑ष्माँश्च। शु॒क्रश्च॑ऽऋत॒पाश्चात्य॑ꣳहाः॥८०॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रज्यो॑ति॒रिति॑ शु॒क्रऽज्यो॑तिः। च॒। चि॒त्रज्यो॑ति॒रिति॑ चि॒त्रऽज्यो॑तिः। च॒। स॒त्यज्यो॑ति॒रिति॑ स॒त्यऽज्यो॑तिः। च॒। ज्योति॑ष्मान्। च॒। शु॒क्रः। च॒। ऋ॒त॒पा इत्यृ॑त॒ऽपाः। च॒। अत्य॑ꣳहा॒ इत्यति॑ऽअꣳहाः ॥८० ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च । शुक्रश्चऽऋतपाश्चात्यँहाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
शुक्रज्योतिरिति शुक्रऽज्योतिः। च। चित्रज्योतिरिति चित्रऽज्योतिः। च। सत्यज्योतिरिति सत्यऽज्योतिः। च। ज्योतिष्मान्। च। शुक्रः। च। ऋतपा इत्यृतऽपाः। च। अत्यꣳहा इत्यतिऽअꣳहाः॥८०॥
विषय - प्राणसाधना से ज्ञान + क्रिया की शुद्धि
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में प्राणसाधना के द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करने का उल्लेख हुआ है। प्राणायाम से इन्द्रियों के मल दग्ध हो जाते हैं, 'पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि' चमक उठते हैं। ये ही सात ऋषि बन जाते हैं जो इस साधक के ज्ञान को बढ़ानेवाले होते हैं। इनसे समुचित कार्य लेनेवाले ये साधक भी 'सप्त ऋषयः' बन जाते हैं। उनका वर्णन इन मन्त्रों में दिया गया है। उन प्राणों के साधन से साधक जैसा बनता है उसी आधार पर प्राणों का भी नाम रक्खा गया है। इस मन्त्र में सात मरुतों-प्राणों का वर्णन है। इनकी साधना से साधक [क] (शुक्रज्योतिः च) = [शुक्रं ज्योतिर्यस्य] दीप्त ज्ञान की ज्योतिवाला बनता है। [ख] (चित्रज्योतिः च) = [चित्रं ज्योतिर्यस्य] यह अद्भुत - असाधारण ज्ञान की ज्योतिवाला होता है। [ग] (सत्यज्योतिः च) = [सत्यं ज्योतिर्यस्य] इसका ज्ञान सत्य होता है। योगदर्शन में इसी ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली बुद्धि को 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' कहा गया है। [घ] (ज्योतिष्मान् च) = यह सदा प्रकाशमय अन्तःकरणवाला होता है। इसके मस्तिष्क में किसी प्रकार की उलझन व अन्धकार नहीं होता। ३. ज्ञान को प्राप्त करके यह क्रियाओं को समाप्त नहीं कर देता। यह [क] (शुक्रश्च) = [शुक् गतौ] खूब क्रियाशील बनता है [क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः]। [ख] यह अपनी क्रियाओं से (ऋतपाः च) = ऋत का पालन करता है। सूर्य और चन्द्रमा की भाँति बड़ी नियमित, ठीक [right] इसकी गति होती है। [ग] और इस गतिशीलता व नियमितता से यह (अत्यंहाः) = पाप को लाँघ जाता है। [ अंहः अतिक्रान्तः] । एवं इस प्राणसाधना करनेवाले का जीवन ज्योतिर्मय व क्रियामय होता है। इसका ज्ञान उज्ज्वल होता है और क्रियाएँ निष्पाप ।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना हमारी ज्योति व क्रिया का वर्धन करनेवाली हो ।
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